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हानूश'' का जन्म

9 अगस्त 2022

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''हानूश'' नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन ही बाद मैं उनकी खोज में निकल पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता पहले से मेरे पास था। कमरा तो मैंने ढूँढ़ निकाला, पर पता चला कि निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक ही, दुसरे दिन वह पहुँच भी गए और फिर उनके साथ उन सभी विरल स्मारकों, गिरजा स्थलों को देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर गॉथिक और 'बरोक' गिरजाघरों को जिनकी निर्मल को गहरी जानकारी थी।

और इसी धुमक्कड़ी में हमने हानूश की घड़ी देखी। यह मीनारी घड़ी प्राग की नगरपालिका पर सैंकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी, चेकोस्लोवेकिया में बनाई जानेवाली पहली मीनारी घड़ी मानी जाती थी। उसके साथ एक दंतकथा जुड़ी थी कि उसे बनानेवाला एक साधारण कुफ़लसाज था कि उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लग गए और जब वह बन कर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके। घड़ी को दिखाते हुए निर्मल ने इससे जुड़ी वह कथा भी सुनाई। सुनते ही मुझे लगा कि इस कथा में बड़े नाटकीय तत्व हैं, कि यह नाटक का रूप ले सकती है।

यूरोप की यात्रा के बाद मॉस्को लौटने पर मैं कुछ ही दिन बाद, चेकोस्लोवेकिया के इतावाद (मॉस्को स्थित) में जा पहुँचा। सांस्कृतिक मामलों के सचिव से, हानूश की दीवारी घड़ी की चर्चा और अनुरोध किया कि उसके संबंध में यदि कुछ सामग्री उपलब्ध हो सके तो मैं आभार मानूँगा। लगभग एक महीने बाद दूतावास से टेलीफ़ोन आया कि आकर मिलो। मैं भागता हुआ जो पहुँचा। अधिक सामग्री तो नहीं मिली पर किसी पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ज़रूर मिला। मैं लेख की प्रति ले आया, पर लेख चेक भाषा में था।

सौभाग्यवश मेरे पत्रकार मित्र, मसऊद अली खान की पत्नी कात्या, चेकोस्लोवेकिया की रहने वाली थी। उन्होंने झट से उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर डाला। मुझे नाटक लिखने के लिए आधार मिल गया और वह दो पन्नों का आधार ही मेरे पास था। जब मैं भारत लौटा वे १९६३ के दिन थे। नाटक के लिखे जाने और खेले जाने में अभी बहुत वक्त था। और इसकी अपनी कहानी है। अंततः नाटक १९७७ में खेला गया।

हानूश नाटक पर मैं लंबे अर्से तक काम करता रहा था। पहली बार जब नाटक की पांडुलिपि तैयार हुई तो मैं उसे लेकर मुंबई जा पहुँचा बलराज जी को दिखाने के लिए। उन्होंने पढ़ा और ढ़ेरों ठंडा पानी मेरे सिर पर उड़ेल दिया। ''नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।'' उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं पर उनका अभिप्राय यही था। उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव भी यही कह रहा था।

पर मैं हतोत्साह नहीं हुआ। घर लौट आया। उसे कुछ दिन ताक पर रखा, पर फिर उठाकर उस पर काम करने लगा और कुछ अर्सा बाद नाटक की संशोधित पांडुलिपि लिए उनके पास फिर जा पहुँचा। उन्होंने पढ़ा और फिर सिर हिला दिया। उनका ढ़ाढस बँधाने का अंदाज़ भी कुछ ऐसा था कि यह काम तुम्हारे बस का नहीं है। इस पचड़े में से निकल आओ।

