- पापा की सरकारी नोकरी के कारण पापा का दो- चार साल में तबादला होता रहता था इसलिए हमें भी उनके साथ नयी - नयी जगहो पर जाना पडता था।इस बार हम सन्तु जीजी के मोहल्ले में थे ।एक आवाज घर केपीछे वाले घर में बार- बार गुँजती थी 'सन्तुडी ओ सन्तुडी ! जाणे कित मरगी ' मै उस वक्त छोटी ही थी एक इच्छा हुई कि
- आखिर कौन है ये सन्तुडी ।लेकिन मुझे ज्यादा इन्तजार नही करना पडा ।शाम को ही वो अपने घर की छत पर थी और हम भी छत पर ही थे। सर्दियो के दिन थे उन्होने स्वेटर और सर पर ऊनी स्कार्फ पहन रखा था। मुश्किल से चौदह -पन्द्रह साल की मध्यम कद काठी की एक किशोरी थी।हमें देख कर एक प्यारी सी मुस्कान दी।बदले में हम भी मुस्कुराने लगे।कुछ ही देर मे वो हमारी छत पर थी ।कुछ ही दिन मे वो हमसे इतनी घुल- मिल गयी की कब परायी से हमारी प्यारी सन्तु जीजी बन गयी।मौहल्ले से जो रिश्ते खुद ने जोड रखे थे उनसे हमको भी जोड दिया।मम्मी की भी वो पूरी मदद करती थी।उनका चेहरा हमेशा हँसता हुआ रहता था ।हमारे साथ खेलने से लेकर हमारे. साथ बाजार तक मे वो हमेशा शामिल रहती थी ।मेरे मम्मी- पापा के लिए तो वो उनकी दूसरी बेटी बन गयी थी।और उनके लिए वो अम्मा- बापू।.
समय यूँ ही हँसते मुस्कुराते निकल रहा था।एक दिन मैने पूछा,जीजी आप स्कूल नही जाती ।नही, मैने पढाई छोड दी है।
क्यों? आपने पढाई क्यों छोड दी।
क्योंकी मुझे मैथ के भूत से डर लगता था।
कहकर हँसने लगी।
उनके पापा मन्दिर में पुजारी थे।चार बहन और दो भाईयों मे सबसे छोटी थी वो।सबकी शादी हो चुकी थी और अब वही बची थी।उनकी भी शीघ्र शादी करके उनके पिता अपनी जिम्मेदारियो से मुक्त होना चाहते थे।उनके लिए भी लडका देखा जा रहा था।
एक दिन मैं और जीजी दोनो मन्दिर जा रहे थे,एक मोटर साइकिल हमारा पीछा कर रही थी।गये जब भी और आये जब भी वो हमारा इन्तजार करते दिखे।हमे देख कर मुस्कुराने लगे।अंधेरा होने वाला था।कोई दूर तक नजर नही आ रहा था ।पहले तो वो घबराई फिर कुछ सोच के बोली,सीधे निकल लो नही तो चप्पल हैं पैरो मे,छाप सीधी मुँह पर पडेगी।दोनो लडके मोटर साईकिल पर बैठ कर चलते बने पर जाते- जाते बोले,अजी आपकी छाप लेने के लिए ही तो हम यहाँ आयें हैं।
तीन चार दिन बाद मे ही जीजी का रिश्ता पक्का हो गया।सब फोटो देख रहे थे मैने भी फोटो देखी।अरे! ये तो वही लडका है।तभी जीजी ने मुँह पर हाथ रख दिया।सबको बात पता चली सब जीजी को छेडने लगे।
कुछ समय बाद उनकी शादी धूम- धाम से हो गयी।जीजा जी के मम्मी पापा बचपन में ही गुजर चुके थे।एक बहन थी।चाची चाचा ने ही उनको पाला था।अठारह साल का होते ही उनकी नोकरी पिता की जगह लग गयी थी।अपने बचपन मे काफी अभावो को झेला था।इसलिए वो अपनी आगे की जिन्दगी के हर पल को खुशनुमा बनाकर जीना चाहते थे।दोनो मे इतना प्यार था की देखने वालो के लिए वो एक आदर्श दम्पत्ति थे।हमारे लिए तो वो एक जीती जागती फिल्म के हीरो- हीरोइन थे।उनका रूसना मटकना,लडना-झगडना और फिर एक दूसरे को मनाना ,सब बहुत प्यारा लगता था।सब कहती थी कितनी भागवान है सन्तु, बिना मांगे ही सब कुछ मिल गया इसे तो।चार साल यूँ ही गुजर गये।जीजाजी का अपने दोस्तो के साथ कही बाहर जाने का कार्यक्रम था।जाने की तैयारी कर चुके थे पर जाने का मन नही हो रहा था।
जा नही रहे आप ? जीजी ने पूछा
आप कहो तो न जाऊँ।
जरूर जाईये।पूरे दिन तंग करते रहते हो।
अच्छा तो अब मुझसे परेशान हो।ठीक है तो मै जा रहा हूँ।इन्तजार करती रहना।हाथ जोड-जोड कर बुलायेंगी तब भी नही आऊंगा।
आप जाओ तो सही फिर देखेंगे मै आपको बुलाती हूँ या आप ही दौडे-दौडे चले आओगे।
जयपुर से लौटते समय उनकी गाडी का एक्सीडेन्ट हो गया।रात को कितना तडपे होंगे नही पता पर सुबह उनके मरने की खबर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर थी।पाँचो दोस्तो मे से एक भी नही बचा।सन्तु जीजी पर तो दुखो का पहाड टूट पडा।अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठी। एक लम्बे इलाज के बाद कुछ सामान्य हुई।उनके लिए तो अब पूरी दुनियाँ ही बदल गई।पर उन्हे जीना था अपने पति की. निशानी जो उनके पेट मे पल रही थी। कल तक जो रिश्ते उनके अपने थे वो पति के जाने के बाद बेगाने हो गये।इस दुनियाँ की कड वी सच्चाइयों से जिनसे वो अब तक अन्जान थी,अब वो मुहँ उठाये उनके सामने खडी थी।वैध्व्य के जीवन की सारी पीडाये. ़़़़़़़़़