“किसी राजा या रानी के डमरू नहीं हैं हम, दरबारों की नर्तकी के घूँघरू नहीं हैं हम” वीररस के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. हरिओम पंवार की उक्त पंक्तियां लोकतंत्र में राजशाही के रंग के प्रति तीक्ष्ण प्रहार है। इन पंक्तियों ने एक बार फिर अपनी प्रासंगिकता दर्ज की है। जिस तरह श्रृंगार के अत्यंत लोकप्रिय कवि और आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास को राजस्थान की यशस्वी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के आदेश पर डूंगरपुर के कवि सम्मेलन से हटाया गया जो कि नितांत ही निंदनीय कृत्य है। हालांकि, इस विषय को लेकर कवि कुमार विश्वास ने अपनी फेसबुक पर लाइव वीडियो के जरिये बताया कि वे राजस्थान के डूंगरपुर का कवि सम्मेलन आयोजक नगर निगम के निवेदन पर नियत मानदेय से आधे मानदेय पर कर रहे थे। लेकिन, जैसे ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का काफिला डूंगरपुर के समीप से गुजरा और उन्होंने होर्डिंग पर कुमार विश्वास के पोस्टर देखे तो तुरंत ही कुमार विश्वास के आने पर रोक लगा दी। मुख्यमंत्री के आदेश और राजनैतिक दबाव के बाद आयोजक को स्वयं शर्मिंदगीवश कुमार विश्वास को आने से मना करना पड़ा। इसे सत्ता का अहंकार कहा जाये या सत्ताधीशों की संकीर्ण सोच ? कवि पर अनुचित अंकुश लगाने वाली सत्ताएं यह भूल जाती है कि सत्ता की उम्र कविता की उम्र के आगे बेहद ही छोटी है। यह लोकतंत्र है और यहां कविताएं सत्ता के खिलाफ बगावत का भैरव नाद करती है, न कि किसी राजा और रानी की प्रशंसा में प्रयाग प्रशस्ति का सृजन करती हुई पायी जाती है।
लोकतंत्र में कवि स्वयं अपनी निष्पक्षता की अग्निपरीक्षा देते हुए कहता है - मैं वो कलम नहीं हूँ जो बिक जाती हो दरबारों में, मैं शब्दों की दीपशिखा हूँ अंधियारे चैबारों में, मैं वाणी का राजदूत हूँ सच पर मरने वाला हूँ, डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाला हूँ। और सत्ता के ठेकेदारों को यह कहते हुए खबरदार भी करती है - सत्ताधीशों की तुला के बट्टे भी नहीं हैं हम, कोठों की तवायफों के दुपट्टे भी नहीं हैं हम, अग्निवंश की परम्परा की हम मशाल हैं, हम श्रमिक के हाथ मे उठी हुई कुदाल हैं। कुछ लोग यह नहीं समझते है कि गुब्बारे की उडान और पक्षी की उडान में बडा अंतर होता है। क्योंकि बुलंदी का नशा संतों के जादू तोड़ देती है, हवा उड़ते हुए पंछी के बाजू तोड़ देती है ! सियासी भेड़ियों थोड़ी बहुत गैरत जरूरी है, तवायफ तक किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है !
सत्ता की शराब में मदहोश राजनेता मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के उच्च पदों पर आसीन हो जाने के बाद भी खुद को पार्टी की चारदीवारी तक सीमित रखना पसंद करते है। ऐसे लोगों को इतिहास न माफ करेगा याद रहे, पीढियां तुम्हारी करनी पर पछतायेगी और बांध बांधने से पहले जल सूख गया, तो धरती की छाती पर दरार पड जायेगी।
इसे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जहां हमारे सुने हुए जनप्रतिनिधि जनता की भावनाओं को दरकिनार करके अहंकार का आलिंगन कर अपने को जनता का प्रतिनिधि न मानकर मालिक या भगवान मनाने का भम्र पाल लेते है। भोली जनता हर बार वायदों की मार से छली जाती है। हर बार कोई न कोई खाद्दीधारी गुंडा जीतकर लोकतंत्र का चीरहरण करता जाता है। और गरीब हर पांच साल बाद यह ही कहता हुआ मिलता है - हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था, मेरी कश्ती वहां डूबी, जहां पानी कम था।
बड़े लोगों की इसी घटिया सोच को लेकर कवि ने कहा - मैं कई बड़े लोगों की निचाई से वाकिफ हूँ, बहुत मुश्किल है दुनिया में बड़े होकर बड़ा होना ! बड़ों की निचाई का नमूना इससे ज्यादा ओर क्या होगा, जहां सदी के महानायक कहे जाने अमिताभ बच्चन अपने पिता हरिवंशराय बच्चन की कविताओं पर एकाधिकार जमातेे हुए उनकी कविताओं के वाचन पर कॉपीराइट का मुकदमा चला देते है। तो कभी कोई महारानी कवि के बाल में पार्टी की खाल तलाशती नजर आती है। बरहाल, कितने ही पहरी बैठा दो मेरी क्रुध निगाहों पर, दिल्ली से बात करूंगा भीड़ भरे चैहारों पर की अपनी कविता में हुंकार भरने वाले रचनाधर्मी हर समय और काल में अपने कलम की धार से घमंडी सत्ताधीशों को सच का दर्पण दिखलाते ही मिलेंगे।
जरूरत इस बात की है कि सरकारे हर फैसले से पहले थोडा मनन-मंथन और चिंतन करे। क्योंकि अब आप किसी पार्टी से भी ऊपर होकर जनमत से जीती हुई सरकार है। आपको केवल पार्टी का नहीं बल्कि हर एक जन का ख्याल रखना है।