डायरी दिनांक १५/०३/२०२२ - सायंकालीन चर्चा
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अपने मन के विचारों को बिना झिझक के लिखते जाना डायरी लेखन का अच्छा प्रारूप है। जिसमें लेखक अपने मन के भावों को लिखता है। सही या गलत, सिद्ध या असिद्ध, प्रमाण या अप्रमाण की मान्यताओं से परे उस डायरी लेखन में भले ही कुछ त्रुटियां रह जायें फिर भी उसे अच्छा लेखन माना जाता है।
किसी भी मनुष्य पर कितना दबाव बनाना चाहिये, उसका भी एक सार्थक समीकरण होना चाहिये। या तो किसी मनुष्य को बहुत छूट देनी ही नहीं चाहिये अथवा एकदम उसके सर से अपने वरद हस्त नहीं उठाने चाहिये।
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में योग के विषय में विस्तार से चर्चा की गयी है। तथा इसी अध्याय में योगभ्रष्ट के विषय में भी बताया गया है। वह योगी योगभ्रष्ट कहा जाता है जो कि जीवन में अपना लक्ष्य नहीं पा पाता। अपने उद्देश्यों में अपूर्ण रहा वह अपूर्ण नहीं रहता है। उसकी साधना जन्म के समयांतर को पार कर जाती है। इस अध्याय में योगभ्रष्ट के माध्यम से पुनर्जन्म के सिद्धांत को पुष्ट किया गया है। योगभ्रष्ट ऐसे परिवार में जन्म लेता है कि वह शीघ्र ही संस्कारों के माध्यम से अपने पूर्व जन्म की साधना की स्थिति तक न पहुंच जाये। फिर वह अपने पथ पर आगे बढने लगता है।
आज एक प्रश्न देखा कि जीवन के विभिन्न चित्रों का सटीक चित्रण करने बाले मुंशी प्रेमचंद्र जी ने अपनी कहानियों में बलात्कार जैसी सामाजिक समस्या को स्थान क्यों नहीं दिया। जबकि संभावना है कि उस काल में भी यह सामाजिक समस्या रही हो।
किसी कन्या को झूठा प्रलोभन देकर, उसकी भावनाओं से खेलकर, उसका शील हरण करना भी बलात्कार का एक रूप है। गोदान उपन्यास में पंडित मातादीन द्वारा सिलिया चमारिन को मूर्ख बनाकर उसके शील को नष्ट करने का चित्रण गोदान में है। सिलिया के संघर्ष की एक लंबी कहानी लिखी हुई है। एकांत के क्षण में होरी की पुत्री रूपा के पति ने भी सिलिया के साथ अमर्यादित व्यवहार किया था। तथा रूपा ने इसका दोष भी सिलिया को ही दिया था। जो कि हर बुराई का दोष स्त्री को देने की मानसिकता का उदाहरण है।
भले ही मुंशी प्रेमचंद्र जी के साहित्य में बलात्कार का सीधे सीधे उल्लेख नहीं है फिर भी यह मानने के पर्याप्त आधार है कि मुंशी जी ने अपने साहित्य में नारी विवशता को स्थान दिया है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।