बृथा सु जन्म गंवैहैं
जा दिन मन पंछी उडि़ जैहैं।
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उड़ैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
घर के कहत सबारे काढ़ो भूत होय घर खैहैं।
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।
जहूं मूढ़ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥
सूरदास जी कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उड़ान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीड़े पड़ जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड़ जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड़-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपड़ी फोड़ेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ़ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोड़े खाएगा। सूरदास जी कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।
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भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई० में पंडित राम दास जी के घर हुआ था। पंडित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मांध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे संभवत बाद में अंधे हुए होंगे। वे हिंदी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।सूरदास जी एक बार बल्लभाचार्य जी के दर्शन के लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, बल्लभाचार्य ने तभी उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देखकर बल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कीर्तन भार सौंप दिया, तभी से वह मंदिर उनका निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ ही रहते थे।वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।सूरदास जी ने अपने पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है तथा इनके सभी पद गीतात्मक हैं, जिस कारण इनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इन्होंने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। उनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। व्यंग वक्रता और वाग्विदग्धता सूर की भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। दृष्टकूट पदों में कुछ किलष्टता अवश्य आ गई है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के महान् काव्यात्मक प्रतिभासंपन्न कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का जो मनोरम चित्रण किया है, वह साहित्य में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य में वात्सल्य वर्णन का एकमात्र कवि सूरदास जी को ही माना जाता है,सूरसारावली - यह ग्रंथ सूरसागर का सारभाग है, जो अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किंतु यह भी सूरदास जी की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें 1107 पद हैं।
सूरसागर- यह सूरदास जी की एकमात्र प्रमाणिक कृति है। यह एक गीतिकाव्य है, जो 'श्रीमद् भागवत' ग्रंथ से प्रभावित है। इसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव- गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। साहित्यलहरी- इस ग्रंथ में 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है तथा इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की झलक भी दिखाई देती है।D