उनकी प्रतिक्रिया सुनते हुए मुझे संस्कृत की एक दृष्टांत-कथा याद हो आई जिसे बचपन में सुना था। एक गीदड़ अपने दोस्तों के सामने डींग हाँक रहा था कि शेर को मारने क्यों मुश्किल है। बस, आँखें लाल होनी चाहिए, मूँछ ऐंठी हुई और पूँछ तनी हुई, शेर आए तो एक ही झपट्टे में उसे चित कर दो। . . .वह कह ही रहा था कि उधर से शेर आ गया। बाकी गीदड़ तो इधर-उधर भाग गए पर यह गीदड़ शेर से दो-चार होने के लिए तैयारी करने लगा। वह मूँछें ऐंठ रहा था जब शेर पास आ पहुँचा और गीदड़ को एक झापड़ दिया कि गीदड़ लुढ़कता हुआ दूर तक जा गिरा. . .जब गीदड़ फिर से इकठ्ठा हुए तो गीदड़ अपनी सफ़ाई देते हुए बोला, ''और सब तो ठीक था पर मेरी आँखें ज़्यादा लाल नहीं हो पाई थीं, मूँछों में ज़्यादा ऐंठ भी नहीं आई थी।'' पास में खड़ा एक बूढ़ा गीदड़ भी सुन रहा था। गीदड़ को समझाते हुए बोला,

''शूरोऽसि कृत विद्योऽसि, दर्शनीयोऽसि पुत्रक,

यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नः सिंहस्तत्र न हन्यते।''

(बेटा, तुम बड़े शूरवीर हो, बड़े ज्ञानी हो, सभी दाँवपेंच जानते हो, पर जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, उस में शेर नहीं मारे जाते।) मैं अपना-सा मुँह लेकर दिल्ली लौट आया।

अब मैं बलराज जी की बात कैसे नहीं मानता। उनके निष्कर्ष के पीछे 'इप्टा' के मंच का वर्षों का अनुभव था, फिर फ़िल्मों का अनुभव।

मेरे अपने प्रयासों में भी त्रुटियाँ रही थीं। ''हानूश'' का कथानक तो मुझे बाँधता था, पर उसे नाटक में कैसे ढ़ालूँ, मेरे लिए कठिन हो रहा था। पहले भी बार-बार कुछ लिखता रहा था। फिर निराश होकर छोड़ देता रहा था। न छोड़े बनता था, न लिखते बनता था। ऐसा अनुभव शायद हर लेखक को होता है। एक बार कीड़ा दिमाग़ में घुस जाए तो निकाले नहीं निकलता। हर दूसरे महीने मैं उसे फिर से उठा लेता। कथानक के नाम पर मेरे पास गिने-चुने ही तथ्य थे। नाटक का सारा ताना-बाना मुझे बुनना था। कथानक की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी और वह भी मध्ययुगीन यूरोप की चेकोस्लोवेकिया की। मेरे अपने देश की भी नहीं।

कुछ अरसा बाद नाटक की एक और संशोधित पांडुलिपि तैयार हुई। या यों कहूँ एक और पांडुलिपि तैयार हुई। अबकी बार मैं उसे बलराज जी के पास नहीं ले गया। नाटक की टंकित प्रति उठाए मैं सीधा अलकाजी साहिब के पास पहुँचा जो उन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक थे। मैंने बड़ी विनम्रता से अनुनय-विनय के साथ कहा, ''यदि आप इसे एक नज़र देख जाएँ। मैं आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।'' वह मुस्कराए। अलकाजी उन दिनों मुझे इतना भर जानते थे कि मैं बलराज का भाई हूँ। बलराज के साथ मुंबई में रहते हुए उनके साथ थोड़ा संपर्क रहा था।

उन्होंने नाटक की प्रति रख ली और मैं बड़ा हल्का-फुल्का महसूस करता हुआ लौट आया। अब कुछ तो पता चलेगा, मैंने मन ही मन कहा। उसके बाद सप्ताह भर तो मैं शांत रहा, उसके बाद मेरी उत्सुकता और मेरा इंतज़ार बढ़ने लगा। हर सुबह उठने पर यही सोचूँ, अब अलकाजी साहिब ने पढ़ लिया होगा, अब तक ज़रूर पढ़ लिया होगा, उन्हें टेलीफ़ोन कर के पूछूँ? नहीं, नहीं अभी नहीं मुझे जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। मैं बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था। दो सप्ताह बीत गए, फिर तीन, फिर चार, महीना भर गुज़र गया। फिर डेढ़ महीना। मेरे मन में खीझ-सी उठने लगी। ऐसा भी क्या है, मुझे बता सकते थे, टेलीफ़ोन कर सकते थे। इस चुप्पी से क्या समझूँ?

