जब भी कोई अकेला बोलता है, उसका बोलना किसी भी भीड़ से बहुत बड़ा होता है. अकेला बोलने वाला कमज़ोर से कमज़ोर वक्त में, ताकतवर से ताकतवर सरकार के सामने एक उम्मीद होता है. सरकारें अगर हमेशा जनता के साथ होतीं तो इसी भारत देश में इसी वक्त में अलग-अलग सरकारों के ख़िलाफ़ सैकड़ों की संख्या में विरोध प्रदर्शन नहीं चल रहे होते. सरकार चुनते तो आप हैं मगर वो हमेशा आपकी नहीं होती है. ये बात जानने के लिए मैट्रिक पास होना ज़रूरी नहीं है. इसीलिए हम पांच साल के बाद सरकार बदल देते हैं या बदलने का इंतज़ार करते हैं. इस देश में अपनी ज़मीन बचाने के लिए लोगों को सरकारों से गोली खानी पड़ी है. सरकारों ने अपने नागरिकों को झूठे मुकदमों में फंसा कर आतंकवादी बना दिया और बीस बीस साल जेल में सड़ा दिया.
पूरा इतिहास भरा पड़ा है, विरोध के नए नए हौसलों से. हर दौर में कोई विरोधी आता है जो उस दौर को एक नया मुकाम देता है. राजनीति क दल ही सिर्फ विरोध नहीं करते हैं. सत्ताधारी दल के लोग जब विरोध करते हैं तो उन्हें हर तरह की सुविधा हासिल होती है. पुलिस उनका साथ देती है. सरकार साथ देती है. विरोधी दल के लिए थोड़ी चुनौतियां होती हैं मगर उनके पास भी ताकत होती है. यह सुविधा तमाम कर्मचारी संगठन, किसान मज़दूर और पेशेवर संगठन को हासिल नहीं होती है. विरोध के लिए तमाम तरह के संगठन की ज़रूरत होती है. हर मसले पर राजनीतिक दल के लोग विरोध नहीं करते हैं. जैसे अगर आप एबीवीपी और एनएसयूआई से कहेंगे कि आप बेरोज़गारी और महंगी शिक्षा के ख़िलाफ़ देश भर की राजधानियों में प्रदर्शन करें तो वे कत्थक करने लगेंगे. क्योंकि जहां वे आवाज़ उठायेंगे, मुमकिन है वहां उनकी पार्टी की सरकार हो सकती है. दिल्ली के जंतर मंतर जाइये. राज्यों की राजधानी से लेकर ज़िला मुख्यालयों पर जाकर देखिये. लोग किन परिस्थितियों में अपनी मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे होते हैं.
इन सबमें उसका विरोध सबसे बड़ा होता है जो अकेले आवाज़ उठाता है. जब तक कोई अकेला आवाज़ उठाने वाला होता है तब तक यह उम्मीद भी बची रहती है कि कोई है. यह बात चुप रहने वाले या देखकर अनदेखा करने वाले तभी समझते हैं जब वो कहीं सरकार और समाज की हिंसा के शिकार होते हैं और किसी नेता या रिपोर्टर को फोन करते हैं. गुरमेहर कौर का विरोध इसलिए बड़ा था कि उसने अपनी बात कहने के लिए संगठन नहीं बनाया. उसका विरोध इसलिए बड़ा हो गया जब उसकी आवाज़ पर केंद्र सरकार के मंत्री ने प्रतिक्रिया दी. गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू को कायदे से गुरमेहर कौर का हौसला बढ़ाना चाहिए था मगर उन्होंने उसके ख़िलाफ़ टिप्पणी कर सारी सरकार को उसके ख़िलाफ़ कर दिया. इसलिए गुरमेहर कौर का विरोध बड़ा है.
