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एक ज़ब्तशुदा किताब

3 मई 2022

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वे दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने देखकर नीचे धरती की ओर देखने लग पड़ीं।

नीचे कुछ भी नहीं था, पर दोनों को पता था कि दोनों के बीच एक लाश है...

''सब लोग चले गए ?''

''सब लोग जा सकते थे इसलिए चले गए। माँ दूसरे बेटे के पास रहने के लिए, दोनों बच्चे होस्टल में। अब सिर्फ़ मैं हूँ, अकेली...।''

''बच्चे छुट्टियों में आएंगे, कभी-कभी माँ भी आएगी।''

''हाँ, कभी-कभी।''

'पर मेरे पास कभी कोई नहीं आएगा।''

''आज तू ज़िन्दगी में पहली बार घर के अगले दरवाजे से आई है।''

''यह दरवाजा तो तेरा था, कभी भी मेरा नहीं था इसलिए।''

''पर जब तू पिछले दरवाजे से आती थी, मुझे पता चल जाता था। उस दिन एक मर्द अपने घर में ही चोर होता था।''

''घर में नहीं, सिर्फ़ बागीचे वाली अपनी लायब्रेरी में... वहाँ मैं उसकी एक किताब की तरह हुआ करती थी।''

'पर औरत एक किताब नहीं होती।''

''होती है, पर ज़ब्तशुदा...।''

''क्या मतलब ?''

''यही कि तू शादीशुदा थी, मैं नहीं।''


एक औरत ज़ोर से हँस पड़ी। शायद उसका सारा रुदन हँसी की योनि में पड़ गया। वह उस दूसरी औरत को कहने लगी, ''इसलिए आज मैं विधवा हूँ, तू नहीं...।''

''मेरा हक न पहले लफ्ज़ पर था, न दूजे पर।''

''तूने मुझसे बस ये दो लफ्ज़ नहीं छीने, बाकी सब कुछ छीन लिया।''

''एक और भी है तीसरा लफ्ज़ जो सिर्फ़ तेरे पास है, मेरे पास नहीं।''

''कौन सा ?''

''उसके बच्चे की माँ होने का।''

''तीन लफ्ज़, सिर्फ़ तीन लफ्ज़... पर वह खुद इन तीन लफ्ज़ों से बाहर था।''

'इसीलिए खाली हाथ था।''

''पर इन लफ्ज़ों के सिवा उसके पास मुहब्बत के सारे लफ्ज़ थे।''

''हाँ, पर जब ये तीन लफ्ज़ ज़ोर से हँसते थे, ज़िन्दगी के बाकी लफ्ज़ रो पड़ते थे।''

''तूने ये भी उससे मांगे थे ?''

''नहीं, क्योंकि मांगने पर मिल नहीं सकते थे।''

''अगर मिल जाते, तू आज मेरी तरह विधवा होती...।''

''अब भी हूँ।''

''पर सबकी नज़र में कुआँरी।''

''छाती में पड़ी हुई लाश किसी को नज़र नहीं आती।''

''पर मेरी छाती में उस वक्त भी उसकी लाश थी, जब वह जीवित था।''

''हाँ, समझती हूँ।''

''मैं तब भी एक कब्र की तरह ख़ामोश थी।''

''शायद, हम तीनों ही कब्रों के समान थे। एक दूसरे की लाश को अपनी-अपनी मिट्टी में संभाल कर बैठी हुई कब्रें...।''

''शायद। पर अगर तू उसकी ज़िन्दगी में न आती...''

''कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।''

''कैसे ?''

''फिर वह खाली कब्र की तरह जीता।''

''शायद, शायद नहीं।''

''उसने अन्तिम समय कुछ कहा था ?''

''कुछ नहीं, सिर्फ़...।''

''अब जो कुछ तुझसे गुम हुआ है, वह मुझसे भी गुम हो चुका है। इसलिए जो कुछ उसने कहा था, मुझे बता दे।''

''कुछ नहीं कहा था। बस, जब कोई कमरे में आता था, वह आँखें खोल कर एक बार ज़रूर उसकी ओर देखता था, फिर चुपचाप आँखें मूंद लेता था।''

''शायद, वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।''

''शायद...।''

'तूने मुझे बुलाया क्यों नहीं था ?''

''घर में उसकी माँ थी, उसका छोटा भाई था, बच्चे भी... मैं सबकी नज़र में उसको बचाना चाहती थी।''

''क्या खोया, क्या बचाया, इसका हिसाब लग सकेगा ?''

''मैंने जो खोना था, खो चुकी थी। मुझे अपना ख्याल नहीं था।''

''तूने ठीक कहा था, अगर मैं उसकी ज़िन्दगी में न आती...।''

''मैं नफ़रत के दुख से बच जाती... और शायद दूसरे दुख से नहीं बच सकती थी।''

''दूसरा दुख ?''