जब दो महीने बीत गए तो मुझसे नहीं रहा गया। मैं एक दिन सीधा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जा पहुँचा। मैंने अपने नाम की 'चिट' अंदर भेजी। चपरासी अंदर छोड़ कर बाहर निकल आया।

मैं बाहर बरामदे में खड़ा इंतज़ार करता रहा। कोई जवाब नहीं, मुझे इतना भी मालूम नहीं था कि अलकाजी साहिब दफ़तर में हैं भी या नहीं। वास्तव में वह दफ़तर में नहीं थे। वह उस समय क्लास ले रहे थे। हमारे यहाँ चपरासियों की बेरुखी भी समझ में आती हैं, वे यही मानकर चलते हैं कि साहिब के पास 'चिट' भेजनेवाला आदमी नौकरी माँगने आया है। उस समय मुझे इस बात का भी ध्यान नहीं आया कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी क्लासें लगती होंगी। मैं समझ बैठा था कि नाट्य विद्यालय में क्लासों का क्या काम, वहाँ केवल रिहर्सलें होती होंगी।

मैंने फिर से एक 'चिट' भेजी और चपरासी से ताक़ीद की कि यह बहुत ज़रूरी है, जहाँ भी अलकाजी साहिब हों उन्हें देकर आओ।

मैं अपमानित-सा महसूस करने लगा था। अलकाजी साहिब की बेरुखी पर झुँझलाने लगा था। मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया था कि मुझसे मिलने तक की उन्हें फ़ुर्सत नहीं थी।

इतने में देखा, अलकाजी साहिब बरामदे में चले आ रहे थे। आँखों पर चश्मा, हाथ में खुली किताब।

''मैं क्लास ले रहा था। आप थोड़ा इंतज़ार कर लेते।'' मुझे लगा रुखाई से बोल रहे हैं। वास्तव में उन्हें मेरा क्लास में 'चिट' भेजना नागवार गुज़रा था।

''मैं अपने नाटक के बारे में पूछने आया था।''

''वह मैं अभी पढ़ नहीं पाया। इस सेशन में काम बहुत रहता है।''

किताब अभी भी उनके हाथ में थी और वह थोड़ा उद्विग्न से चश्मों में से मेरी ओर देख रहे थे, मानो क्लास में लौटने की जल्दी में हों।

तभी मैंने छूटते ही कहा!

''क्या मैं अपना नाटक वापस ले सकता हूँ।''

वह ठिठके। मेरी ओर कुछ देर तक देखते रहे और फिर क्लास की ओर जाने के बजाय, अपने दफ़तर का दरवाज़ा खोल कर अंदर चले गए और कुछ ही देर बाद नाटक की प्रति उठाए चले आए और मेरे हाथ में देते हुए, बिना कुछ कहे, क्लास रूम की ओर घूम गए।

मैंने घर लौट कर नाटक को मेज़ पर पटक दिया। मारो गोली, यह काम सचमुच मेरे वश का नहीं है। दिन बीतने लगे। पर कुछ समय बाद फिर से मेरे दिल में धुकधुकी-सी होने लगी। अलकाजी साहिब ने इसके पन्ने पलटना तक गवारा नहीं किया। नहीं, नहीं पन्ने पलटे होंगे, नाटक बे सिर पैर का लगा होगा तो उसे रख दिया कि कभी फ़ुर्सत से पढ़ लेंगे। मैंने मन ही मन कहा- अब मैं नाटक का मुँह नहीं देखूँगा। बलराज ठीक ही कहते होंगे कि यह मेरे वश का रोग नहीं है।

फिर एक दिन यह संभवतः १९७६ के जाड़ों के दिन थे, शीला और मैं बुद्ध-जयंती बाग में टहल रहे थे जब कुछ ही दूरी पर मुझे राजिंदर नाथ और सांत्वना जी बाग में टहलते नज़र आए। राजिंदर नाथ जाने-माने निर्देशक थे। जब पास से गुज़रे और दुआ-सलाम हुई तो मैंने कहा!