गुरमेहर कौर ने विरोध तो जताया था कि वो एबीवीपी से नहीं डरती हैं. उसने अकेले जब बोला तो सोशल मीडिया की कमज़ोर दुनिया दौड़ पड़ी कि कोई तो बोला. शायद वायरल हुआ और फिर गुरमेहर कौर को निशाना बनाया गया. एबीवीपी की आलोचना तो सबने की और एबीवीपी ने भी डट कर जवाब दिया मगर एक लड़की का अकेले बोलने से कि वो एबीवीपी से नहीं डरती है, इससे डर तो पैदा हुआ. इस बात को पल भर में गायब कर दिया गया और सामने लाया गया एक साल पुराना वीडियो, जिसे गुरमेहर कौर ने किसी और संदर्भ में यू-ट्यूब पर डाला था. अब उस वीडियो के सहारे उस पर हमला हुआ. इस हमले में गृह राज्य मंत्री तक शामिल हो गए. बीजेपी के सांसद ने कहा कि दाऊद इब्राहीम ने भी अपने एंटी नेशनल को सही ठहराने के लिए बाप के सिपाही होने का इस्तमाल नहीं किया. ज़ाहिर है गुरमेहर का अकेलापन और बढ़ गया और उसका साहस भी.
गांधी का सबसे बड़ा योगदान क्या था. उन्होंने आम से आम लोगों को इस डर से आज़ाद कर दिया कि बिना लाठी के बंदूकों से लैस और 200 साल से जमी ब्रिटिश हुकूमत का विरोध कर सकते हैं. बिना डरे. इस बुनियादी डर से जो भी आज़ाद कराने निकलता है, समाज और सरकार को डर लग जाता है. आप ट्वीटर पर जाकर देखिये, गुरमेहर के खिलाफ किस भाषा का इस्तमाल किया गया है. ये इसलिए कि कोई लड़की सरकार पुलिस देख कर चुप रहे. बोले नहीं. मगर लड़की थोड़ी ज़िद्दी निकली कह दिया कि डरती नहीं है. अब उसने कहा है कि उसे जितना आवाज़ उठाना था उठा लिया, अब वो चुप रहेगी. बात सही भी है. वो डरी नहीं है, उसने अब आप पर डाल दिया है कि आप एक अकेली लड़की के साथ खड़े हो सकते हैं तो खड़े होकर दिखाइये. कोई राम साहब हैं जो भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के खिलाफ हैं. शांति को प्रोत्साहित करते हैं. वही यू ट्यूब में ऐसे संदेश डालते हैं. 28 अप्रैल 2016 को उन्हीं के लिए गुरमेहर ने हिन्दी और अंग्रेज़ी में ये वीडियो डाला था.
गुरमेहर कौर इस वीडियो में बता रही हैं कि जब वो दो साल की थी तो उसके पिता शहीद हो गए, छह साल की थी तो एक बुर्केवाली को मारने का भी प्रयास किया क्योंकि उसे लगता था कि मेरे पिता की मौत की ज़िम्मेदार वही है. तब उसकी मां ने समझाया कि पाकिस्तान ने नहीं मेरे पिता को जंग ने मारा है. उसने यही लिखा कि नफ़रत को भूलना सीख लिया. यह आसान नहीं था लेकिन बहुत मुश्किल भी नहीं. अगर मैं ऐसा कर सकती हूं तो आप भी कर सकते हैं. आज मैं भी अपने पिता की तरह ही एक सैनिक हूं. मैं भारत और पाकिस्तान के बीच शांति के लिए लड़ती हूं क्योंकि अगर युद्ध नहीं हुआ होता तो मेरे पिता आज मेरे पास होते.
दुनिया युद्ध के ख़िलाफ़ बोलती है. सबको पता है कि युद्ध इंसानियत का दुश्मन है इसलिए छुटभैया से लेकर बड़े नेता शांति की बात करते हैं. गुरमेहर ने जब यह वीडियो यू ट्यूब पर डाला तो उसका साथ पाकिस्तान के एक नौजवान फ़ैयाज़ ख़ान ने दिया. अभी तक आपने मित्र देश सुना होगा, शत्रु देश सुना होगा, फ़ैयाज़ ख़ान ने गुरमेहर कौर के साथ एक नए देश की कल्पना पेश की. सिबलिंग देश यानी भाई बहन का देश. हम ज़िंदगी में इसलिए आते हैं नया और ख़ूबसूरत सोचने. ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं फ़ैयाज़ ख़ान. 6 मई 2016 को ये वीडियो यू ट्यूब पर डाला. कोई राम साहब हैं जो भारत पाकिस्तान के बीच शांति को प्रोत्साहित करने के लिए यू ट्यूब पर आंदोलन चलाते हैं. उसी वीडियो में फैयाज कहते हैं...
