खाप की माप
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लगा बैठे बिना ही मन, सँभलते राह में साथी
दिलों पर ज़ोर किसका है, कहो किसका कभी भी था?
मगर ललकार सहने की, कभी सोची नहीं शायद
युगल को बाँध ठूँठों में, अवज्ञा खाप का जो था।
ज़मीं थी वासनाओं की, कमी कब यातनाओं की?
कि निर्मम हाथ में चाबुक, दुसूती शर्ट था उसका;
लगे थे काट खाने को, अभी से ही लगे कहने
कि बोटी रान की उसकी, लचीला था बड़ा चस्का।
अकेले गाँव की चौखट, खड़ी थी शर्म से पानी
झुके थे बालकों के सर, मगर मौसम जगीला था;
लहू के रंग में रँगतीं, शतक के पार की नज़रें
गली में सोख यौवन का, कुटिल कातिल रँगीला था।
घरों में बंद सहमी सी, सिसकती जाति नारी की
मुखों पर कंप था उनके, मुखौटा शील-रोदन था;
लिपट-छिपती घरों में ही, दरिंदों की बहू-बेटी
निरा अब लाज भी ओझल, झरोखों पर बिलखता था।
महकमे में फिरी सजकर, सवेरे न्याय की भेरी
गलीचों में गया रौंदा, कुसुम वह रात भर चीखा;
कि कूचों में दिखा खिलता, मनोहर ख़्वाब उनका था
गिला किससे करे दाता, सुबह को था बड़ा फीका।
जिरह बेशर्म सा हँसता, धमाकेदार गाता था
पथिक मसरूफ़ बैठा था, कहाँ-कब धाम माँगा था?
महज़ दो चार बातें ही, सुनीं थीं न्याय देवी ने
सज़ा मिल ही गई उसको, कि जिसने न्याय माँगा था।
...“निश्छल”