''यार मैंने एक नाटक लिखा है। वक्त हो तो उसे एक नज़र देख जाओ।''

राजिंदर नाथ हँस पड़े। कहने लगे,

''मैं खुद इन दिनों किसी स्क्रिप्ट की तलाश में हूँ, कुछ ही देर बाद राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने जा रहा है।''

नेकी और पूछ-पूछ। मैंने नाटक की प्रति उन्हें पहुँचा दी और अबकी बार नाटक शीघ्र ही पढ़ा भी गया। और कुछ ही अर्सा बाद खेला भी गया और वह मकबूल भी हुआ और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि स्क्रिप्ट के नाते प्रतियोगिता में पहले नंबर पर भी आया।

नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब एक दिन प्रातः मुझे अमृता प्रीतम जी का टेलीफ़ोन आया। मुझे नाटक पर मुबारकबाद देते हुए बोलीं,

''तुमने इमर्जेंसी पर खूब चोट की है। मुबारक हो!''

अमृता जी की ओर से मुबारक मिले इससे तो गहरा संतोष हुआ पर यह कहना कि इमर्जेंसी पर मैंने चोट है, सुन कर मैं ज़रूर चौंका। उन्हें इमर्जेंसी की क्या सूझी? इमर्जेंसी तो मेरे ख़्वाब में भी नहीं थी। मैं तो वर्षों से अपनी ही इमर्जेंसी से जूझता रहा था। बेशक ज़माना इमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया। पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों के लिए इमर्जेंसी ही बनी रहती है, और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएँ भोगते रहते हैं जैसे हानूश भोगता रहा। यही उनकी नियति है

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रचनाएँ
भीष्म साहनी की रोचक कहानियाँ
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भीष्म साहनी की कहानियों में बच्चे मनोवैज्ञानिक तौर पर अपने परिवेश व समाज की वास्तविकता का बोध कराते हैं। वास्तविकता का संदर्भ धर्म की सामाजिक रूढ़ मान्यताओं से रहा है, धर्म को जिसने संकीर्ण परिभाषा में बांधा। पहला पाठ कहानी का पात्र देवव्रत है जिसके संदर्भ में भीष्म साहनी कथावाचक की शुरूआती भूमिका में बताते हैं। एक कहानीकार के रूप में भीष्म साहनी का जन्म उनकी परिस्थितियों और प्रतिभा दोनों का मिला-जुला रूप रहा है। अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत उन्होंने बहुत कुछ देखा और अनुभव किया इन कहानी संग्रहों में सम्मिलित अधिक से अधिक कहानियाँ भीष्म साहनी की लेखन क्षमता से परिचित कराती हैं।
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अमृतसर आ गया है

9 अगस्त 2022
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गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हं

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ख़ून का रिश्ता

9 अगस्त 2022
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खाट की पाटी पर बैठा चाचा मंगलसेन हाथ में चिलम थामे सपने देख रहा था। उसने देखा कि वह समधियों के घर बैठा है और वीरजी की सगाई हो रही है। उसकी पगड़ी पर केसर के छींटे हैं और हाथ में दूध का गिलास है जिसे वह

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गुलेलबाज़ लड़का

9 अगस्त 2022
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छठी कक्षा में पढ़ते समय मेरे तरह-तरह के सहपाठी थे। एक हरबंस नाम का लड़का था, जिसके सब काम अनूठे हुआ करते थे। उसे जब सवाल समझ में नहीं आता तो स्याही की दवात उठाकर पी जाता। उसे किसी ना कह रखा था कि काली