हाय गुरमेहर कौर, मैं फयाज़ ख़ान हूं पाकिस्तान से. जब मैं पहली बार ऑस्ट्रेलिया आया तो सभी भारतीयों को वैसे देखता था जैसे मुझे स्कूल में सिखाया गया था. लेकिन जल्दी ही हमलोग क्लास रूम में खाना, कुर्सियां साझा करने लगे जैसे हम करीबी दोस्त हों. कारगिल युद्ध में तुम्हारे पिता की मौत पर हम सभी को अफसोस है. मैंने युद्ध देखा है, अपने शहर स्वात में मौतें देखी हैं लेकिन किस्मत से अपने घर के किसी सदस्य को नहीं खोया, लेकिन मेरे आसपास हज़ारों गुरमेहर कौर हैं. मैं भारत आना चाहता हूं बिना किसी विज़ा की पाबंदी की. हम दोनों इन पाबंदियों के ख़िलाफ़ मिल कर लड़ेंगे. सीमा के दोनों तरफ हज़ारों लोगों को गुरमेहर कौर की तरह तकलीफों से गुज़रना न पड़े, हम इसके लिए लड़ेंगे. मैं तुम्हें तुम्हारे पिता का प्यार तो नहीं दे सकता, लेकिन बेशक तुम्हें दुश्मन देश से एक भाई मिल गया है. चलो इस दुनिया में एक अनोखा रिश्ता बनाते हैं जहां भाई एक मुसलमान है और बहन एक सिख. अब इस दुश्मन देश शब्द को सिबलिंग देश से बदल देते हैं. मतलब भाई बहन का देश कर देते हैं.
ये असर हुआ था गुरमेहर के वीडियो का. गुरमेहर कौर के वीडियो के खिलाफ भी कई वीडियो आ रहे हैं. उनकी आलोचना भी हो रही है. हमारा फोकस इस बात पर है जब कोई अकेली लड़की बोलती है तो क्या होता है. आप ट्वीटर पर जाकर गुरमेहर कौर को दी गई गालियों को जमा कीजिए. नारी देवी है के नाम पर नौटंकी करने वाले समाज की पोल खुल जाएगी. मूल बात क्या है, गुरमेहर कौर ने वीडियो डाला कि वो एबीवीपी से नहीं डरती है. मगर उसे किनारे करने के लिए एक साल पुराना वीडियो निकाला गया और इस तरह पेश किया गया जैसे वो पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए सैनिकों की कुर्बानी को छोटा कर रही है. अपने पिता का इस्तेमाल कर रही है. ढूंढने वालों को उसी यू-ट्यूब पर यही वीडियो मिला होगा लेकिन उन्होंने आप तक यह बात नहीं फैलाई क्योंकि कोशिश है कि आप राष्ट्रवाद के नाम पर सनकते रहें. अपने अंदर हिंसा की भावना को मौका देते रहें. गुरमेहर के पोस्ट ने जो हासिल किया वो हज़ार मिसाइलों से भी दुनिया में आजतक कहीं भी हासिल नहीं हो सका है. सिबलिंग देश. भाई बहन का देश. हमने शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. हम नहीं करते हैं. आप पूछिये कि हम शहीद का इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं, जो जवाब देते हैं. और ये जवाब गृह राज्य मंत्री किरेण रिजीजू ने लोकसभा में दिया है. 22 दिसंबर 2015 को लालगंज की सांसद नीलम सोनकर के सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री ने कहा कि ''रक्षा मंत्रालय ने सूचित किया है कि 'शहीद' शब्द भारतीय सशस्त्र सेनाओं में किन्हीं कैज़ुअलटीज़ के संदर्भ में प्रयुक्त नहीं किया जाता. इसी प्रकार किसी कार्य या कार्यवाही के दौरान केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और असम राइफल्स के जवानों की मृत्यु हो जाने के संदर्भ में भी ऐसा शब्द प्रयुक्त नहीं होता है.
