डायरी दिनांक १३/०३/२०२२ - संध्या कालीन चर्चा
शाम के छह बजकर दस मिनट हो रहे हैं ।
आज सुबह आदरणीय श्री सूर्यनारायण जी का फोन आया। सूर्यनारायण जी बहुत मधुर स्वर में बात करते हैं। बहुत अनुभवी हैं। बहुत से लेखकों और लेखिकाओं को प्रेरित करते हैं। उनका आध्यात्मिक चिंतन भी गहन है। अक्सर वे अध्ययन करते रहते हैं।
श्री सूर्यनारायण जी से काफी समय लेखन संबंधित वार्तालाप हुआ। दिन में कुछ देर बाजार में गुजारा। कुछ समय आराम करने में गुजारा। फिर कुछ देर कल्याण पढने को दिया। तथा कुछ देर एक पड़ोसी अंकल जी के घर रहा।
पड़ोसी अंकल जी से मेरी जानकारी लगभग नौ वर्ष पुरानी है जबकि मैं अकेले उनके घर में कुछ महीने रहा था। अंकल जी ने विवाह नहीं किया था तथा वह गांव के एक निर्धन लड़के को अपने पास रखकर उसे पढा रहे थे। पता नहीं क्या बात थी कि उन्होंने जीवन भर विवाह नहीं किया। जबकि उनके एक घनिष्ठ मित्र के अनुसार उनके विवाह के कई प्रस्ताव आये थे।
अंकल जी के पास मैं कम ही जा पाता हूं। इसका एक कारण उनका विशेष स्नेह भी है। जब भी उनके पास जाता हूं, वह दो घंटे से पहले नहीं छोड़ते। आज भी उन्होंने बहुत समय बाद मुझे घर जाने दिया।
परिवार की अवधारणा में माॅ सबसे बड़ा घटक है। माॅ से ही एक परिवार का निर्माण होता है। तथा माॅ के बराबर कोई चाहकर भी नहीं कर सकता है। माॅ यदि वैश्या, दुराचारी या अपराधी भी है तब भी वह अपने बच्चे की सबसे ज्यादा हितेषिणी है।
किसी माॅ को उसके बच्चे से अलग करना एक बड़ा पाप माना जाता है। यह पाप पशु, पक्षियों के साथ साथ इंसानों के विषय में भी बराबर लागू होता है।
फिर भी मनुष्य ऐसा पाप करते हैं। कभी परिस्थितियों वश तो कभी केवल अपने अंहकार की पुष्टि के लिये। परिस्थितियों के आधार पर लिया गया निर्णय भले ही अनुचित न हो पर अहंकार के पोषण के लिये किया गया आचरण हमेशा निंदनीय ही होता है।
बड़े से बड़ा घाव समय के साथ भर जाता है। पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो समय के साथ भी नहीं भरते। जीवन भर मनुष्य को पीड़ा पहुंचाते हैं।
एक पीड़ा का दूसरी पीड़ा से न जाने क्या संबंध होता है। कभी किसी छोटी मोटी बात पर उठी चिंता धीरे धीरे उस असह्य पीड़ा का अहसास कराने लगती है जिसे प्रयास कर भुला दिया था। वास्तव में असह्य पीड़ा भुलाने पर भी नहीं भूलती।
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय में कहते हैं।
तुल्यनिंदास्तुतिमौनी संतुष्ठो येनकेनचित
अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान्मे प्रियो नरः
जो मनुष्य निंदा और स्तुति में समान भाव रखता है, मौन रहता है, हर तरीके से संतुष्ट रहता है, जो अपने लिये रहने का निवास भी नहीं बनाता (दूसरा अर्थ रहने के स्थान में भी आसक्ति रहित है), अपनी बुद्धि को स्थिर रखने बाला वह भक्त मुझे बहुत प्रिय है।
वास्तव में ये सारे गुण दिखने में जितने आसान लगते हैं, आचरण में लाने में उतने ही कठिन हैं। लगता है कि भगवान का प्रिय बनने से मैं अभी बहुत दूर हूं। तभी तो अक्सर अपने भावों पर नियंत्रण नहीं रख पाता हूं। अक्सर किसने क्या कहा, मेरे चिंतन का प्रमुख विषय बन जाता है। जबकि किसी के कुछ कहने का मुझपर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।