मानव जीवन के निर्माण में पंचतत्व जल, वायु, आकाश, पृथ्वी और अग्नि की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब तक इन पांच तत्व का समन्वय, संतुलन और संगठन निर्धारित परिमाण में संयोजित रहता है तो हम कहते पर्यावरण सही है और जब इनके मध्य का तालमेल बिगड़ने लगता है तो हम कहते पर्यावरण दूषित हो रहा है। प्रकृति और मानव आदिकाल से ही परस्पर निर्भर रहे है। यदि हम पर्यावरण के घटकों की बात करे तो हमारी सभ्यताओं का विकास प्राचीन समय में नदियों के किनारे हुआ और हमने प्रकृति प्रदत्त वृक्षों के फल को आहार व सूखी लकड़ियों का ईधन के रुप में उपयोग करके अपना जीवन विकसाया। लेकिन, आज हालात यह हो चुके है कि जीवनकवच पर्यावरण का स्वास्थ्य दिनोंदिन हमारी लापरवाही और स्वार्थी सोच के कारण बिगड़ता जा रहा है। यह कहे तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हमने पर्यावरण के सीने में खंजर घोंपने का काम किया है।
जिस प्रकृति के तत्वों की वैदिक वाग्ङ्मय, रामचरितमानस तथा भगवत् गीता में विभिन्न ऋचाओं द्वारा स्तुति एवं उपासना की गई है, आज अत्याधुनिकता के कारण वहीं प्रकृति दर्द से कराह रही है। इस बात को दुनिया के सबसे विश्वसनीय मेडिकल जर्नल लेंसेट की ताजा रिपोर्ट पुख्ता करती है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में प्रदूषण की वजह से दुनिया भर में 90 लाख लोगों की मौत हुई, जबकि 2015 में प्रदूषण की वजह से भारत में 25 लाख लोगों की मौत हुई। वहीं, दूसरी ओर आतंकवाद की वजह से पूरी दुनिया में साल 2015 में 28,328 लोगों की मौत हो गई। अकेले भारत में सिर्फ आतंकवाद की वजह से 2015 में 722 लोगों की जान चली गई। पर्यावरण प्रदूषण के कारण होने वाली मौतोे का ये आंकड़ा किसी भी युद्ध, आतंकवाद और भुखमरी से होने वाली मौतों से बहुत ज्यादा है। ये आश्चर्यजनक है कि दुनिया में प्रदूषण से होने वाली मौत के मामले में भारत पहले नंबर पर है। प्रदूषण की वजह से दुनिया को हर साल 293 लाख करोड़ का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है, जो विश्व की अर्थव्यवस्था का 6.2 फीसदी होता है।
हाल की रिपोर्ट हमारे देश व समाज में होने वाले पर्यावरण संरक्षण के कार्यक्रम, गोष्ठियां व बैठकों की पोल खोल देती है। साथ ही हमारा पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमी होने का दावा झूठा साबित कर देती है। सच तो यह है कि हम प्रकृति के हित की बात भी एयरकंडिशनर चैंबर्स में बैठकर करना उचित समझते है। परिणामस्वरूप आज धरती बंजर होती जा रही है। प्राणवायु में जहर घुलता जा रहा है। पानी की पवित्रता पर संकट के बादल मंडरा रहे है। गंगा और यमुना जैसी नदियां अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। हरितिमा की हरी चटाएं विलुप्त होने की कगार पर है। कोयल के कंठ से निकलने वाली मधुर आवाज कारखानों के कर्कश में गुम होती जा रही है। वर्षा का क्रम बिगड़ रहा है। कहीं कम कहीं अधिक तो कहीं बादल बरस ही नहीं रहे है। धरती का सुहाग लुटता जा रहा है। ग्लेशियर पिघलते जा रहे है। ओजोन परत का क्षय हमारे समक्ष चुनौती बन रहा है। चहुंओर मानवीय जीवन को संकट का भय सताने लग गया है।