यही जवाब 18 फरवीर 2014 को पूर्व गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने लोकसभा में दिया था कि सरकार ने कभी शहीद शब्द को परिभाषित नहीं किया है. एबीवीपी को किरेण रिजीजू से पूछना चाहिए कि देश के लिए जान देने वाले सैनिकों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं होता है. सरकार और सेना अपनी जान की कुर्बानी देने वाले को शहीद नहीं कहती है. यह जवाब आपको लोकसभा की वेबसाइट से मिल जायेंगे. आप प्रिंट आउट लेकर इन्हें ट्वीट कर सकते हैं. भारत सरकार सीमा पर जान देने वाले सैनिकों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं करती है. अख़बार और टीवी को लेकर सतर्क हो जाइये वर्ना इस देश का बेड़ा गर्क करने वालों में आप भी शामिल होंगे. इनमें से ज़्यादातर का काम हुकूमत के लिए ज़िंदाबाद बोलना हो गया है.
गुरमेहर कौर ने जितना बोल लिया था उतना बोल लिया है. उसके विरोध में लोग बोले तो समर्थन में भी बोले हैं. वो एक छात्रा है. इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि प्रथम वर्ष की इस छात्रा का साथ उसके शिक्षकों ने दिया है. लेडी श्रीराम कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के टीचरों ने एक बयान जारी किया है जिसमें लिखा है, 'हम लेडी श्रीराम कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के फैकल्टी मेंबर साफ़तौर पर और मज़बूती से अपनी छात्रा गुरमेहर कौर का समर्थन करते हैं. यूनिवर्सिटी से जुड़े मुद्दों पर अपने विचारों को रखने के उसके अधिकार का समर्थन करते हैं. हम शिक्षकों के लिए ये काफ़ी संतोषजनक है कि उसने अपने आसपास बने माहौल पर चुप्पी का सहारा लेने के बजाय बड़ी ही संवेदनशीलता, रचनात्मकता और बहादुरी के साथ ख़ुद को व्यक्त किया है. हमें लगता है कि शिक्षा संस्थानों का ये कर्तव्य है कि वो अपने छात्रों को हिंसात्मक बदले की कार्रवाई के डर से दूर उन्हें संवेदनशील और जवाबदेह बनाएं और उनमें आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता विकसित करें. हमें गर्व है कि गुरमेहर ने इस देश के एक युवा नागरिक के तौर पर अपना कर्तव्य निभाया है. उसे मिल रही हिंसा और बर्बरता की धमकियों की हम निंदा करते हैं. वीरेंद्र सहवाग और रणदीप हुडा जैसे पब्लिक फिगर्स द्वारा सोशल मीडिया पर दिए गए जवाब उस धमकी और डर का शर्मनाक रूप हैं जिसका सामना गुरमेहर कर रही हैं, उस हिंसक भीड़ की तरफ़ से जिसका रूप यूनिवर्सिटी ने हाल ही में देखा. हम जनता से समझदारी की अपील करते हैं. हम उन संस्थानों से भी समझदारी की अपील करते हैं जिनके हाथ में ये ज़िम्मेदारी है कि वो क़ानून और न्याय में लोगों का भरोसा बहाल करें और हमारे युवा नागरिकों के लिए बिना डरे सोचने और ख़ुद को व्यक्त करने का माहौल दें...'
