अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥
जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदास जी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पड़ा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड़ गयी। मृग (परमपद को ढूँढ़ने वाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाड़कर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)।
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भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई० में पंडित राम दास जी के घर हुआ था। पंडित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मांध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे संभवत बाद में अंधे हुए होंगे। वे हिंदी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।सूरदास जी एक बार बल्लभाचार्य जी के दर्शन के लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, बल्लभाचार्य ने तभी उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देखकर बल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कीर्तन भार सौंप दिया, तभी से वह मंदिर उनका निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ ही रहते थे।वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।सूरदास जी ने अपने पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है तथा इनके सभी पद गीतात्मक हैं, जिस कारण इनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इन्होंने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। उनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। व्यंग वक्रता और वाग्विदग्धता सूर की भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। दृष्टकूट पदों में कुछ किलष्टता अवश्य आ गई है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के महान् काव्यात्मक प्रतिभासंपन्न कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का जो मनोरम चित्रण किया है, वह साहित्य में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य में वात्सल्य वर्णन का एकमात्र कवि सूरदास जी को ही माना जाता है,सूरसारावली - यह ग्रंथ सूरसागर का सारभाग है, जो अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किंतु यह भी सूरदास जी की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें 1107 पद हैं।
सूरसागर- यह सूरदास जी की एकमात्र प्रमाणिक कृति है। यह एक गीतिकाव्य है, जो 'श्रीमद् भागवत' ग्रंथ से प्रभावित है। इसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव- गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। साहित्यलहरी- इस ग्रंथ में 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है तथा इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की झलक भी दिखाई देती है।D