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पगलिया

28 जुलाई 2018

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चार बजने वाले थे। मुझे पूजा के लिए मन्दिर जाना था इसलिए मैं पूजा की थाली सजा रही थी। दोनो बच्चे अपना होमवर्क करने में व्यस्त थे।छोटे-छोटे बच्चो के इतने भारी -भारी बस्ते ,इन पर भी कितना प्रेसर डाल रखा हैं हमने। आधुनिक युग में हमने भौतिक सुख-सुविधाओं का तो विस्तार कर लिया हैं किन्तु मानसिक सुख-शान्ती का क्षेत्र कम करते जा रहे हैं।कॉलेज की साईकॉलोजी की मेडम की कही बात याद आ गयी। जिस तरह से दुनियाँ विकास कर रही हैं, उससे लगता हैं कि भविष्य में अधिक से अधिक मनोवैज्ञानिको को तैयार करना पडेगा। सच ही तो हैं ,मानसिक स्वास्थ्य की तरफ ना तो सरकार का ही ध्यान हैं और ना जनता ही जागरूक हैं। सरकारी अस्पतालो में तो मनोवैज्ञानिको की पोस्ट ही नही हैं।केवल बडे-बडे शहरो में ही मनोवैज्ञानिक उपलब्ध होते हैं। वहाँ जाना हर किसी के बस की बात नहीं होती।क्या मानसिक स्वास्थ्य ,शारीरिक स्वास्थ्य जितना महत्वपूर्ण नहीं हैं।फिर एक नई पगलिया ़़़़़़़


एक गहरी सांस के साथ अपने आप को सामान्य करने की कोशिश कर रही थी। पर पगलिया नाम ही मुझमे उथल-पुथल के लिए काफी था।


" भाभी चलो ,मन्दिर के लिए लेट नहीं हो रही।पता नही क्या सोचने में लीन हैं। " निशा झकझोरते हुए बोली।

मन्दिर मैं पूजा कर रही थी पर ख्याल बार बार पगलिया पर जाकर ठहर रहे थे। अब तक तो न जाने कितनी बार ही टकरा जाती । ये मन्दिर ही तो रैन बसेरा था उसका। सर्दी-गर्मी यही उसकी रजाई,और यही उसका कूलर था। किसी को पूजा करते देखती तो खुद भी विधी-विधान से पूजा शुरू कर देती। पगलिया कहना उस महिला का अपमान ही था,पर नाम तो रखा जा चुका था।

आज सबकुछ सूना -सूना सा लग रहा था। मानो किसी के आने का इन्तजार हो। एक आकृति पोटली हाथ में लटकाये इधर-उधर भटकती एहसास में थी।


मैं जब नयी-नयी आयी थी ,नीचे चौक में बैठी थी। अचानक एक बैयालीस- पैतालीस उम्र की महिला पीछे के गेट से अन्दर घुसती चली आयी। मैं कुछ बोलती इससे पहले ही वो बोल उठी। "थे हो नई बिन्दणी"मैने हाँ में सिर हिलाया ।

"घणी सुथरी बिन्दणी हो। नजर ना लागे"

मेरी बलइयाँ लेती हुई बोली । मैंने झुक कर पैर छू लिए। "दुदो नहाओ पूतो फलो और न जाने कितने ही आशिर्वाद एक सांस में बोल गयी। "ठुकराणी सा कोनी अठ: , बिन्दणी एक चोखी सी चाय पिलाद्यो।"

"अभी बना के लाती हुँ।आप बैठियें।

वो नीचे जमीन में ही बैठ गयी।

"अरे ! आप नीचे क्यों बैठ गये ,ऊपर सोफे पर बैठिये ना । "

" मन: तो जमीण ही चोखी लागे।"

मैं मुस्कुरा गयी ।" ठीक हैं तो आप आसन पर बैठ जाईये।"

हँसने की आवाज से मैंने नजरे ऊपर करी। निशा और पति देव जाल मे से हँसते नजर आयें। मैं ऊपर आयी तो पति देव चुटकी लेने लगे।

"लो भई ! आज कल तो पगलिया भी मुँह दिखाई करने आने लगी।"

"आपको कहाँ से वो पागल नजर आ रही हैं"

" मनोविज्ञान की छात्रा तो तुम हो ,तुम्हे पता होना चाहिये वो कहाँ से पागल हैं।"

चाय के साथ मम्मीजी को नीचे भेजकर मैंने निशा को पकडा।" क्या बात हैं बाई सा?आपके भाई उन्हे पागल क्यों बता रहें थे।मुझे तो वो पागल नहीं लग रही थी।"

"मैं आपको शुरू से बताती हुँ। ये पहले अपनी ही कॉलोनी में किराये के मकान में रहा करती थी। इनके कोई भाई नही था, इसलिये इनके पिता ने अपना मकान दोनो बहनो में आधा-आधा बाँट दिया। कई साल ये उसमें रही ।अचानक एक दिन इनके पति ने धोखे से इनका हिस्सा भी इनकी छोटी बहन के नाम कर दिया। इनने काफी कलेश किया किन्तु वो इन्हे जबरदस्ती गाँव ले गये। वहाँ से जब- तब मौका देखकर भाग आती हैं।बहन घर में घुसने नहीं देती। बहन और पंडित जी को खूब गालियाँ देकर इन गलियों में भटकती फिरती हैं। घर वाले लोक लाज से ले जाते हैं पर ये फिर भाग आती हैं। कुल मिलाकर पत्थर तो नहीं फैंकती लेकिन कुछ तो सटका हुआ हैं।"