सरकारों के पास ताकत बहुत होती है. हम और आप जब इस घटना को भूल जायेंगे तो वो कोई तरीका निकालेगी. गुरमेहर कौर का समर्थन देने वाले शिक्षकों को परेशान करेगी. नोटिस भेजेगी. उनके रजिस्टर चेक करवाएगी. बहुत से शिक्षक न तो अपने लिए बोल पाते हैं न अपने छात्र के लिए. बहुत से शिक्षक इस देश में दहेज़ लेकर शादी करते हैं और शिक्षक दिवस के दिन देवता बनकर घूमते हैं. ऐसे शिक्षकों के लिए मैं उन शिक्षकों का नाम पढ़ रहा हूं जिन्होंने गुरमेहर का साथ दिया है. जानेट लालवामपुई, नांगौम महेशकांता सिंह, मैत्रेयी मंडल, जॉनथन वगच्ज़, रचिता मित्तल, शेरनाज़ कामा, आरती मिनोचा, रूख़साना श्रौफ, मधु ग्रोवर, वफ़ा हामिद, रीता जोशी, माया जोशी, तानिया सचदेव, मिताली मिश्रा, अरुणिमा रे, दीप्ति नाथ, करुणा राजीव, तानिया सचदेव.
ऐसी स्टोरी के लिए तैयार रहिए कि समर्थन करने वाले टीचरों को कैसे परेशान किया गया. एक टीचर को अपनी छात्रा का साथ नहीं देना चाहिए तो क्या करना चाहिए, खासकर तब जब उसके ख़िलाफ़ मंत्री और सांसद बोल रहे हों. ट्वीटर पर उसे बलात्कार करने की धमकियां दी जा रही हों और लिखकर गालियां दी जा रही हों. मान लीजिए कि आपकी बेटी वहां पढ़ती हो तो टीचर को क्या करना चाहिए. इस लिहाज़ से ये बड़ी बात है.
एबीवीपी ने सोमवार को अपनी तरफ से तिरंगा यात्रा का आयोजन किया था. बीजेपी नेता शाइना एनसी ने कहा है कि जिसे भी परेशानी है उसे लेकर बहस होनी चाहिए. हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. एबीवीपी के नेता साकेत बहुगुणा ने मॉरिस नगर थाने में शिकायत दर्ज कराई है. कहा है कि मीडिया के माध्यम से पूरे देश से और मुझसे भी टीवी स्टूडियो में ये बात कही है कि कुछ लोग उन्हें सोशल मीडिया पर जान से मारने और बलात्कार की धमकी दे रहे हैं. देश के किसी भी नागरिक को ऐसी धमकियां मिलना ग़लत है. पुलिस को ऐसे तत्वों के खिलाफ सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए. दुर्भाग्य से गुरमेहर जी हमारे संगठन एबीवीपी पर आरोप लगा रही हैं लेकिन मैं साफ करना चाहता हूं कि हमारा कोई भी दायित्वधारी इसमें शामिल नहीं है. देर से ही सही, साकेत बहुगुणा ने अच्छा काम किया है. साकेत को किरेण रिजीजू से भी कहना चाहिए कि आप गुरमेहर का साथ दीजिए, सुरक्षा कीजिए क्योंकि वो अकेली है. भले ही उसने हमारा विरोध किया है. फिर भी जितना उसके बस में है उतना तो साकेत ने किया ही. साकेत को अब उन तस्वीरों को देखना चाहिए जिसमें उसके संगठन के लोग हिंसा करते दिखाये गए हैं. वो चाहें तो हिंसा करने वाले सदस्यों को निकाल सकते हैं. भले ही दूसरे गुट के हिंसा करने वाले अपने संगठन में बने रहें मगर साकेत बहुगुणा के पास एक शानदार मौका है विरोधियों को जवाब देने का और अपने संगठन को संदेश देने का कि हम हिंसा नहीं करेंगे.
