हमारे देश को गणतंत्र की राहों पर चलने से पहले स्वतंत्र होना पड़ा। और यह स्वतंत्रता हमें इतनी भी आसानी से नहीं मिली जितनी की हम फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर को तीन रंगों में रंगकर अपनी राष्ट्रभक्ति साल में दो दिन छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त पर सार्वजनिक कर देते हैं। आज़ादी के लिए न जाने कितने ही मां के सपूतों को हंसते-हंसते देशहित में प्रणोत्सर्ग करना पड़ा। शहीदों ने जब कील व नाखूनों से जेल की दीवारों पर ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय हिन्द’ के स्वर बुलंद किये तब कई जाकर देश में एक नया सूर्योदय हुआ। जिसे हमने आजादी के आफ़ताब के नाम से पुकारा और जाना। उस समय देशभक्ति की कसौटी बनी थी। जहां देश प्रेम का उफान चरमोत्कर्ष पर हुआ करता था। ये मानें कि देश के लिए जान देने की परिपाटी-सी बनती चली गई थी। और देश के लिए मर मिटने को हर कोई अपना पुण्य समझता था। जिस समय पिता भी कलेजे पर पत्थर रखकर जवान बेटे को खत लिखकर नसीहत देते थे - बेटा ! इंच-इंच कट जाना पर इंच-इंच पीछे मत हटना। वह दौर हुआ करता था राष्ट्रभक्ति का। जहां सुबह-सुबह गुलाबी सर्दी में लोग गली-मोहल्लों में देशभक्ति के गाने और नारों को गाकर व लगाकर के प्रभात फेरी रुप में एक नये उदय के लिए लोगों से आह्वान करते थे।
ऐसे ही अनगिनत प्रयासों और संघर्षों की बदौलत खून-खराबे के बाद हमें 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली। जहां उस समय भारत मां के हृदय में हर्ष के आंसू थे तो वहीं कई न कई भारत के विखंडन को लेकर उसकी आंखों में पानी भी था। गांधी की लाश पर हुए भारत के बंटवारे के बाद आजाद मुल्क में स्वतंत्रता को नियमों और कानूनों की जंजीरों में बांधने की मांग तीव्र होती चली गई। जिसके कारण दो वर्ष ग्यारह माह और अठारह दिनों की समयावधि और संविधान समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर व डॉ. राजेंद्र प्रसाद के संयुक्त नेतृत्व व मार्गदर्शन में संविधान की रुपरेखा से लेकर अंतिम प्रारुप तक तैयार किया गया। हालांकि भारतीय संविधान पर यह प्रश्न भी यदा-कदा लगते रहे है कि संविधान में अधिकांश बातें व अंश विदेशी देशों के संविधान की नकल कर लिये गये। जो सही भी है। संविधान के पूर्ण रुप से तैयार होने के बाद आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की उपस्थिति में 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान को आत्मर्पित व अंगीकृत किया गया। और डॉ. अंबेडकर को कम समय में इस अनूठे कार्य के लिए नेहरु द्वारा गद्दगद्द कर देने वाले धन्यवाद के रुप में भूरी-भूरी प्रशंसा प्राप्त हुई। तब से दुनिया के मानचित्र पर भारत को एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य का दर्जा मिल गया। वहीं गणतंत्र जिसका अर्थ होता है शासन की ऐसी प्रणाली है जिसमें राष्ट्र के मामलों को सार्वजनिक माना जाता है। यह किसी शासक की निजी संपत्ति नहीं होती है। राष्ट्र का मुखिया वंशानुगत नहीं होता है। उसको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित या नियुक्त किया जाता है। आधुनिक अर्थो में गणतंत्र से आशय सरकार के उस रूप से है जहां राष्ट्र का मुखिया राजा नहीं होता है।
वर्तमान में दुनिया के 206 संप्रभु राष्ट्रों में से 135 देश आधिकारिक रूप से अपने नाम के साथ ‘रिपब्लिक’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। अलबत्ता ये भी कड़वी हकीकत है हमारे देश का सैद्धांतिक रुप से तैयार संविधान आज तक व्यावहारिक रुप में शत-प्रतिशत सफल नहीं हो पाया है। जहां संविधान पंथनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष की बात पर जोर देते हुए एक समतामूलक समाज के निर्माण की बात करता है वहीं हमारा देश नित्य-प्रतिदिन मजहबी दंगों में जलता और सुलगता है। जहां आज भी फुटपाथ पर नंगे-बदन सो रहे बच्चों के रुप में गणतंत्र ठिठुरता है। महिलाएं देश की राजधानी दिल्ली में ही सुरक्षित नहीं है। दलित वर्ग के बच्चों को आज भी जिंदा जला दिया जाता है। दोषियों को सजा देने की बजाय हमारा संविधान तमाशा देखता रह जाता है। नग्न सत्य है हमारा ‘गणतंत्र’ आज ‘गनतंत्र’ में तब्दील होता जा रहा है। वरन् क्या बात है कि भारत में आज भी एक बड़ा तबका आजादी और गणतंत्र को यूं अपने साथ छलावा नहीं बताता। भ्रष्टाचार की दीमक ने हमारे गणतंत्र की नींव को कमजोर करने का प्रयास किया है और आज भी भारत में आधी से अधिक आबादी रोटी‚ कपडा और मकान के इंतजार में कतारबद्ध है। क्या उनके लिए गणतंत्र असल मयाने में सिद्ध हों पाया है ?
जहां गणतंत्र के बाद हमने सपने संजोये थे कि सारा काम कानून के मुताबिक होगा और गरीब‚ पीडित‚ वंचित‚ शोषित व दलित को भी उचित न्याय मिल पायेंगा। वहां आज भी न्याय गरीबों की चौखट से कोसों दूर है। गरीबों के लिए कानून आज भी जेल है और अमीरों के लिए केवल और केवल रखैल है। क्या आत्मालोचना करने की जरुरत नहीं है कि जिस देश के बहुत से हिस्से मेें लोगोे ने अभी भी रेलगाडी नहीं देखी, उजाला उनके आंगन तक नहीं पहुंचा, और तो और दो जून की रोटी के लिए जिनकी जिन्दगी किसी जंग से कम नहीं, ऐसे में हम और आगे की सोचने के बजाए धर्मान्तरण, जिम्मेदार जनप्रतिनिधि होने के बावजूद गली-कूचों के गुण्डों की भाषा बोलना, जातीय संघर्ष, ये और इस तरह की न जाने कैसी-कैसी बेसिर पैर की बातों में हम आज भी उलझे हुए हैं, आखिर ये हो क्या रहा है, ये कैसा गणतंत्र ? हमने गणतंत्र के निर्माण के साथ जहां तय किया था कि हरेक घर में चिराग जलेंगा वहीं अब तक शहर के लिए भी चिराग मयस्सर नहीं हो पाया है। ये विडंबना है कि गणतंत्र ने एक विशेष वर्ग की भरपूर सेवा की और सारे प्राकृतिक संसाधन उनकी गोद में डाल दिये। जहां आज भी मासूम बच्चें भुखमरी के कारण मर रहे है‚ शिक्षा आज भी उनसे सौतेली‚ जिनकी मरहमपट्टी भी सरकारी अस्पतालों में सही तरीके से नहीं हो पाती। वहां संविधान पर सवालिया निशान उठना वाजिब ही है। जब तक गरीबों की बस्तियों के रोशनदान में गणतंत्र के दीये नहीं जल जाते तब तक सब बेमानी ही है। सुदामा पांडेय 'धूमिल' की कविता का ये अंश अपने-आप से सवाल करता हूँ – क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है ?