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दूसरा अंक

27 जनवरी 2022

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स्थान राजा हरिश्चन्द्र का राजभवन।
रानी शैव्या बैठी हैं और एक सहेली बगल में खड़ी है।
रा. : अरी? आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे हैं कि जब से सो के उठी हूं कलेजा कांप रहा है। भगवान् कुसल करे।
स. : महाराज के पुन्य प्रताप से सब कुसल ही होगी आप कुछ चिन्ता न करें। भला क्या सपना देखा है मैं भी सुनूँ?
रा. : महाराज को तो मैंने सारे अंग में भस्म लगाए देखा है और अपने को बाल खोले, और (आँखों में आँसू भर कर) रोहितास्व को देखा है कि उसे सांप काट गया है।
स. : राम! राम! भगवान् सब कुसल करेगा। भगवान् करे रोहितास्व जुग जुग जिए और जब तक गंगा जमुना में पानी है आप का सोहाग अचल रहे। भला आप ने इस की शांती का भी कुछ उपाय किया है।
रा. : हाँ गुरुजी से तो सब समाचार कहला भेजा है देखो वह क्या करते हैं।
स. : हे भगवान् हमारे महाराज महारानी वुं$अर सब कुसल से रहैं, मैं आंचल पसार के यह वरदान मांगती हूं।
(ब्राह्मण आता है)
ब्रा. : (आशीर्वाद देता है)
स्वस्त्यस्तुतेकुशलमस्तुचिरायुरस्तु
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु
ऐश्वय्र्यमस्तुकुशलोस्तुरिपुक्षयोस्तु
सन्तानवृद्धिसहिताहरिभक्तिरस्तु ।।
रा. : (हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है)
ब्रा. : महाराज गुरूजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है। इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा लें और फिर थोड़ा स पान भी कर लें और यह रक्षाबंधन भेजा है। इसे कुमार रोहिताश्व की दहनी भुजा पर बांध दें फिर इस जल से मैं मार्जन करूंगा।
रा. : (नेत्रा में जल लगाकर और कुछ मंुह फेर कर आचमन करके) मालती, यह रक्षाबन्धन तू सम्हाल के अपने पास रख। जब राोहितास्व मिले उस के दहने हाथ पर बाँध दीजियो।
स. : जो आज्ञा (रक्षाबन्धन अपने पास रखती है)।
ब्रा. : तो अब आप सावधान हो जायं मैं मार्जन कर लूँ।
रा. : (सावधान होकर) जो आज्ञा।
ब्रा. : (दुर्बा से मार्जन करता है)
देवास्त्वामभिषिंचन्तुब्रह्मविष्णुशिवादयः
गन्धव्र्वाःकिन्नराः नागाः रक्षा कुव्र्वन्तुतेसदा
पितरोगुह्यकायक्षाः देव्योभूताचमातरः
सव्र्वेत्वामभिषिंचन्तुरक्षांकुर्वन्तुतेसदा
भद्रमस्तुशिवंचास्तुमहालक्ष्मीप्रसीदतु
पतिपुत्रयुतासाध्विजीत्ववं शरदांशतं ।।
(मार्जन का जल पृथ्वी पर फेंककर)
यत्पापंरोगमशुभंतद्दूरेंप्रतिहतमस्तु
(फिर रानी पर मार्जन करके)
यन्मंगलंशुभं सौभाग्यधनधान्यमारोग्यं बहु
पुत्रत्वं तत्सव्र्वमीशप्रसादात्ब्राम्हणवचनात्त्वय्यस्तु
(मार्जन कर के फूल अक्षत रानी के हाथ में देता है)
रा. : (हाथ जोड़कर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है)
महाराज गुरु जी से मेरी ओर से बिनती करके दंडवत कह दीजिएगा।
ब्रा. : जो आज्ञा (आशीर्वाद देकर जाता है)
रा. : आज महाराज अब तक सभा में नहीं आए?
स. : अब आते होंगे, पूजा में कुछ देर लगी होगी।
(नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं)
(राग भैरव)
प्रगटहु रविकुलरबि निसि बीती प्रजा कमलगन फूले। मन्द परे रिपुगन तारा सम जन भय तम उन भूले ।। नसे चोर लम्पट खल लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो। मागध बंदी सूत चिरैयन मिलि कलरोर मचायो ।। तुव कस सीतल पौन परसि चटकीं गुलाब की कलियां। अति सुख पाइ असीस देत सोइ करि अंगुरिन चट अलियां ।। भए धरम मैं थित सब द्विज जन प्रजा काज निज लागे। रिपु जुवती मुख कुमुद मन्द जन चक्रवाक अनुरागे ।। अरध सरिस उपहार लिए नृप ठाढ़े तिन कहं तोखौ। न्याव कृपा सों ऊंच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ।
(नेपथ्य में से बाजे की धुनि सुन पड़ती है)
रा. : महाराज ठाकुर जी के मंदिर से चले, देखो बाजों का शब्द सुनाई देता है और बंदी लोग भी गाते आते हैं।
स. : आप कहती हैं चले? वह देखिये आ पहुंचे कि चले।
रा. : (घबड़ा कर आदर के हेतु उठती हैं)