मैं इतना तो समझ गयी थी की इन्हे किसी बात का सदमा लगा हैं। इनको परिवार के प्यार और अपने पन के साथ इलाज की भी जरूरत हैं।मैंने नीचे जाल मेसे देखा जमीन में ही सोयी पडी थी। शाम तक वो नही गयी। मम्मीजी ने काफी कोशिश की लेकिन वो तो जाने को तैयार ही नही थी। पापाजी भी गुस्सा हो रहे थे। ज्यादा मुँह लगाने की जरुरत ही क्या हैं। इसका तो रोज का काम हैं। खाना खिलाने के बाद मम्मीजी घूमाने के बहाने से घर के बाहर ले के गयी। उसी दिन से हमें दुबारा घर में ना घुसाने की चेतावनी मिल चुकी थी। मुझे उससे पूरी हमदर्दी थी ।अपनो की बेरूखी उसे एक दिन पूरा पागल कर देगी। लेकिन मैं क्या कर सकती थी।किसी के घर के दरवाजे खुले होते तो उसमें घुस जाती। मन होता तो सबके समाचार पूंछती ,वरना बडबडाती हुई आगे बढ जाती। एक दिन शाम के समय वो सीधा अन्दर आ गयी ।मम्मीजी के पास बैठ कर सामान्य बात चीत करने लगी। बाहर बन्दर थे ,उन्हे भगाने के लिये निशा ने डंडा उठाया ही था की अचानक पगलिया बिदक कर कोने में सिमट सी गयी। "डंडो क्यो उठार लायी हैं,हटा ़़़दूर हटा ़़़"बड बड करती भाग गयी।

चाय पानी सब उसे बाहर ही दे दिया जाता लेकिन घर में उसके लिए किसी के पास जगह नहीं थी।रात मन्दिर में गुजारती और दिन भर कॉलोनी में भटकती रहती। मेरे देखते-देखते ही उसकी हालत बद से बद्तर होती जा रही थी। जब मौका लग जाता ,जिस घर में घुस जाती तो निकलने का नाम नही ले लेती। उसके घर वालो से कई बा कह चुके थे।लेकिन वो इनको सार -संभालने के लिये नही आये।

एक दिन दोपहर में सब सो रहे थे। बाथरूम से किसी के नहाने का सा एहसास हुआ ।मैंने सोचा इस समय कौन नहा रहा हैं। पगलिया नहा के बाहर निकली ।मुझे देखकर गीले कपडो को पोटली में डाल कर बोली "गर्मी लाग री " सचमुच उसे नहाये कई दिन हो गये थे।मैंने पूछा,"खाना खा लो"

"अबार भूख कोनी" पोटली बगल में दबाये बाहर निकल गयी। अगर किसी के हाथ में डंडा देख लेती तो उत्तेजित हो जाती। गालियाँ बकने लग जाती। "मन: मारबा कू ला री हैं। अपना आपा खो देती। बच्चे उसका पीछा करते ,चिडाते,पत्थर फैंकते ।अब तो रात मे भी उसको परेशान करते।रात में कुछ आवारा लडके सोती हुई पर पत्थर फैंकते,डंडा फैंकते,उसे तंग करते,और भाग जाते। "बापखाणो !अब आओ ।जाण सू मार दूंगी। एक-एक को खून पी जाऊँगी ़़़़़़़ " कहती हुई उनके पीछे दौडती। कॉलोनी वालो का पूरा प्रयास था की उसे कोई परेशान ना करे लेकिन इन आवारा लडको से कैसे पीछा छुडाये। काफी कोशिश से भी हाथ नही आये। बदले में वो भी यही सब करने लगी। गालियाँ बकना,पत्थर फैंकना,रोटी माँगना पर बाहर चौतरे पर ही रख देना। मन होता तो खाती वरना पटक देती। एक दिन एक औरत डंडा ले के जा रही थी। पगलिया ने जैसे ही उसे देखा ,गाल पर थप्पड लगा दिया ।हंगामा हो गया। उसके बेटे ने आकर चार -छ: डंडे उसके सिर पर दे मारे।

वो चीखती रही ।हम सब ने पहुँच कर बीच- बचाव किया। सिर से खून बह रहा था। पट्टी करवाई। उसके घर वालो को खबर करी की उसे आकर ले जाओ लेकिन उन्हे कहाँ फुर्सत थी।उस दिन से वो डरी सहमी रहने लगी। दो दिन तक वो मन्दिर में ही बैठी रही। ना किसी से चाय माँगी और ना रोटी ही। घटना के तीसरे दिन उसका एक्सीडेन्ट हो गया। और यहीं पर उसने अपनी देह को त्याग दिया।


"भाभी क्या सोच रही हो ,चलो ।आपको रास्ते में कुछ दिखाती हुँ।" एक घर के आगे रूकती हैं। नेम प्लेट पर लिखा था,'कमला निवास'

"पता हैं भाभी ये घर पगलिया के घर वालो ने खरीद लिया हैं,उसके क्लेम के पैसो से"

अपने नाम की पहचान को भी खोने वाला पगलिया का ये कमला नाम दरवाजे के मुख्य द्वार पर टंगा था।

जीन्दगी भर दर-दर की ठोकरे खाकर जाने वाली पगलिया का ये कमला निवास उसे अब भी चिढा ही रहा होगा।

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