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कथा

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अग्निबीज तुमने बोए थे रमे जूझते, युग के बहु आयामी सपनों में, प्रिय खोए थे ! अग्निबीज तुमने बोए थे तब के वे साथी क्या से क्या हो गए कर दिया क्या से क्या तो, देख–देख प्रतिरूपी छवियाँ पहले

बरफ़ पड़ी है सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है सजे-सजाए बंगले होंगे सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू मैंने सप

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है मेरी भी आभा है इसमें भीनी-भीनी खुशबूवाले रंग-बिरंगे यह जो इतने फूल खिले हैं कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था कल इनको मेरे स

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी–सी नैया

काले-काले ऋतु-रंग काली-काली घन-घटा काले-काले गिरि श्रृंग काली-काली छवि-छटा काले-काले परिवेश काली-काली करतूत काली-काली करतूत काले-काले परिवेश काली-काली मँहगाई काले-काले अध्यादेश रचनाकाल :

मैंने देखा : दो शिखरों के अन्तराल वाले जँगल में आग लगी है ... बस अब ऊपर की मोड़ों से आगे बढ़ने लगी सड़क पर मैंने देखा : धुआँ उठ रहा घाटी वाले खण्डित-मण्डित अन्तरिक्ष में मैंने देखा : आग लगी

यहाँ, गढ़वाल में कोटद्वार-पौड़ी वाली सड़क पर ऊपर चक्करदार मोड़ के निकट मकई के मोटे टिक्कड़ को सतृष्ण नज़रों से देखता रहेगा अभी इस चालू मार्ग पर गिट्टियाँ बिछाने वाली मज़दूरिन माँ अभी एक बजे आ

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ, सात साल की बच्ची का पिता तो है! सामने गियर से उपर हुक से लटका रक्खी हैं काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी बस की रफ़्तार के मुताबिक हिलती रहती हैं… झुककर मैंने प

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कुण्ठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट जिनके अभिमन्त्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी-सी नै

"ओ रे प्रेत -" कडककर बोले नरक के मालिक यमराज -"सच - सच बतला ! कैसे मरा तू ? भूख से , अकाल से ? बुखार कालाजार से ? पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ? कैसे मरा तू , सच -सच बतला !" खड़ खड़ खड़ खड़

बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !           कैसे फ़ासिस्टी प्रभुओं की --           गला रहा है दाल ठाकरे !       अबे सँभल जा, वो पहुँचा बाल ठाकरे !           सबने हाँ की, कौन ना करे !          छिप जा, मत तू

प्रतिबद्ध हूँ संबद्ध हूँ आबद्ध हूँ प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ – बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त – संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ... अविवेकी भीड़ की ‘भेड़या-धसान’ के खिला

मायावती मायावती दलितेन्द्र की छायावती छायावती जय जय हे दलितेन्द्र प्रभु, आपकी चाल-ढाल से दहशत में है केन्द्र जय जय हे दलितेन्द्र आपसे दहशत खाए केन्द्र अगल बगल हैं पण्डित सुखराम जिनके मुख म

नागार्जुन ने यह कविता आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी थी। ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है वो बेचारी अगली गति-विध

मानसून उतरा है जहरी खाल की पहाड़ियों पर बादल भिगो गए रातोंरात सलेटी छतों के कच्चे-पक्के घरों को प्रमुदित हैं गिरिजन सोंधी भाप छोड़ रहे हैं सीढ़ियों की ज्यामितिक आकॄतियों में फैले हुए खेत

वो गया वो गया बिल्कुल ही चला गया पहाड़ की ओट में लाल-लाल गोला सूरज का शायद सुबह-सुबह दीख जाए पूरब में शायद कोहरे में न भी दीखे ! फ़िलहाल वो डूबता-डूबता दीख गया ! दिनान्त का आरक्त भास्कर

ध्यामग्न वक-शिरोमणि पतली टाँगों के सहारे जमे हैं झील के किनारे जाने कौन हैं ‘इष्टदेव’ आपके ! ‘इष्टदेव’ है आपके चपल-चटुल लघु-लघु मछलियाँ... चाँदी-सी चमकती मछलियाँ... फिसलनशील, सुपाच्य... सवे

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