इन्द्रलेखा मजबूर थी या कि उसमें हिम्मत ना थी सही को सही या गलत को गलत कहने की,ये तो वो ही जान सकती थी,इतने सालों से उसने कभी भी इस जुल्म के ख़िलाफ़ कोई भी आवाज़ नहीं उठाई थी,क्या पता कि उसका ज़मीर सो चुका था या कि हमेशा के लिए मर चुका था,शायद जुल्म सहना उसकी आदत में शुमार हो गया था या कि वो इसलिए आवाज़ नहीं उठा रही थी कि उसकी गिरस्ती कहीं बरबाद ना हो जाए,
इन्द्रलेखा की चुप्पी साधने की क्या वज़ह थी ये तो केवल वो ही बता सकती थी,वो सुबह से उठकर पूजा-पाठ में लग जाती,फिर रसोई में जाकर महाराजिन को हिदायतें देती कि क्या बनेगा नाश्ते में या के क्या बनेगा दोपहर में,क्योकिं रात के खाने का तो कुछ पता ही नहीं होता कि बाप बेटे कब लौटेगें,इसलिए हवेली की औरतें दोपहर के बचे हुए खाने से ही काम चला लिया करतीं थीं, बस फिर वो अपने कमरे में आकर कढ़ाई बुनाई के काम लेकर बैठ जाती।
नाश्ता बन जाता तो जमींदार को परोसकर ले जाती,दोपहर का खाना वो जमींदार को पंखा झलते हुए ही खिलाती थी,स्त्रियाँ इतनी कठोर कैसे हो सकतीं हैं समझ ही नहीं आता,जो पति इस आदर के योग्य ही नहीं होता जब कि उस स्त्री को ये बात अच्छी तरह मालूम होती है तब भी उसकी सेवा मेँ जी-जान लगा देती हैं,ये संस्कार होते हैं या और कुछ मैं तो आज तक ना समझ पाई,
हाँ! तो शायद इन्द्रलेखा के इतना कठोर बनने के पीछे एक कहानी है और वो कहानी कुछ इस तरह से है....
जमींदार मानवेन्द्र के यहाँ तीन बेटों के बाद एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम इन्द्रलेखा रखा गया,वो बहुत ही खूबसूरत थी,इन्द्रलेखा धीरे धीरे बड़ी होने लगी और ज्यो ज्यो वो बड़ी हो रही थी उसके ऊपर पाबन्दियों का पहरा लगता जा रहा था,पिंजरें में कैद पंक्षी अपने पर फड़फड़ाना चाहता था बाहर की दुनिया देखना चाहता था लेकिन उसे ये आजादी नहीं थी और आज़ादी मिलना मुमकिन भी नहीं था,इन्द्रलेखा ने अपनी भाइयों की तरह स्कूल में पढ़ने की इच्छा जाहिर की लेकिन वहाँ भी वो निष्फल रही,मानवेन्द्र ने इज़ाज़त नही दी।।
दिन बीत रहे थे,अब इन्द्रलेखा पन्द्रहवीं पूरी करके सोलहवें साल में जा पहुँची,उनके घर में बनवारी जो कि जानवरों को दाना पानी डालने और गोबर उठाने गौशाला की साफ सफाई करने के लिए आया करता था ,बनवारी अकेले इतना काम नहीं सम्भाल पाता था इसलिए जब ज्यादा काम होता तो वो अपने बेटे रघु को अपने साथ हवेली ले आता था,रघु इन्द्रलेखा का हमउम्र था।।
रघु जब भी बनवारी के साथ आता तो इन्द्रलेखा की माँ उसे खाना खिला देती,एक दिन इन्द्रलेखा की माँ बीमार थी तो उसने इन्द्रलेखा से कहा,
इन्दू ! जा बाहर जाकर बनवारी और उसके लड़के को खाना दे आ और याद रहें अपने खाने के बरतनों में खाना मत देना,महाराजिन से बोल देना वो पत्तल और सकोरों में खाना परोस देगी।।
ठीक है माँ! इतना कहकर इन्दू रसोई में आई और महाराजिन से खाना परोसने को कहा....
फिर इन्दू वो परोसा हुआ खाना लेकर बाहर आई और बोली....
बनवारी काका! माँ ने खाना भेजा है।।
रघु ने इन्द्रलेखा को उस दिन पहली बार देखा था और इन्द्रलेखा ने भी रघु को पहली बार देखा था,फिर दोनों बाप बेटे खाना खाने लगे,खाना स्वादिष्ट था क्योकिं ऐसा खाना रघु को केवल हवेली मे ही नसीब होता था इसलिए वो जल्दी जल्दी खाना खाने लगा,जल्दी खाने के चक्कर में रघु को ठसा लग गया और खाँसी आ गई,ये देखकर इन्द्रलेखा ने जल्दी से पानी से भरा सकोरा रघु की ओर बढ़ाया और बोली...