(परिकर सहित महाराज हरिश्चन्द्र आते हैं)
(रानी प्रणाम करती हैं और सब लोग यथा स्थान बैठते हैं)
ह. : (रानी से प्रीतिपूर्वक) प्रिये! आज तुम्हारा मुखचन्द्र मलीन क्यों हो रहा है?
रा. : पिछली रात मैंने कुछ दुःस्वप्न देखे हैं जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है।
ह. : प्रिये! यद्यपि स्त्रियों का स्वभाव सहज ही भीरु होता है पर तुम तो वीर कन्या वीरपत्नी और वीरमाता हो तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यों?
रा. : नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है।
ह. : सो गुरु जी से कुछ शान्ति करने को नहीं कहलाया।
रा. : महाराज! शान्ति तो गुरु जी ने कर दी है।
ह. : तब क्या चिन्ता है शास्त्रा और ईश्वर पर विश्वास रक्खो सब कल्याण होगा। सदा सर्वदा सहज मंगल साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ के संतोष करना चाहिए।
रा. : महाराज! स्वप्न के शुभाशुभ का विचार कुछ महाराज ने भी ग्रंथों में देखा है?
ह. : (रानी की बात अनसुनी करके) स्वप्न तो कुछ हमने भी देखा है चिन्तापूर्वक स्मरण करके। हां यह देखा है कि एक क्रोधी ब्राह्मण विद्या साधन करने को सब दिव्य महाविद्याओं को खींचता है और जब मैं स्त्री जान कर उनको बचाने गया हूँ तो वह मुझी से रुष्ट हो गया है और फिर जब बड़े विनय से मैंने उसे मनाया है तो उसने मुझसे मेरा सारा राज्य मांगा है। मैंने उसे प्रसन्न करने को अपना सब राज्य दे दिया है। (इतना कहकर अत्यन्त व्याकुलता नाट्य करता है।)
रा. : नाथ। आप एक साथ ऐसे व्याकुल क्यों हो गए?
ह. : मैं यह सोचता हूँ कि अब मैं उस ब्राह्मण को कहाँ पाऊंगा और बिना उसकी थाती उसे सौंपे भोजन कैसे करूंगा।
रा. : नाथ। क्या स्वप्न के व्योहार को भी आप सत्य मानिएगा?
ह. : प्रिये, हरिश्चन्द्र की अद्र्धांगिनी होकर तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं है। हा! भला तुम ऐसी बात मुंह से निकालती हौ! स्वप्न किसने देखा है? मैंने न? फिर क्या? स्वप्न संसार अपने काल में असत्य है इसका कौन प्रमाण है, और जो अब असत्य कहो तो मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है, फिर इस संसार में परलोक के हेतु लोग धम्र्माचरण क्यों करते हैं? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में क्या प्रत्यक्ष।
रा. : (हाथ जोड़कर) नाथ क्षमा कीजिए, स्त्री की बुद्धि ही कितनी।
ह. : (चिन्ता करके) पर मैं अब करूं क्या! अच्छा। प्रधान! नगर में डौंडी पिटवा दो कि राज्य सब लोग आज से अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण का समझें उसके अभाव में हरिश्चन्द्र उसके सेवक की भाँति उसकी थाती समझ के राज का काय्र्य करेगा और दो मुहर राज काज के हेतु बनवा लो एक पर ‘अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण सेवक हरिश्चन्द्र’ और दूसरे पर ‘राजाधिराज अज्ञात नाम गोत्रा ब्राह्मण महाराज’ खुदा रहे और आज से राज काज के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे। देस देस के राजाओं और बड़े-बड़े कार्याधीशों को भी आज्ञापत्रा भेज दो कि महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण को पृथ्वी दी है इससे आज से उसका राज हरिश्चन्द्र मंत्री की भांति सम्हालेगा।
(द्वारपाल आता है)
द्वा. : महाराजाधिराज! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा है और व्यर्थ हम लोगों को गाली देता है।
ह. : (घबड़ा कर) अभी सादरपूर्वक ले आओ।
द्वा. : जो आज्ञा (जाता है)।
ह. : यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी बात हो।
(द्वारपाल के साथ विश्वामित्र आते हैं)।
ह. : (आदरपूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम करके) महाराज! पधारिए, यह आसन है।
वि. : बैठे, बैठ चुके, बोल अभी तैनें मुझे पहिचाना कि नहीं।
ह. : (घबड़ाकर) महाराज! पूब्र्ब परिचित तो आप ज्ञात होते हैं।