उम्मीद है साकेत बहुगुणा की यह बात मंत्रियों और सांसदों तक पहुंचेगी जो गुरमेहर के दिमाग़ को दूषित करने वालों का पता लगा रहे थे. उसके एक साल पुराने वीडियो के आधार पर उसकी देशभक्ति या समध को चुनौती दे रहे थे. किसी भी सरकार का नुमाइंदा लड़कियों की बात को भले नापसंद करे मगर उसकी समझ या स्वतंत्र सोच को चुनौती नहीं दे सकता है. बहरहाल अब गुरमेहर ने खुद को आगे की कार्यवाही से अलग करते हुए बयान दिया है कि,
'मैं कैंपेन से खुद को अलग कर रही हूं. आप सभी को बधाई. मुझे अकेला छोड़ दें. मुझे जो कहना था वो मैंने कह दिया. एक चीज जो निश्चित है कि अब हम हिंसा करने या किसी को धमकी देने से पहले दो बार सोचेंगे, और इसलिए मेरा विरोध था. ये कैंपेन छात्रों के लिए है, मेरे लिए नहीं. मार्च में बड़ी संख्या में हिस्सा लें जो कोई भी मेरे साहस और बहादुरी पर सवाल उठा रहे हैं. उनके लिए कहूंगी कि मैंने ज़रूरत से ज़्यादा हिम्मत दिखाई है.'
गुरमेहर कौर ने अपना काम कर दिया है. उनके साथ और उनके पहले भी बहुत सी लड़कियों ने आवाज़ उठाई है. हमने कुछ नौजवान लड़कियों से पूछा कि जब वो बोलती हैं, पहली बार बोलती हैं या बार बार बोलती हैं तो उनके आस पास का समाज उनके साथ किस तरह का बर्ताव करता है. वे पहले किस डर से ख़ुद को आज़ाद करती हैं और जब आज़ाद होती हैं तो उनका बोलना किस तरह से और किस किस को डरा देता है. कौन हैं जो लड़कियों के बोलने पर कहते हैं कि बहुत बोलती हो, बोलोगी तो देख लेना, आज के प्राइम टाइम का मकसद इसके जवाब में उन लड़कियों को समाने लाना है जो बोलती हैं, ताकि आप उन्हें देख सकें. ज़रूर लड़की होने के कारण उसे कोई फायदा नहीं मिलना चाहिए, उसकी बात का तर्कों के आधार विरोध होना चाहिए. बहस होनी चाहिए लेकिन जब कोई किसी लड़की को चुप कराये तो उसकी बात के लिए न सही, उसकी हिम्मत के लिए उसका साथ देना चाहिए.
मिरांडा हाउस की छात्रा हनी ने एक वीडियो हमें भेजा है जिसमें वो कह रही हैं, 'सबको आवाज़ उठानी चाहिए, मैं नहीं हम नहीं तो कौन आवाज़ उठाएगा.' लड़कियों के लिए कितनी हिदायत होती है फिर भी कोई न कोई आगे आती है बोलने के लिए. इनकी परिवार वालों से गुज़ारिश है कि इतना भी न डरें.
सिद्धी कहती हैं कि जब भी उनके साथ की लड़कियां बोलने को होती हैं उन्हें सुरक्षा की याद दिलाकर चुप करा दिया जाता है. वो कौन लोग हैं जो लड़की के बोलने पर ख़तरा बन जाते हैं. उसकी बात का विरोध कीजिए. असहमत होइये लेकिन उसे यह बोलने वाले कौन लोग होते हैं जो कहते हैं कि ठीक नहीं होगा. क्या ऐसी आवाज़ कुर्सी पर बैठे लोगों से भी आ रही है. कहीं आप ऐसे लोगों का समर्थन तो नहीं करते जो लड़कियों के बोलने पर देख लेने की बात करते हैं. समाज से लेकर तमाम सरकारों में ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं. यामिनी दीक्षित ऐसी ही एक छात्रा हैं जो बोलने के अपने अनुभव को आपसे साझा करना चाहती हैं.