बेशक, प्रकृति सर्वोत्तम और शक्तिशाली है। इसके साथ मित्रता का रिश्ता रखकर ही जीया जा सकता है। लेकिन, हमारी मिथ्यावादी सोच और हठधर्मिता ने प्रकृति को अपनी दासी बनाने की जब जब निरर्थक और नाकामियाब कोशिश की तब तब मुंह की खायी और फलस्वरूप केदारनाथ की भीषण बाढ़ जैसे महाप्रलय का सामना करना पड़ा। प्रकृति के विशालकाय रूप के समक्ष मानव का कद बौना था और बौना है- यह हमें समझना होगा। पर्यावरण के इशारों पर चलने में ही मानव की बुद्धिमत्ता है।
आखिर बिगड़ते पर्यावरण का समाधान क्या है ? क्या जरूरत इस बात की नहीं है कि हमें पर्यावरण की प्रदूषित होती स्थिति के लिए सर्वप्रथम अपनी दूषित एवं दकियानूसी मानसिकता को बदले। क्या पर्यावरण के प्रति हमें अब सचेत और हद से ज्यादा जागरूक होने की आवश्यकता जान नहीं पड़ती ? निरंतर कटते जंगल पृथ्वी के मंगल के लिए अमंगलकारी बन रहे है। बिना वृक्ष के जीवन की कल्पना कैसी की जा सकती है ?
हमें समझना होंगा पर्यावरण प्रदूषण एक अहम् समस्या है। इसे मिटाने हेतु सबको प्रयास करने होंगे। केवल दंड संहिता व कठोर कानून से ही सुधार संभव नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मन की बात के 20वें संस्करण में वर्तमान जल समस्या के लिए जन भागीदारी का आह्वान किया है। प्रकृति के प्रत्येक कार्य व्यवस्थित और स्वचालित मानते हुए उसे निर्दोष माना है। अपनी अविवेकी बुद्धि के कारण मनुष्य ही अपने आपको प्रकृति का अधिष्ठाता मानने की भूल करने लगा जिससे प्रकृति के कार्यो में बाधाएँ उत्पन्न होने लगी। म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट (नगरीय ठोस अपशिष्ठ) कानून में भी कठोर दंड के बावजूद महानगरों में गंदे कचरों के पहाड़ प्रकट हो गए किन्तु सफलतापूर्वक प्रदूषण नियंत्रित किया जा सके इस हेतु कोई ठोस कदम नहीं दिखाई पड़ता। प्रदूषणों के लिए जिम्मेदार हमारी नीयत रही है। नीति की बातें सभी ने की हैं, व्यवहार में किसी ने नहीं उतारा। रूसो का कथन है कि हमें आदत न डालने की आदत डालनी चाहिए। रूसो ने भी प्रकृति की ओर लौटने का आह्वान आज से 300 वर्ष पूर्व किया था। पर्यावरण संरक्षण के लिए देश में 200 से भी ज्यादा कानून हैं। यह एक कानूनी मुद्दा अवश्य है, किन्तु इसे सर्वाधिक रूप से शुद्ध एवं संरक्षित रखने के लिए समाज के सभी अंगों के मध्य आवश्यक समझ एवं सामंजस्य स्थापित होना आवश्यक है। इसके लिए सामाजिक जागरूकता की जरूरत है ताकि सुन्दर परिवार के साथ सुन्दर पर्यावरण बन सकें।
अंततः पर्यावरण संरक्षण के लिए सामूहिक भागीदारी आवश्यक है, परिणामस्वरूप पर्यावरण का बिगड़ना सहज प्रक्रिया हो गई हैं। हमारे पूर्वजों ने वन्य जीवों को देवी-देवताओं की सवारी मानकर तथा पेड़-पौधों को भी देवतुल्य समझकर उनकी पूजा की इस हेतु उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रकृति और पर्यावरण के लिए हर उस काम से परहेज करे जिससे उसे हानि का सामना करना पड़े। व्यापक पैमाने पर वृक्षारोपण करने हेतु अभियान चलाने, जन-जागृति लाने जैसी मुहिम इस दिशा में सार्थक पहल होगी।