कहां लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढ़ाई॥
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥
इस पद में सूरदास जी भगवान् की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मैं बाल कृष्ण की सुंदरता का कहां तक वर्णन करूं। कुंवर कन्हैया स्वर्ण के आंगन में खेल रहे हैं, यह शोभा देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। कन्हैया के सिर पर रखी हुई टोपी (कुलही) अनेक सुंदर रंगों में इस प्रकार शोभायमान है, मानो नए बादल पर इंद्रधनुष चढ़ा हो। बालक कृष्ण के मुख पर बिखरे हुए टेढ़े बाल अत्यंत सुंदर लग रहे हैं और मन को हर लेते हैं। ये ऐसे लगते हैं, मानो सुंदर कमल के ऊपर भौरों की पंक्ति घूम रही हो। उनके मस्तक पर नीला, सफेद, पीला और लाल मणि से जड़ा हुआ लटकन ऐसा सुंदर लगता है, मानो शनि, बृहस्पति, शुक्र, और मंगल साथ-साथ हों (शिन का प्रतीक नीलम, बृहस्पति का पीला पुखराज, शुक्र का सफेद हीरा और मंगल का लाल मूंगा होता है।) उनके दूध के दांतों की चमक की शोभा एक विचित्र उपमा पाती है। बालक कृष्ण के किलकारी मारते और हंसते समय कभी दांत दिखाई पड़ते हैं और कभी छिप जाते हैँ। ये इस प्रकार लगते हैं जैसे बादलों में बिजली की छटा हो। उनकी रुक-रुककर निकलने वाली खंडित तोतली बोली अनंत सुख देती है। इस प्रकार घुटनों के बल चलते हुए और शरीर में मिट्टी लपेटे हुए सुशोभित बाल श्रीकृष्ण पर सूरदास जी बलिहारी जाते हैं।
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भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई० में पंडित राम दास जी के घर हुआ था। पंडित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मांध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे संभवत बाद में अंधे हुए होंगे। वे हिंदी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।सूरदास जी एक बार बल्लभाचार्य जी के दर्शन के लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, बल्लभाचार्य ने तभी उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देखकर बल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कीर्तन भार सौंप दिया, तभी से वह मंदिर उनका निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ ही रहते थे।वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।सूरदास जी ने अपने पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है तथा इनके सभी पद गीतात्मक हैं, जिस कारण इनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इन्होंने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। उनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। व्यंग वक्रता और वाग्विदग्धता सूर की भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। दृष्टकूट पदों में कुछ किलष्टता अवश्य आ गई है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के महान् काव्यात्मक प्रतिभासंपन्न कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का जो मनोरम चित्रण किया है, वह साहित्य में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य में वात्सल्य वर्णन का एकमात्र कवि सूरदास जी को ही माना जाता है,सूरसारावली - यह ग्रंथ सूरसागर का सारभाग है, जो अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किंतु यह भी सूरदास जी की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें 1107 पद हैं।
सूरसागर- यह सूरदास जी की एकमात्र प्रमाणिक कृति है। यह एक गीतिकाव्य है, जो 'श्रीमद् भागवत' ग्रंथ से प्रभावित है। इसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव- गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। साहित्यलहरी- इस ग्रंथ में 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है तथा इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की झलक भी दिखाई देती है।D