लो पानी पी लो,तुम्हारी खाँसी मिट जाएगी।।
रघु ने पानी लेकर पी लिया और उसकी खाँसी भी मिट गई लेकिन बनवारी ने इन्द्रलेखा से कहा.....
बिटिया! इ का किया तुमने,हम लोगन का छू लिया,हमें पाप मा मत डारो बिटिया!
तब इन्द्रलेखा बोली.....
तुम लोंग भी तो इन्सान हो,गरीब हो तो क्या हुआ?
नाहीं बिटिया! इ नियम बरसन से चला आ रहा है,नियम ना तोड़ो बिटिया! कहीं जमींदार साहब का कुछु पता चल गया तो हमारी खाल खिचवा लेंगें,बनवारी बोला।।
ठीक है तो मैं आज के बाद आप दोनों को नहीं छुऊँगी,इन्द्रलेखा बोली।।
और उस दिन के बाद इन्द्रलेखा कभी कभी बाहर रघु से मिल लेती,फिर मुलाकातें ज्यादा बढ़ने लगी,इन्दू की माँ को पता चला तो उन्होंने मना किया,लेकिन मासूम दिल नहीं समझा सीधा बगावत पर उतर आया और फिर इन्दू ने अपनी माँ से बदजुबानी करते हुए कहा.....
माँ! तुम क्या चाहती हो? मेरी जिन्दगी भी तुम्हारी तरह इसी चारदीवारी मे कट जाएं,ना स्कूल, ना सहेलियाँ, ना बाहर घूमना,मुझे जरा सा भी हक़ नहीं है कि मैं आजादी से रह सकूँ,मैं भी उड़ना चाहती हूँ घूमना चाहती हूँ,लेकिन यहाँ हर एक चीज की मनाही है,तीनों भाभियों का भी यही हाल है,
तीनों भाई देर रात को शराब के नशे में घर लौटते हैं फिर उनके कमरे से भी वही मार पीट की आवाज़ आती है,सुबह देखों तो किसी भाभी के गाल पर थप्पड़ का निशान रहता है तो किसी का माथा फूटा रहता है तो किसी की कलाई में टूटी हुई चूड़ियों के निशान होते हैं और तुम उन पर ये अत्याचार होने देती हूँ,भाइयों को कुछ नहीं कहती,अब तुम मुझसे भी यही उम्मीद कर रही हो.....
बहुत ज्यादा जुब़ान चलने लगी है तेरी,तेरे बाबूजी को कुछ पता चल गया ना कि तू उस दो कौड़ी के बनवारी के बेटे के साथ बातें करती है तो तेरे साथ साथ मुझे भी मरवा देगें,जो सालों से होता है वही होता रहेगा, तू पिद्दी भर की छोकरी समाज के कायदे-कानून बदलने चली है ऐसा मत कर नहीं तो मरेगी एक दिन,हम औरतों का नसीब यही चारदिवारी है और तू भी इसे जितनी जल्दी स्वीकार कर लेगी तो उतना ही अच्छा रहेगा तेरे लिए और इतना कहकर इन्द्रलेखा की माँ चली गई।।
लेकिन इन्द्रलेखा ने अपनी माँ की बात नहीं मानी और एक दिन इन्द्रलेखा को रघु के साथ बातें करते उसके बड़े भाई ने देख लिया,वो उसी समय इन्द्रलेखा को घसीटते हुए हवेली के भीतर ले गया ,दो तीन झापड़ रसीदे और बाबूजी को इन्द्रलेखा की सारी करतूत बता दी....
जमींदार मानवेन्द्र ने रातोंरात बनवारी और उसके बेटे को कटवाकर नदी में बहवा दिया और आनन-फानन में इन्द्रलेखा की शादी उससे बड़ी उम्र के जमींदार से तय कर दी,इन्द्रलेखा को बनवारी और रघु के मारने की बात घर की एक नौकरानी ने बताई और इन्द्रलेखा से अपना नाम ना बताने को कहा.....
सोलह साल की उम्र में इन्द्रलेखा तीस साल के जमींदार गजेन्द्र की पत्नी बनकर इस हवेली में आ गई,सुहागसेज पर बेहरमी से उसके अरमानों को कुचल दिया गया,वो खौफनाक सुहाग की रात आज तक इन्द्रलेखा नहीं भूली है,फिर शादी के बाद जब इन्द्रलेखा अपने मायके गई और माँ से रो रोकर सब बताया तो माँ का जवाब सुनकर वो दंग रह गई जो इस प्रकार था....