वि. : (क्रोध से) सच है रे क्षत्रियाधम। तू काहे को पहिचानेगा, सच है रे सूर्यकुलकलंक तू क्यों पहिचानेगा, धिक्कार तेरे मिथ्या धर्माभिमान को ऐसे ही लोग पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं। अरे दुष्ट तै भूल गया कल पृथ्वी किस को दान दी थी, जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
‘जातिस्वयंग्रहणदुर्ललितैकविप्रं
दृप्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम्
सर्गान्तराहरणभीतजगत्कृतान्तं
चण्डालयाजिनमवैषिनकौशिकंमाम्’
ह. : (पैरों पर गिरके बड़े विनय से) महाराज! भला आप को त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा।
‘अन्नक्षयादिषु तथाविहितात्मवृत्ति
राजप्रतिग्रह पराङमुखमानसं त्वाम्
आड़ोवकप्रधनकम्पितजीवलोकं
कस्तेजसां च तपसां च निधिर्नवेत्ति ।।’
बि. : (क्रोध से) सच है रे पाप पाखंड मिथ्यादान बीर! तू क्यों न मुझे ‘राज प्रतिग्रह पराङमुख’ कहेगा क्योंकि तैंने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान न दी है, ठहर-ठहर देख इस झूठ का कैसा फल भोगता है, हा! इसे देख कर क्रोध से जैसे मेरी दहिनी भुजा शाप देने को उठती है वैसे ही जाति स्मरण के संस्कार से बाईं भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है, (अत्यन्त क्रोध से लंबी सांस लेकर और बांह उठा कर) अरे ब्रह्मा! सम्हाल अपनी सृष्टि को नहीं तो परम तेज पुञच दीर्घतपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या? ब्रह्मा का तो गब्र्ब उसी दिन मैंने चूर्ण किया जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभिमान चूर्ण करूंगा जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत् में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।
ह. : (पैरों पर गिर के) महाराज क्षमा कीजिए मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आप की मैं आप का भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुंह से निकालते हैं। (ईषत् क्रोध से) और आप बारंबार मुझे झूठा न कहिए। सुनिए मेरी यह प्रतिज्ञा है।
‘चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत ब्योहार।
पै दृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य बिचार’ ।।
बि. : (क्रोध और अनादर पूब्र्बक हंस कर) ह्ह्ह्ह्! सच है सच है रे मूढ़! क्यों नहीं, आखिर सूर्यबंशी है। तो दे हमारी पृथ्वी।
ह. : लीजिए, इसमें विलम्ब क्या है, मैंने तो आप के आगमन के पूब्र्ब ही से अपना अधिकार छोड़ दिया है। (पृथ्वी की ओर देखकर)
जेहि पाली इक्ष्वाकु सीं अबलौं रवि कुल राज।
ताहि देत हरिचन्द नृप विश्वामित्र हि आज ।।
वसुधे! तुम बहु सुख कियो मम पुरुखन की होय। धरमबद्ध हरिचन्द को छमहु सु परबस जोय।।
वि. : (आप ही आप) अच्छा! अभी अभिमान दिखा ले, तो मेरा नाम विश्वामित्र जो तुझको सत्यभ्रष्ट कर के छोड़ा, और लक्ष्मी से तो भ्रष्ट हो ही चुका है। (प्रगट) स्वस्ति। अब इस महादान की दक्षिणा कहां है?
ह. : महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी आती है।
वि. : भला सहस्र स्वर्ण मुद्रा से कम इतने बडे़ दान की दक्षिणा क्या होगी।
ह. : जो आज्ञा (मंत्री से) मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ।
वि. : (क्रोध से) ‘मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ’ मंत्री कहां से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है कि तैं मंत्री पर हुकुम चलाता है? झूठा कहीं का, देना ही नहीं था तो मुंह से कहा क्यों? चल मैं नहीं लेता ऐसे मनुष्य की दक्षिणा।
ह. : (हाथ जोड़कर बिनय से) महाराज ठीक है। खजाना अब सब आप का है, मैं भूला क्षमा कीजिए। क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है।
वि. : एक महीने में जो मुझे दक्षिणा न मिलेगी तो मैं तुझ पर कठिन ब्रह्मदंड गिराऊंगा, देख केवल एक मास की अवधि है।
ह. : महाराज! मैं ब्रह्मदंड से उतना नहीं डरता जितना सत्यदंड से इससे
बेचि देह दारा सुअन होइ दास हूं मन्द।
रखि है निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।
(आकाश से फूल की वृष्टि और बाजे के साथ जयध्वनि होती है)
(जवनिका गिरती है)
।। इति दूसरा अंक ।। 

