जब तुमने यह धर्म पठाया
मुँह फेरा, मुझसे बिन बोले,
मैंने चुप कर दिया प्रेम को
और कहा मन ही मन रो ले
कौन तुम्हारी बातें खोले!
ले तेरा मजहब यह दौड़ा
मौन प्रेम से कलह मचाने,
और प्रेम ने प्रलय-रागिनी-
भर दी अग-जग में अनबोले
कौन तुम्हारी बातें खोले!
मैंने बात तुम्हारी मानी
ठुकरा दिया प्रेम को जीकर,
मर-मर कर मैं चढ़ा शिखर पर
प्रेम चढ़ा सूली पर डोले,
कौन तुम्हारी बातें खोले!
मैंने सोचा अपने मजहब
में तुम एक बार आओगे,
तुम आये, छुप गए प्रेम में
मेरे गिरे आँख से ओले।
कौन तुम्हारी बातें खोले!
बाहों में ले, दौड़-धूप कर
मैंने मज़हब को दुलराया,
पर तुम मुझको धोखा देकर
अरे, प्रेम के जी से बोले,
कौन तुम्हारी बातें खोले!
मैं बस लौट पड़ा मज़हब के
पर्वत से, सागर को धोया,
मानो गंगा का यह सोता
पतनोन्मुखी पतन-पथ डोले
कौन तुम्हारी बातें खोले!
सिंधु उठाया जी भर आया
थोड़ा-पा दिल खाली देखा,
पलकें बोल उठीं अनजाने
कौन नेह पर मजहब तोले
कौन तुम्हारी बातें खोले!
आँखों के परदों पर देखा
प्रेमराज, अंजलि भर दौड़े
रे घटवासी, मैंने वे घट
तेरे ही चरणों पर ढोले;
कौन तुम्हारी बातें खोले!
आह! प्रेम का खारा पानी
उसका धन, मेरी नादानी
किस पर फेंकूँ अत्याचारी
साजन! तू पग थलियाँ धोले।
कौन तुम्हारी बातें खोले!