वो हवेली और वो पति ही तेरी नियति है,तेरे नसीब में यही लिखा था और वो ही तुझे मिला है।
कितनी आसानी और बेशर्मी के साथ इन्दू की माँ ने अपना पल्ला छुड़ा लिया,वो ये कैसे भूल गई कि ये उसी की पैदा की हुई बेटी है,नौ महीने इसे भी उसने पेट में रखा होगा ,उतना ही दर्द सहा होगा जितना कि बेटो को पैदा करते वक्त सहा होगा,सच औरत ही औरत की दुश्मन होती है,ऐसे तिल तिल कर मारने से तो अच्छा है कि अपनी बेटी को एक बार जहर देकर हमेशा के लिए अपना पल्ला छुड़ा लेती...
फिर इन्द्रलेखा दोबारा कभी अपने मायके ना गई और इसी हवेली को ही अपनी दुनिया मान बैठी,कभी कभी जमींदार गजेन्द्र रात को उससे मिलने आ जाता जब बाहर कोई जुगाड़ ना मिलता,फिर वो शुष्क सा कष्टदायी बिना भावों का मिलन जिससे इन्द्रलेखा का दम घुटने लगता,वो बेजान सी बिस्तर पर पड़ी रहती,जब उसे गजेन्द्र छूता तो उसे ऐसा लगता था कि जैसे अनगिनत साँप-बिच्छू उसके शरीर पर रेंग रहे़ हो,उसे खुद से घिन सी आने लगती,जब गजेन्द्र के छूने से उसके बदन मेंं कोई हरक़त ना होती तो गजेन्द्र भी कभी कभी उस पर खीझ उठता कि तू मेरे काब़िल नहीं है,तुझमें जान नहीं है,बहुत ठण्डी है तू! लेकिन इन्द्रलेखा हिम्मत करके ये ना कह पाती कि मैं कोई वेश्या नहीं हूँ,पहले मेरा मन छूने की कोश़िश करो तभी मेरा तन भी पा पाओगें।।
इसी बीच इन्द्रलेखा दो सालों के अन्तर में दो बेटों की माँ बन गई,इन्द्रलेखा के माँ बनने के बाद गजेन्द्र ने बिल्कुल से ही इन्द्रलेखा के पास आना छोड़ दिया और इन्द्रलेखा भी यही चाहती थी,उसे भी वो बिना भावों का शुष्क मिलन खलने लगा था।।
बेटे जवान हुए तो जमींदार ने बहुएं बुला लीं,बहुएं भी अपनी सास की तरह चारदिवारी में कैद़ हो गईं,उनके साथ भी वही होता जो सास के साथ होता आया था।।
फिर एक रोज़ कुशमा अपने कमरें के छज्जे में बैठकर अपने बाल सुखा रही थी,तभी इन्द्रलेखा भी गीले और खुले बालों के साथ आँगन में तुलसी चौरे की पूजा करने आई,उसने उस समय अपने सिर पर पल्लू नहीं ले रखा था,इन्द्रलेखा को देखकर कुशमा को रहा ना गया और वो बोल पड़ी.....
जमीदारन जी! आपके बाल तो बहुत ही सुन्दर हैं।।
इन्द्रलेखा ने ऊपर देखा तो मुस्कुरा दी लेकिन बोली कुछ नहीं तो कुशमा फिर से बोली.....
मुझे लगता है कि जैसे आप गूँगीं है॥
ऐ लड़की! गूँगीं किसे बोलती है? इन्द्रलेखा बोली।।
तो आप बोल भी सकतीं हैं,कुशमा बोली।।
और तुझे क्या लगा कि मैं गूँगी हूँ? इन्द्रलेखा ने कहा।।
अब नहीं लगता कि आप गूँगीं हैं,आप तो सुन्दरता की मूरत हैं ,आप यहाँ हवेली में क्या कर रहीं हैं?आपको तो मन्दिर में होना चाहिए देवी के रूप में,कुशमा बोली।।
ए लड़की ! इतनी बातें क्यों बना रही है?इन्द्रलेखा ने पूछा।।
कुछ नहीं! आपको देखकर अपनी माँ की याद आ गई,कुशमा के ऐसे बोल सुनकर इन्द्रलेखा की आँखें भर आईं और वो बिना कुछ कहे ही भीतर चली गई।।
क्रमशः....
सरोज वर्मा.....