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चीलें

9 अगस्त 2022
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चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई

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त्रास

9 अगस्त 2022
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ऐक्सिडेंट पलक मारते हो गया। और ऐक्सिडेंट की जमीन भी पलक मारते तैयार हुई। पर मैं गलत कह रहा हूँ। उसकी जमीन मेरे मन में वर्षों से तैयार हो रही थी। हाँ, जो कुछ हुआ वह जरूर पलक मारते हो गया। दिल्‍ली में

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निमित्त

9 अगस्त 2022
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बैठक में चाय चल रही थी। घर-मालकिन ताजा मठरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ाकर मुझसे मठरी खाने का आग्रह कर रही थीं और मैं बार-बार, सिर हिला-हिलाकर, इनकार कर रहा था। "खाओ जी, ताजी मठरियां हैं, बिलकुल खालिस घी

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मरने से पहले

9 अगस्त 2022
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मरने से एक दिन पहले तक उसे अपनी मौत का कोई पूर्वाभास नहीं था। हाँ, थोड़ी खीझ और थकान थी, पर फिर भी वह अपनी जमीन के टुकड़े को लेकर तरह-तरह की योजनाएँ बना रहा था, बल्कि उसे इस बात का संतोष भी था कि उसने

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वाङ्चू

9 अगस्त 2022
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तभी दूर से वाङ्चू आता दिखाई दिया। नदी के किनारे, लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे डोलता-सा चला आ रहा था। धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भाँति उसका सिर भी घुटा हुआ है।

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यादें

9 अगस्त 2022
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ऐनक के बावजूद लखमी को धुंधला-धुंधला नजर आया। कमर पर हाथ रखे, वह देर तक सड़क के किनारे खड़ी रही। यहां तक तो पहुंच गयी, अब आगे कहां जाय, किससे पूछे, क्या करे? सर्दी के मौसम को दोपहर ढलते देर नहीं लगती। अं

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सरदारनी

9 अगस्त 2022
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स्कूल सहसा बन्द कर दिया गया था और मास्टर करमदीन छाता उठाए घर की ओर जा रहा था। पिछले कुछ दिनों से शहर में तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगी थीं। किसी ने मास्टर करमदीन से कहा था कि शहर के बाहर राजपूत रेजिमें

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आज़ादी का शताब्दी-समारोह

9 अगस्त 2022
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[सन् 2047. आज़ादी के शताब्दी-समारोह की तैयारियाँ. सत्तारूढ़ पार्टी इस अवसर पर उपलब्धियों का घोषणा-पत्र तैयार कर रही है. सदस्यों की बैठक में आधार-पत्र पर विचार किया जा रहा है.] [संयोजक हाथ में आधार-पत्

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भ्राता जी

9 अगस्त 2022
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एक दिन बलराज मुझसे बोले, जब हम गुरुकुल की ओर जा रहे थे, ''सुन!'' ''क्या है?'' ''मेरे पीछे पीछे चल। अब से हमेशा, मेरे पीछे-पीछे चला कर।'' ''क्यों?'' ''क्योंकि तू छोटा भाई है। छोटे भाई साथ-साथ नहीं

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हानूश'' का जन्म

9 अगस्त 2022
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''हानूश'' नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन ही बाद म

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बोलता लिहाफ़

9 अगस्त 2022
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गहरी रात गए एक सौदागर, घोड़ा-गाड़ी पर बैठकर एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव पर जा रहा था। बला की सरदी पड़ रही थी और वह ठिठुर रहा था। कुछ समय बाद एक सराय के बाहर घोड़ा-गाड़ी रुकी। ठंड इतनी ज़्यादा थी कि मुसाफ़ि

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ओ हरामजादे !

