... जबकि रोजमर्रा की बर्बादी भी कुछ कम नहीं है. जैसे ऑफिस के कैंटीन, स्कूल के लंचबॉक्स, हर घर के किचन में बचने वाला खाना! इसका तो कोई हिसाब ही नहीं है. भारत जैसे देश में जहां लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर है ऐसे देश में हम अगर इस तरह बेतहाशा खाने को बर्बाद कर रहे हैं तो फिर हमें सभ्य नागरिक कहलाने का क्या हक़ है? क्या हमें एक बार इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि लाखों भूखे लोगों को बमुश्किल एक वक़्त की रोटी नसीब होती है या नहीं? खाने को लेकर चाहत बढ़ती जाना और उस चाहत का बेलगाम हो जाना एक तरह की बीमारी है, लेकिन वक़्त रहते इसे नियंत्रित करना एक चुनौती है. कई लोगों का मन खाने के विभिन्न व्यंजनों की ओर भागता है, जबकि उनके पेट की अपनी एक सीमा है. जब कभी हम भाई अधिक खाने की ज़िद्द से अपनी थाली भरते थे तो मुझे याद है कि पिताजी टोकते हुए कहते थे कि 'शरीर अपनी आवश्यकतानुसार ही खुराक लगा, जबकि ज्यादा मात्रा में खान ठूंसने पर वह 'पेट ख़राब होने के माध्यम' अथवा 'ओमिटिंग' के रास्ते बाहर निकाल देगा'! जाहिर है, यह भी एक तरह से खाने के साथ-साथ स्वास्थ्य की बर्बादी भी है. अपने खाने-पीने की आदतों को कंट्रोल न करना 'ईटिंग डिसऑर्डर' की श्रेणी में आता है. हमें इससे जल्द से जल्द रोकना चाहिए. यही उचित है अपने स्वास्थ्य के लिए भी और ...
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Hindi article on wastage of foods and water, Mithilesh