धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस् की उपलब्धि का प्रयत्न करता है, राजनीति बुराई से लड़ती है। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में हैं,जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गई है।
धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं। किसी एक धर्म को किसी एक राजनीति से कभी नहीं मिलना चाहिए। इसी से सांप्रदायिक कट्टरता जन्मती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि सांप्रदायिक मिलन और कट्टरता से बचें। एक और मतलब है कि राजनीति के दंड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए। नहीं तो दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी।
इतना ध्यान में रखते हुए, फिर भी ज़रूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से संपर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते हुए मैं साफ देख रहा हूं कि राजनीति के क्षेत्र में धर्म ने जाने अनजाने दकियानूसी , प्रतिक्रिया, गुलामी और अर्धमृत्यु को बढ़ावा दिया है। मुझे और मुझे जैसे लोगों का हक है कि धर्म के उस अंग को साफ करायें। साथ ही, धर्म भी कुछ देख रहा होगा, खास तौर से उसको जिसे मुझे जैसे लोग खुद देख रहे हैं कि राजनीति कलही और क्षणभंगुर हो रही है।
धर्म वालों का हक है कि वे मनुष्य का ध्यान अधिक टिकाऊ बातों की तरफ खींचें। इस तरह के हक के कौन-कौन से नतीजे निकलेंगे? एक नतीजा साफ है आस्तिकता। लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि धर्म की आस्तिकता को राजनीति स्वीकार ही करें। राजनीति एक आश्वासन ज़रूर दे कि वह आस्तिकता या नास्तिकता के प्रचार में दंड का इस्तेमान नहीं करेगी।
साथ ही धर्मवालों को आश्वस्त होना चाहिए कि व्यक्तिगत पूंजी के खत्म होने के बाद भी मंदिर,मस्जिद करोडों लोगों के छोटे पैसों से चलेंगे, अगर इन करोड़ों लोगों का मन लुभता रहता है। फिर शायद नास्तिकता और आस्तिकता को समावेश करने वाली कोई नयी चीज़ निकल रही है।
(२३ मार्च समाजवादी चिंतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का जन्मदिन है. यह प्रसिद्ध आ लेख उनके भाषणों और लेखों पर आधारित किताब 'भारतमाता धरतीमाता' से लिया गया है.)