लखनऊ: विधान सभा में अप्रत्याशित हार के बावजूद स्तरीय राजनीति न होने से समाजवादी पार्टी की बची खुची साख भी मिटती नज़र आ रही है।
इस समय पूरा यादव कुनबा होली का परंपरागत त्यौहार मनाने अपने पैतृक गांव सैफई में एकत्र है।उम्मीद है कि परिवारिक कलह को भूलकर पूरा परिवार इस बात पर गहनता से मंथन करेगा कि परिवार के मुखिया मुलायम सिंह की उपेक्षा कर संस्कारो के विरुद्ध बदजुबानी एवं जुमलेबाज़ी कर चुनाव में जो स्थिति उत्पन्न की हुई हैं उसकी चिंगारी कब और कहा से शुरू हुई और उस आग पर अब कैसे काबू पाया जाये । कांग्रेस का साथ लेकर पार्टी को डुबोने की साजिश किसने रची।घर का भेदी कौन था जो समय समय पर पारिवारिक एवं राजनैतिक कमजोरियों से भाजपा को अवगत कराता रहा। रोड शो और रैलियो में अपार भीड़ एकत्र होने के बाद वोट क्यों नहीं मिले।जनता को राहुल गांधी का साथ क्यों नहीं पसंद आया,आदि आदि प्रश्नों पर पार्टी भविष्य के लिये मंथन जरूरी है।
कुछ जानकारों का का विचार है कि मार्च 2012 से ही समाजवादी पार्टी का अंत नज़र आने लगा था जब मुलायम सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने जीत की ख़ुशी में सत्ता का दायित्व अखिलेश के हाथों में सौप दिय। तत्समय मुलायम सिंह के घनिष्ठ मित्रो और मुलायम के मुख्य चिकित्सीय परामर्शी ले0जनरल डा0 बी एन शाही ने स्वंम मुलायम सिंह को मुख्य मंत्री बनने की सलाह इस कारण दी थी कि 2014 मे संसद के चुनाव होने है और उनके नेतृत्व में यू पी से 50-60 सीट पर विजय मिल सकती है।डा0 शाही और मुलायम के मित्रो की यह रणनीति उन्हें प्रधान मंत्री बनाने की दिशा में थी।उनका यह भी मत था कि शिवपाल यादव भी यह काम मजबूती से कर पायेगे परन्तु पुत्र मोह में या आज़मी दबाव में मुलायम अखिलेश को सीएम बनाने की घोषणा कर बैठे । कदाचित यही से समाजवादी किले की बुनियादें खिसकने लगी ।
वर्ष 2014 तक आते आते प्रदेश की स्थिति इतनी बिगड़ गई कि अपने परिवार की तीन सीटो के अतिरिक्त समाजवादी पार्टी प्रदेश से चौथी सीट भी नहीं निकाल सकी।मुसलमानो के मसीहा मानेे जाने वाले मुलायम सिंह स्वंम मुसलमानो का वोट भी भाजपा के पक्ष में जाने से नहीं रोक सके। इन सबका आखिरी परिणाम 2017 के विधान सभा चुनाव में भारी नुक्सान सहित उठाना पड़ा।
सत्ता में राम गोपाल यादव की दखलंदाज़ी से वर्ष 2014 चुनाव से ही पारिवारिक कलह ने त्रीवता से असर दिखाना आरम्भ कर दिया। ऐसी भी खबरें आने लगी कि राम गोपाल की संस्तुतियो को शिवपाल द्वारा दाखिल दफ्तर कर दिया जाता था और यदि शिवपाल कोई प्रस्ताव मुख्य मंत्री को भेजते तो उस पर सम्बंधित अधिकारी को चुप्पी साधे रहने का निर्देश दे दिया जाता था। इसकी सजा विभागीय अधिकारियों को झेलनी पड़ती थी।कुछ चहेते अधिकारी भी अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु पारिवारिक कलह को हवा देते रहे।
