नटवर वेष काछे स्याम।
पदकमल नख-इन्दु सोभा, ध्यान पूरनकाम॥
जानु जंघ सुघट निकाई, नाहिं रंभा तूल।
पीतपट काछनी मानहुं जलज-केसरि झूल॥
कनक-छुद्वावली पंगति नाभि कटि के मीर।
मनहूं हंस रसाल पंगति रही है हृद-तीर॥
झलक रोमावली सोभा, ग्रीव मोतिन हार।
मनहुं गंगा बीच जमुना चली मिलिकैं धार॥
बाहुदंड बिसाल तट दोउ अंग चंदन-रेनु।
तीर तरु बनमाल की छबि ब्रजजुवति-सुखदैनु॥
चिबुक पर अधरनि दसन दुति बिंब बीजु लजाइ।
नासिका सुक, नयन खंजन, कहत कवि सरमाइ॥
स्रवन कुंडल कोटि रबि-छबि, प्रकुटि काम-कोदंड।
सूर प्रभु हैं नीप के तर, सिर धरैं स्रीखंड॥
भावार्थ :- देखो, आज श्यामसुन्दर ने नटवर का भेष धारण किया है। इस रूप का ध्यान सारी कामनाएं पूरी करता है। चरण कमलों का तनिक ध्यान तो धरो। पैरों के नख तो मानो दुइज के चन्द्र हैं। जानु भी बड़े सुन्दर हैं। जंघाओं की सुन्दर बनावट को केले का वृक्ष कहीं पा सकता है ? उसकी उपमा तुच्छ है। पीले वस्त्र की काछनी क्या है, मानो कमल की केसर घुटनों के चारों ओर लहरा रही है। उधर नाभि और कमर के पास सोने की करधनी की लड़ें ऐसी जान पड़ती हैं जैसे सुन्दर हंसावली तालाब के तट पर विहार कर रही हो। (यहां तालाब नाभि का उपमान माना गया है ) फिर वही भूमावली और गले में पड़ा हुआ मोतियों का हार ऐसा शोभित हो रहा है, मानो गंगा के मध्य में यमुना की धारा मिलकर बह रही हो।(यहां मोतियों का हार ही गंगा की धवल धारा है और उसके बीच में रोमावली श्याम यमुना है।) उस गंगा-यमुना की धारा के दोनों तट क्या हैं, बड़े-बड़े बाहु। शरीर में चन्दन का लेप लगा हुआ है, वह मानो उन सरिताओं की रेणुका है। वहीं तुलसी दल तथा अन्य पुष्पों की वनमाला नदी तट की वृक्षावली के समान शोभा दे रही है। चिबुक के ऊपर अरुण ओठों के आगे बिंबापल और दंतपंक्ति के आगे विद्युत भी लज्जित हो रही है। नासिका को तोते की उपमा देते और नेत्रों को खञ्जन कहते कवि को संकोच होता है। ये उपमाएं अन्यत्र भले ही ठीक बैठती हों, पर यहां तो तुच्छ हैं। कानों के मकराकृत कुण्डलों की आभा करोड़ों सूर्यों के समान है, और भौंहें तो मानो कामदेव की कमानें हैं। सूरदास कहते हैं, कैसा सुन्दर नटवर वेश है, कदंब के नीचे आप खड़े हैं और सिर पर मोर पंखों का मुकुट धारण किये हुए हैं।