वा पटपीत की फहरानि।
कर धरि चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥
रथ तें उतरि अवनि आतुर ह्वै, कचरज की लपटानि।
मानौं सिंह सैल तें निकस्यौ महामत्त गज जानि॥
जिन गुपाल मेरा प्रन राख्यौ मेटि वेद की कानि।
सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आनि॥
भावार्थ :- हाथ में सुदर्शन चक्र लिये हुए वह तेजी से दौड़ना कोई कैसे भूल सकता है? वह शोभा ही निराली है। रथ से कूदकर भीष्म की ओर झपट रहे हैं। पीतांबर फहरा रहा है। अलकों में धूल लगी हुई है। श्रीकृष्ण उस समय ऐसे दिखाई देते हैं, मानो किसी महामदोद्धत गजेन्द्र पर कोई क्रुद्ध केसरी आक्रमण कर रहा हो।