विधान सभा चुनाव में बद जुबानी और जुमले बाज़ी अनावश्यक रूप से हावी होती रही । मोदी के शब्दों को तोड़ मरोड़ कर जनता के सामने पेश करने से जनता भी त्रस्त हो गई और यहाँ तक कि समाजवादी पार्टी का वास्तविक मतदाता भी पार्टी से किनारा काटता नज़र आने लगा। मोदी की कही गई सच बातो की आलोचनाओं से निरंतर मोदी और भाजपा की ख्याति बढ़ती चली गई। समय यह आ गया कि जनता के साथ कार्यकर्त्ता भी मोदी के विरुद्ध की गई बातों को सुनने में कोई रूचि नहीं लेती थी। काम बोलता है के नारों के साथ सरकार कोई भी काम दिखाने में कामयाब नही हो सकी। मेट्रो चला दी तो लखनऊ वालो ने लखनऊ से सफाया क्यों कर दिया। हाईवे बना तो चुनाव आते आंते् धसक क्यों गया। लॉ एंड आर्डर इतना अच्छा था तो इलहाबाद में डिंपल यादव की सुरक्षा इतनी लचर क्यों हो गई की उन्हें मंच से बार बार यह कहना पड़ा कि इसकी शिकायत वो आपके भय्या से करेगी। स्पस्ट है कि जनता की नज़र में सब काम धोखे वाले लगने लगेे। यूपी में क्राइम के स्तर में उत्तरोत्तर वृद्धि सरकार के विरोध का कारण बनती रही और जनता ने सत्ता परिवर्तन करने का निर्णय ले लिया। साथ चलने वाले भी अलग हो गए ।
पकिस्तान पर की गई सर्जीकल स्ट्राइक हो या नोटबंदी का निर्णय......आम जनता के दिलो को छू गया। चायवाला हो,पान वाला हो,दूध वाला हो बस स्टैंड या रेल हर जगह इन कार्यो की प्रशंसा ही होती रही।कुछ कलाबाजारियो और नेतागणो जिनके पास अकूत काला धन पुराने नोटों में एकत्र था,बौखलाहट की स्थिति मे मोदी को कोसते नज़र आते थे।चुनाव में भी इस मुद्दे पर की गई मोदी की आलोचना मोदी के पक्ष में ही रही और उसका नतीजा 11 मार्च को दिखाई दिया।
मुख्य मंत्री के पद को एक गरिमा होती है और गरिमा के अनुरूप उससे उसी प्रकार की बातो की अपेक्षा की जाती है ।इसी कारण इन पदों पर अनुभव होना जरूरी होता है। लड़कपन और जुम्लेबाज़ी से सत्ता चलती होती तो आज सब जगह माफियाओं का ही राज होता।
लोकतंत्र में ऐसा संभव नहीं है,लोकतंत्र में जनता सबकुछ देखकर अपना प्रतिनिधि चुनती है।मोदी को गंगा मैया की कसम देने वाले उस समय चेहरा दिखाने लायक नहीं रह गये जव काशी विश्व्नाथ मन्दिर में परिवार सहित पूजा करते समय 15 मिनट के लिए बिजली गायब हो गई ।
अब जो भी हो समाजवादी पार्टी को फिर से अपनी बुनियाद सवारने में 10-15 वर्ष तक का समय लग सकता है। मुलायम को प्रधान मंत्री के रूप में देखने का सपना भी अब पूरा दिखता नज़र नहीं आता है।कांग्रेस ने शायद प्रधान मंत्री की दौड़ से बाहर करने के लिए ही समाजवादी पार्टी के साथ विश्वासघाती मित्रता का स्वांग रचा था। कही न कही मुलायम सिंह इस बात को समझते थे और इसी कारण कांग्रेस के गठबंधन से सहमत नहीं थे।
सैफई में होली मिलन के बाद हुए मंथन में सपा की रणनीति में अब क्या परिवर्तन होता है, यह बहुत कुछ पार्टी नेतृत्व में होने वाले परिवर्तन पर निर्भर करेगा।