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कथा

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 कवि केदारनाथ अग्रवाल के लिए हंसते-हंसते, बातें करते कैसे हम चढ़ गए धड़ाधड़ बम्बेश्वर के सुभग शिखर पर मुन्ना रह-रह लगा ठोकने तो टुनटुनिया पत्थर बोला — हम तो हैं फ़ौलाद, समझना हमें न तुम मामूली

जंगल में लगी रही आग लगातार तीन दिन, दो रात निकटवर्ती गुफ़ावाला बाघ का खानदान विस्थापित हो गया उस झरने के निकट उसकी गुफ़ा भी दावानल के चपेट में आ गई थी... वो अब किधर भटक रहा होगा ? रात को

सुन रहा हूँ पहर-भर से अनुरणन — मालवाही खच्चरों की घण्टियों के निरन्तर यह टिलिङ्-टिङ् टिङ् टिङ्-टिङा-टङ्-टाङ् ! सुन रहा हूँ अनुरणन ! और सब सोए हुए हैं उमा, सोमू, बसन्ती, शेखर, कमल... सभी तो

एक-एक को गोली मारो जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ ... हाँ-हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो बारूदी छर्रे से मेरी सद्गति हो ... मैं भी यहाँ शहीद बनूँगा अस्पताल की खटिया पर क्यों प्राण तजूँगा हाँ

गोआ तट का मैं मछुआरा सागर की सद्दाम तरंगे मुझ से कानाफूसी करतीं नारिकेल के कुंज वनों का मैं भोला-भाला अधिवासी केरल का वह कृषक पुत्र हूँ ‘ओणम’ अपना निजी पर्व है नौका-चालन का प्रतियोगी मैं धरत

गाल-गाल पर दस-दस चुम्बन देह-देह को दो आलिंगन आदि सृष्टि का चंचल शिशु मैं त्रिभुवन का मैं परम पितामह व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माता मैं ऋचा-ऋचा का उद्गाता मैं कहाँ नहीं हूँ, कौन नहीं हूँ अजी य

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है। गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब यह विचार-वैभव सब दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब म

विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं ...पत्थर ढोते

दीखता त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से अनाम, अरूप और अनाकार असीम एक कुहरा, भस्मीला अन्धकार फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; लटकती हैं मटमैली ऊँची-ऊँची लहरें मैदानों पर सभी ओर लेकिन उस कुहरे से

रात, चलते हैं अकेले ही सितारे। एक निर्जन रिक्त नाले के पास मैंने एक स्थल को खोद मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर खोदा और खोदा और दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर। सुनाई दे रहे थे स्वर – बड

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती, जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर बहुत स

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है। मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है, अकेले में साहचर्य का हाथ है,

मैं उनका ही होता जिनसे मैंने रूप भाव पाए हैं। वे मेरे ही हिये बंधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊ

मेरे जीवन की धर्म तुम्ही-- यद्यपि पालन में रही चूक हे मर्म-स्पर्शिनी आत्मीये! मैदान-धूप में-- अन्यमनस्का एक और सिमटी छाया-सा उदासीन रहता-सा दिखता हूँ यद्यपि खोया-खोया निज में डूबा-सा भूला-सा

मुझे नहीं मालूम मेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित स

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीँ... प्रलम्बिता अंगार रेख-सा खिंचा अपार चर्म वक्ष प्राण का पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह जीवनानुभूति की गभीर भूमि में। अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों

सभी जीवों की एकता: करुणा और बुद्धिमानी की कहानी एक समय की बात है, भारत के एक छोटे से गाँव में राम नाम का एक युवक रहता था। राम अपने तेज दिमाग और तेज बुद्धि के लिए पूरे गांव में जाने जाते थे, और उनसे अ

"द हीलर ऑफ़ द फ़ॉरेस्ट: ए टेल ऑफ़ करेज एंड मैजिक" बहुत समय पहले, यूरोप के घने जंगलों में बसे एक छोटे से गाँव में अन्ना नाम की एक महिला रहती थी। वह एक मरहम लगाने वाली और दाई थी, जो अपनी बुद्धि और दयाल

"द हीलर ऑफ़ द फ़ॉरेस्ट: ए टेल ऑफ़ करेज एंड मैजिक" बहुत समय पहले, यूरोप के घने जंगलों में बसे एक छोटे से गाँव में अन्ना नाम की एक महिला रहती थी। वह एक मरहम लगाने वाली और दाई थी, जो अपनी बुद्धि और दयाल

"द डायमंड हीस्ट: ए मुंबई मिस्ट्री" मुंबई, भारत की हलचल भरी सड़कों पर एक अपराध किया गया था। प्रसिद्ध संग्रहालय से एक बेशकीमती हीरा चोरी हो गया था, और पुलिस चकित थी। हीरा लाखों रुपये का था, और यह संग

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