यामिनी यूनिवर्सिटी में एक ऐसी जगह के लिए लड़ रही है जहां किसी भी तरह का मतभेद बातचीत के ज़रिये सुलझाया जा सके. रामजस कॉलेज में झगड़े कैसे हुए, पत्थर किसने फेंके, पुलिस क्या कर रही थी, इसकी जांच हो रही है और कभी नतीजा नहीं आएगा. इसलिए प्राइम टाइम में हमारा मकसद उस झगड़े के कारणों या पक्ष विपक्ष में जाना नहीं है. हम गुरमेहर को लेकर हुए विवाद के संदर्भ में देखने की कोशिश कर रहे हैं कि जब कोई लड़की बोलती है तो उसके साथ क्या क्या होता है. वो बोलने से पहले खुद से कैसे लड़ती है, जब वो बोलती है तो उससे दुनिया कैसे लड़ती है. हम बात कर रहे हैं कि हिंसा का डर समाप्त करने की ज़िम्मेदारी जितना एबीवीपी की है उतनी ही आइसा की है, इन दोनों से सबसे अधिक जवाबदेही पुलिस और यूनिवर्सिटी की है. हमने इन लड़कियों से सहमति ली है, उन्होंने भी हिम्मत दिखाई है कि वे बोलने के हालात पर बोलेंगी.
दुनिया में विरोध का तरीका सरकार नहीं तय करेगी. लोग तय करेंगे. अब देखिये प्रधानमंत्री ने मन की बात शुरू की. इसके जवाब में कांग्रेस के नेता संदीप दीक्षित ने काम की बात शुरू कर दी. वे भी रेडियो के ज़रिये काम की बात में प्रधानमंत्री से सवाल करते हैं और इंटरनेट पर डाल देते हैं. इस तरह से लोकतंत्र फलता फुलता है. तरह तरह की आवाज़ें सुनाई देती हैं. इन आवाज़ों के बीच ही आप किसी को प्रधानमंत्री चुनते हैं और किसी को नहीं चुनते हैं.
मिरांडा हाउस की अदिती कहती हैं, 'मैं किसी संगठन की नहीं हूं. अगर किसी को कुछ पसंद नहीं था तो उन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहिए. उनके पास सोशल मीडिया पर बहुत से लोग लिखने से डरते हैं. वे राजनीति से भागने लगे हैं. यह राजनीति के लिए अच्छा नहीं है. उन्हें क्यों लगता है कि गाली देने वालों का गिरोह अनाप शनाप लिखने लगेगा. आप गाली देने वालों की प्रोफाइल चेक कीजिए. देखिये कि वे किस राजनीतिक दल के समर्थक हैं. व्हाट्सऐप आजकल सूचना के नाम पर कचरा फैलाया जा रहा है. अनाप शनाप अफवाहें हैं. पूरा तंत्र लगा हुआ है किसी को भीतर भीतर बदनाम करने में. शायद इन्हीं सब वजहों से खासकर आम महिलाएं लिखने से घबराती हैं. गुरमेहर के पोस्ट पर भी कैसी कैसी बातें लिखी गई हैं. पुलिस ने मामला तो दर्ज किया है. देखते हैं क्या होता है. मंगलवार को दिल्ली विश्वविद्यालय में एक मार्च हुआ. इस मार्च का आयोजन छात्र और शिक्षकों ने किया था. आइसा संगठन भी शामिल था. इस मार्च में सर्वप्रिया सांगवान ने उन लड़कियों से बात की जो किसी संगठन की तो नहीं हैं मगर हिंसा की राजनीति के विरोध में आईं थीं.
उम्मीद है कि कॉलेज प्रशासन ऐसी बोलने वाली लड़कियों को परेशान नहीं करेगा बल्कि उन्हें एक पत्र जारी करेगा कि आपने शांतिपूर्ण प्रदर्शन में हिस्सा लेकर कॉलेज का नाम रौशन किया है. ऐसा पत्र कॉलेज के प्रिंसिपल को देना चाहिए. एबीवीपी के सदस्यों को भी देना चाहिए और आइसा वालों को भी. और उन छात्रों को भी जो किसी संगठन से नहीं हैं जैसे अदिती. निदिक्ष्मा शर्मा रामजस की छात्रा हैं. वो कहती हैं, 'हमने देखा कि कैसे हमारी यूनिवर्सिटी रायट प्लेस में बदल गई. ये बात रखने के लिए होती है. विरोध करना ज़रूरी है क्योंकि वो हमें डराना चाहते हैं.'