9 अगस्त 2022
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घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूंगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खण्डहर देख रहा होता, तो कभी युरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता

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गंगो का जाया

9 अगस्त 2022
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गंगो की जब नौकरी छूटी तो बरसात का पहला छींटा पड़ रहा था। पिछले तीन दिन से गहरे नीले बादलों के पुँज आकाश में करवटें ले रहे थे, जिनकी छाया में गरमी से अलसाई हुई पृथ्‍वी अपने पहले ठण्‍डे उच्‍छ्‌वास छोड़

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चीफ़ की दावत

9 अगस्त 2022
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शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउडर को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीज

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झूमर

9 अगस्त 2022
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खुले मैदान में अर्जुनदास कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था। मैदान में धूल में उड़ रही थी, पाँवों को मच्छर काट रहे थे, उधर शाम के साए उतरने लगे थे और अर्जुनदास का मन खिन्न-सा होने लगा था। जिन बातों ने जिंदग

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दो गौरैया

9 अगस्त 2022
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घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं — माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं। आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक

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फ़ैसला

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उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे । शहर की गलियाँ लाँघकर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे । हीरालाल को बातें करने का शौक था और मुझे उसकी बातें सुनने का । वह बातें करता तो

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माता-विमाता

9 अगस्त 2022
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पंद्रह डाउनलोड गाड़ी के छूटने में दो-एक मिनट की देर थी। हरी बत्ती दी जा चुकी थी और सिगनल डाउनलोड हो चुका था। मुसाफिर अपने-अपने डिब्‍बों में जाकर बैठ चुके थे, जब सहसा दो फटेहाल औरतों में हाथापाई होने ल

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साग-मीट

9 अगस्त 2022
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साग-मीट बनाना क्‍या मुश्किल काम है। आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ, मैं तुम्‍हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना। रुकोगी न? इन्‍हें साग-मीट बहुत पसंद है। जब कभी दोस्‍तों का खाना करते हैं, तो साग

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भाग्य-रेखा

9 अगस्त 2022
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कनाट सरकस के बाग में जहाँ नई दिल्ली की सब सड़कें मिलती हैं, जहाँ शाम को रसिक और दोपहर को बेरोजगार आ बैठते हैं, तीन आदमी, खड़ी धूप से बचने के लिए, छाँह में बैठे, बीडिय़ाँ सुलगाए बातें कर रहे हैं। और उनस

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आवाज़ें

9 अगस्त 2022
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अब मुहल्ला रच-बस गया है, इसका रूप निखरने लगा है, दो-तीन पीढ़ियों का समय निकल जाए, नई पौध सिर निकालने लगे, बच्चे-बूढ़े-जवान, सभी गलियों में घूमते-फिरते नज़र आने लगें, तो समझो मुहल्ला रच-बस गया है। शुरू

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समाधि भाई रामसिंह

9 अगस्त 2022
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यह घटना मेरे शहर में घटी । यह घटना और कहीं घट भी न सकती थी। शहरों में शहर है तो मेरा शहर और लोगों में लोग हैं तो मेरे शहर के लोग, जो अपने तुल्य किसी को समझते ही नहीं। हमारे शहर के बाहर एक गन्दा नाला ब

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आज के अतीत

9 अगस्त 2022
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ज़िन्दगी में तरह-तरह के नाटक होते रहते हैं, मेरा बड़ा भाई जो बचपन में बड़ा आज्ञाकारी और ‘भलामानस’ हुआ करता था, बाद में जुझारू स्वभाव का होने लगा था। मैं, जो बचपन में लापरवाह, बहुत कुछ आवारा, मस्तमौला हुआ

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मेरी कथायात्रा के निष्कर्ष

9 अगस्त 2022
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अपनी लम्बी-कथा यात्रा का लेखा-जोखा करना आसान काम नहीं है। पर यदि इस सर्वेक्षण में से कुछेक प्रश्न निकाल दें—कि मैं लिखने की ओर क्यों उन्मुख हुआ, और गद्य को ही अभिव्यक्ति का माध्यम क्यों चुना, और उसमें

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