''खालीपन का... शुरू से ही जानती थी, पाकर भी कुछ नहीं पाया। वह मेरे बिस्तर में भी मेरा नहीं होता था। खाली-खाली आँखों से शून्य में देखता रहता था।''

''फिर तो तुझे तसल्ली होती होगी, अगर वह अन्तिम समय में भी सिर्फ़ शून्य में देखता ?''

''शायद होती... यह तसल्ली ज़रूर होती कि उसकी लाश पर सिर्फ़ मेरा हक है... पर अब...।''

''अब ?''

'लगता है, तूने उसकी लाश भी मुझसे छीन ली है।''

''सिर्फ़ लाश...।''

''नहीं, उसे भी छीना था, जब वह जिन्दा था।''

'वह अकेला कभी नहीं था। उसके अन्दर तू भी शामिल थी, बच्चे भी... मैंने जब भी उसे पाया, तेरे और तेरे बच्चों समेत पाया।''

''पर जब तू उसके करीब होती होगी, उस वक्त उसके जेहन में न मैं होती होऊँगी, न बच्चे...।''

''कुछ चीज़ों को याद नहीं करना होता, वे होती हैं, चाहे दीवार से परे हों, पर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता।''

''उसने तुझे यह बताया था ?''

''यह कहने वाली या पूछने वाली बात नहीं थी। जब वह कभी अकेला होता तो शायद पूछ लेती।''

''पर वहाँ लायब्रेरी में वह सदैव तेरे पास अकेला होता था।''

''वहाँ उसकी बीवी एक खुली किताब-सी होती थी और बच्चे भी, किताब की तस्वीरों की तरह...।''

''और तू ?''

''मैं एक खाली किताब थी जिस पर उसने जो इबारत लिखनी चाही, कुछ लिख ली...।''

''तन की इबारत भी ?''

''हाँ, तन की इबारत भी... पर वह बहुत देर बाद की बात है।''

''बहुत देर बाद की ? किससे बहुत देर बाद की ?''

''मन की इबारत लिखने से बहुत देर बाद की।''

''क्या उस वक्त भी मैं एक खुली किताब की तरह उसके सामने होती थी ?''

''हाँ, होती थी... इसलिए वह हमेशा एक कांपती हुई कलम की तरह होता था।''

''वह बच्चों को बहुत प्यार करता था।''

''हाँ, इसलिए उसने अपना दूसरा बच्चा दुनिया से लौटा दिया था।''

''दूसरा बच्चा ?''

''वह मेरी खाली किताब में एक फटी हुई तस्वीर जैसी बात है।''

दोनों गहरी चुप्पी में खो गईं। पहली खुली हुई किताब की भाँति और दूसरी खाली किताब की तरह... फिर पहली ने एक ठंडी साँस भरते हुए कहा, ''पर आज तू मेरे पास क्यो आई है ?''

''क्यों ? पता नहीं...''

''मैं ही तो तेरे रास्ते की दीवार थी।''

वह दूसरी, पहली के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी, कहने लगी, ''शायद इसलिए कि जब कोई बहुत अकेला होता है, उसे किसी दीवार से सिर लगाकर रोने की ज़रूरत होती है।'' 

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रचनाएँ
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अमृता प्रीतम (1919-2005) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थीं। अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें सबसे अधिक चर्चित उनकी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' रही। पद्म विभूषण व साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए।अमृता प्रीतम साहित्य जगत् में एक ऐसी ‘ शख्सियत रही हैं जिनकी लेखनी ने भाषाओं की सीमाओं को तोड़ा और यह प्रमाणित किया कि लेखक की ‘ शैली भाषा , बोली देश की सीमाओं में बाँधी नहीं रहती। साहित्य में उनके द्वारा सृजित रचनाओं ने सभी वर्ग के पाठकों को आकर्षित किया। उनकी लेखन - ’ शैली पाठकों के कोमल मन पर सीधा प्रभाव छोडती है। अमृता प्रीतम हिन्दी साहित्य जगत में एक बहुचर्चित नाम है। साहित्य में उनके द्वारा सृजित रचनाओं ने पाठकों को काफी आकर्षित किया है। उनकी लेखन - ’ शैलीपाठकों के कोमल मन पर सीधा प्रभाव छोड़ती है। अमृता प्रीतम हिन्दी साहित्य मे एक बहुचर्चित नाम है। उनका बचपन और प्रारंभिक जीवन भले ही विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों के साथ गुजरा है और उन्हें मातृत्व सुख से वंचित रहना पड़ा है। बावजुद इसके अमृता प्रीतम साहित्य जगत में अपनी मुकाम बनाने में काफी सफल रही है।
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