सोशल मीडिया पर हम कैसा समाज बनने दे रहे हैं जहां लड़कियों को बोलते वक्त सोचना पड़े कि ख़तरा तो नहीं है. घर से निकलो तो ख़तरा, घर में रहकर दुनिया से बोलो तब भी ख़तरा. जब ज़ुबान ही नहीं बचेगी तो बेटियां किसके लिए बचेंगी. क्या सांख्यिकी विभाग और महिला कल्याण विभाग के आंकड़ों के लिए बचेंगी. बहुत सी लड़कियां हैं जो इन गाली देने वाले गिरोहों का मुकाबला कर रही हैं. आने वाले वक्त में उनका योगदान याद किया जाएगा. गाली देने वाले एक बात याद रखें. सरकारें और राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल कर छोड़ देंगे. वे सोशल मीडिया में चाहे जो लिख लें, जिस भी नेता का नाम ले लें मगर समाज में कभी नहीं बता सकेंगे कि वे किसी राजनीतिक दल के समर्थन में गालियां लिखते हैं. लोगों को धमकाते हैं.
एक छात्रा प्रांजल ने कहा, 'पहले मैं इस प्रोटेस्ट में आना नहीं चाहती थी क्योंकि मेरे पेरेंट बहुत चिंतित थे. ऐसा नहीं है कि वो एबीवीपी को सपोर्ट करते हैं, लेकिन वो एबीवीपी से डरते हैं कि कहीं वो मुझे कुछ न कर दें. प्रांजल की तरह ही सर्वप्रिया को दिल्ली विश्वविद्यालय के मार्च में स्कूल की एक छात्रा मिली. अदिती. वो प्रांजल के साथ ही थी. अदिती ने कहा कि डर उनका हथियार हो गया है और लड़कियों के लिए विरोध करना ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि उन्हें बोला जाता है कि तुम कमज़ोर हो.
दुनिया में तरह तरह के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. भारत में ही हाज़ी अली दरगाह और शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर कितना ज़बरदस्त आंदोलन हुआ. महिलाओं ने यह आंदोलन चलाया. अपने सवाल के नाम पर वोट लेने के लिए नहीं बल्कि समाज को बदलने के लिए. आपको निकिता आज़ाद याद है. पटियाला की निकिता ने अकेले नैपकिन आंदोलन की शुरुआत कर दी. निकिता ने सबरीमाला मंदिर के ट्रस्टी को पत्र लिख दिया कि मैं बीस साल की लड़की हूं, मेरे आंख, कान, नाक, होंठ, हाथ, पांव सब हैं जैसे दूसरे इंसानों के हैं. मैं एक औरत हूं जिसे माहवारी होती है. मैंने मां को कहते सुना है कि ऐसे समय में मंदिरों में नहीं जाना चाहिए. औरत अपवित्र होती है. निकिता के इस पत्र ने देश में हंगामा मचा दिया जिसमें उसने सबरीमाला वालों से पूछा था कि माहवारी के समय औरतों को मंदिर आने से क्यों रोका जा रहा है. यह सवाल उसने अकेले उठाया. कांग्रेस बीजेपी के मंच से नहीं उठाया. इन दलों के नेताओं की सांसें फूल जाएंगी. इसलिए ज़रूरी है कि कोई अकेले भी आवाज़ उठाए. जब कोई ऐसा करे तो हम साथ दें. आवाज़ उठाने वाले से सवाल भी करें. निकिता से भी सवाल हुए मगर उसे सवाल करने के लिए डराना ठीक नहीं है.
लड़कियां आवाज़ उठा रही हैं. इन्हें अकेले में या भीड़ में किसी भी कारण से मारने वालों को धमकाने वालों का साथ मत दीजिए. हो सकता है कि भीड़ के पास सबसे सही तर्क हों, कारण हों मगर वो अदालत नहीं है. वो कानून नहीं है. सही बात के लिए सड़क पर फैसला करने का अधिकार उसके पास नहीं है. यह बात केमिस्ट्री के सिलेबस का नहीं है. आम ज़िंदगी के सिलेबस में है. बिना स्कूल गए समझ में आ सकती है.