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रचनाएँ
सत्य हरिश्चन्द्र
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सत्य हरिश्चंद्र भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित चार अंकों का नाटक है। काशी पत्रिका नामक पाक्षिक हिन्दी पत्र में प्रकाशित यह नाटक पहली बार १८७६ ई. में बनारस न्यु मेडिकल हाल प्रेस में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। . 5 संबंधों: नाटक, भारत दुर्दशा, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, राजा हरिश्चन्द्र, अंधेर नगरी।
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उपक्रम

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मेरे मित्र बाबू बालेश्वरप्रसाद बी.ए. ने मुझ से कहा कि आप कोई ऐसा नाटक भी लिखैं जो लड़कों को पढ़ाने के योग्य हो क्योंकि शृंगार रस के आपने जो नाटक लिखे हैं वे बड़े लोगों के पढ़ने के हैं लड़कों को उनसे क

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प्रथम अंक

27 जनवरी 2022
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जवनिका उठती है (स्थान इन्द्रसभा, बीच में गद्दी तकिया धरा हुआ, घर सजा हुआ) (इन्द्र आता है) इ. : (‘यहाँ सत्यभय एक के’ यह दोहा फिर से पढ़ता हुआ इधर-उधर घूमता है।) (द्वारपाल आता है) द्वा. : महाराज! न

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दूसरा अंक

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स्थान राजा हरिश्चन्द्र का राजभवन। रानी शैव्या बैठी हैं और एक सहेली बगल में खड़ी है। रा. : अरी? आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे हैं कि जब से सो के उठी हूं कलेजा कांप रहा है। भगवान् कुसल करे। स. : म

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तीसरे अंक में अंकावतार

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स्थान वाराणसी का बाहरी प्रान्त तालाब। (पाप आता है) पाप : (इधर उधर दौड़ता और हांफता हुआ) मरे रे मरे, जले रे जले, कहां जायं, सारी पृथ्वी तो हरिश्चन्द्र के पुन्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर

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तीसरा अंक

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(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क) महाराज हरिश्चन्द्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं ह. : देखो काशी भी पहुंच गए। अहा! धन्य है काशी। भगवति बाराणसि तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है।

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चौथा अंक

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स्थान: दक्षिण, स्मशान, नदी, पीपल का बड़ा पेड़, चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी, इत्यादि। कम्मल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चन्द्र फिरते दिखाई पड़ते हैं। ह. : (लम्बी सांस लेकर) हाय

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