डायरी दिनांक ०४/०३/२०२२
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सफलता आत्मविश्वास बढाती है तो पूरे प्रयासों के बाद भी कार्य में असफलता मन को खिन्न कर देती है। कभी कभी बना बनाया काम बिगड़ जाता है। फिर उस कार्य को सुधारने के सारे प्रयासों को असफल होते देखना मन को दुखी कर देता है।
कल जब मैं कासगंज में था, उस समय मेरे सहकर्मी का वरिष्ठ अधिकारी से विवाद हो गया। विवाद का कारण था कि सहकर्मी ने अपने बुजुर्ग पिता को डाक्टर को दिखाने के लिये अवकाश मांगा था। वैसे तो उनके पिता जी अपने पैत्रिक आवास पर रहते हैं। पर इलाज की स्थिति में आगरा जैसी बड़ी जगह दिखाना ही उचित रहता है।
मेरे विचार में कौन अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी किस तरह सम्हाल रहा है, इस विषय में किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को निर्णय युक्त सराह देने की कोई आवश्यकता नहीं है। पिता जी को वह दिखाये, उनका भाई दिखाये या परिवार का कोई अन्य दिखाये, इस विषय में किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है। सही बात तो यही है कि अधिक आय बाले भाई की ही अधिक जिम्मेदारी बनती है।
श्री सुदर्शन चक्र जी लिखते हैं कि उनपर ईश्वर की बड़ी कृपा रही। जब वह मात्र बारह वर्ष के थे, उनके पिताजी का देहांत हो गया। माता जी पहले ही ईश्वर को प्यारी हो गयी थीं। धन संपत्ति के नाम पर घर में कुछ नहीं था।
उनके एक नजदीकी जो कि विपन्नता की अवस्था में उनके घर रहकर ही अध्ययन किये थे, एक बड़े अधिकारी बन गये। ईश्वर की कृपा से उनका एक विद्यालय भी चल रहा था। श्री चक्र उनके पास इस आशा से पहुचे कि वे संबंधी उन्हें अपने विद्यालय में निःशुल्क पढा देंगें। बहुत ज्यादा नहीं तो आरंभिक शिक्षा मिल जायेगी। उस शिक्षा के आधार पर कोई छोटी मोटी नोकरी भी वह संबंधी दिलवा देंगें। पर ईश्वर की कृपा थी कि उन संबंधी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
युवावस्था के समय उनका विवाह तय हुआ। पर ईश्वर की कृपा थी कि अंतिम समय पर रिश्ता टूट गया। ऐसा लगातार तीन बार हुआ। जब तक कि श्री चक्र को अविवाहित रह जाने में ईश्वर की कृपा का अनुभव न होने लगा।
कभी कभी मुझे भी ऐसा अनुभव होने लगता है कि ईश्वर मुझपर भी असीम कृपा कर रहे हैं। इस धारणा को मन में धारण करने का प्रयास भी करता हूं। पर सच्ची बात है कि अभी धारणा में मैं कुछ कच्चा हूं। शायद उस दिन ईश्वर की असीम कृपा होगी जबकि मैं पूरी तरह उनकी कृपा का अनुभव करने लगूंगा।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।