भारतीय आजादी को 70 साल बीत गये। लेकिन अफसोस लोकतंत्र का विकास केवल नेताओं के पेट तक ही सीमित रहा। आजादी के बाद जनसेवकों में नेता बनने की होड़ लगने लगी। कुर्सी के लिए लोग आपसी मैत्री और प्रेम को स्वाह कर खून-खराबे पर उतारु हो गये। जैसे-जैसे कुर्सी पर हमारे जनसेवक बैठते गये वैसे-वैसे भारतीय लोकतंत्र के उद्यान में गरीबी खरपतवार बनकर अपना साम्राज्य स्थापित करती गयी। गरीबी हटाओ के दम पर चुनाव लडे और जीते गये पर गरीबी अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई। यकीनन गरीबी की जगह गरीब को हटना ही हमारे सत्ताधारी नेताओं का एकमात्र उद्देश्य रहा है। आज भी निजाम ठिठुरते गणतंत्र में दिल्ली की प्राचीर से गरीब होने का दम तो भरता है लेकिन उसी दुर्ग के बाहर फुटपाथ पर सोते भूखे गरीबों और भिखारियों के हाल को जानने की जरुरत महसूस नहीं करता है।
आज गरीब मतलब का मतलब बनकर रह गया है। हर कोई अपने स्वार्थ साधने के लिए गरीब का भरपूर इस्तेमाल करने की फिराक में लगा है। सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री तक के चुनाव को जीतने के लिए गरीब का उपयोग किया जा रहा है। नेता अपनी साख बचाने के लिए गरीब होने का स्वांग रच रहे है। दरअसल जो जितना गरीब होने का झूठा दावा करने में सफल होंगा वो उतना ही बड़ा नेता गिना जायेंगा। गरीब पर बातें व बहस करने वाले जमीन से शिखर पर पहुंच गये है। लेकिन किस्मत का मारा बेचारा गरीब आज भी गरीबी के दलदल में जीवन का रोना रो रहा है। फुटपाथ की पगडंडी पर पत्थर के तकिये पर अपना सिर रखकर सो रहा है।
यदि देश में गरीब नहीं होंगा तो हमारे नेता भाषण किस पर देंगे ? वे खाना किसके घर पर खाकर फोटो खिंचवाकर सुर्खियां बटोरेंगे ? अगर गरीब नहीं होंगा तो फिल्मस्टार सलमान खान और ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी अपनी महंगी कार से किसे कुचलेंगी ? यदि गरीब नहीं होंगा तो गायक अभिजीत भट्टाचार्य जैसे लोग किसे कुत्ते की संज्ञा देकर लोकप्रिय होंगे ? गरीब नहीं होंगा तो दो रुपये प्रतिकिलो गेहूं का वितरण और खादी का कपड़ा किसे बांटा जायेंगा और कौन मटमैला पानी पियेंगा ? गरीब नहीं होंगा तो सरकारी स्कूल का मिड-डे मील खाकर किसके बच्चें चूहे की मौत मरेंगे ? और कौन सरकारी अस्पताल में बिना इलाज के ही दाना मांझी की तरह अपनी पत्नी का शव कंधों पर मीलों तक ढोयेगा ? इसलिए येन-केन-प्रकारेण गरीब तो चाहिए ही चाहिए। बिन गरीब के सारी कल्याणकारी और जनहितकारी योजनाओं का कचुम्बर निकल जायेंगा। और जनवादी नेताओं और प्रगतिशील लोकतंत्र की छवि मिट्टी में मिल जायेंगी। वस्तुतः आज गरीब फ्री की चीज बनकर रह गया है। जिसके मरने और घुट-घुट के जीने से किसी को भी दूर-दूर तक वास्ता नहीं है।