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खाप की माप

6 सितम्बर 2018

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खाप की माप

✒️

लगा बैठे बिना ही मन, सँभलते राह में साथी

दिलों पर ज़ोर किसका है, कहो किसका कभी भी था?

मगर ललकार सहने की, कभी सोची नहीं शायद

युगल को बाँध ठूँठों में, अवज्ञा खाप का जो था।


ज़मीं थी वासनाओं की, कमी कब यातनाओं की?

कि निर्मम हाथ में चाबुक, दुसूती शर्ट था उसका;

लगे थे काट खाने को, अभी से ही लगे कहने

कि बोटी रान की उसकी, लचीला था बड़ा चस्का।


अकेले गाँव की चौखट, खड़ी थी शर्म से पानी

झुके थे बालकों के सर, मगर मौसम जगीला था;

लहू के रंग में रँगतीं, शतक के पार की नज़रें

गली में सोख यौवन का, कुटिल कातिल रँगीला था।


घरों में बंद सहमी सी, सिसकती जाति नारी की

मुखों पर कंप था उनके, मुखौटा शील-रोदन था;

लिपट-छिपती घरों में ही, दरिंदों की बहू-बेटी

निरा अब लाज भी ओझल, झरोखों पर बिलखता था।


महकमे में फिरी सजकर, सवेरे न्याय की भेरी

गलीचों में गया रौंदा, कुसुम वह रात भर चीखा;

कि कूचों में दिखा खिलता, मनोहर ख़्वाब उनका था

गिला किससे करे दाता, सुबह को था बड़ा फीका।


जिरह बेशर्म सा हँसता, धमाकेदार गाता था

पथिक मसरूफ़ बैठा था, कहाँ-कब धाम माँगा था?

महज़ दो चार बातें ही, सुनीं थीं न्याय देवी ने

सज़ा मिल ही गई उसको, कि जिसने न्याय माँगा था।

...“निश्छल”

रेणु

रेणु

प्रिय अमित पहले भी टिप्पणी की थी पर दिख नहीं रही | आपकी रचना को आज का लेख चुने जाने पर मन को अपार हर्ष हुआ | हार्दिक बधाई और शुभकामनायें | अपने ब्लॉगर सहयोगियों का ये सम्मान देख कर बहुत ख़ुशी होती है | अपने ब्लॉग का लिंक भी साथ डालो

8 सितम्बर 2018

रेणु

रेणु

अकेले गाँव की चौखट, खड़ी थी शर्म से पानी झुके थे बालकों के सर, मगर मौसम जगीला था; लहू के रंग में रँगतीं, शतक के पार की नज़रें गली में सोख यौवन का, कुटिल कातिल रँगीला था।!!!!!!!! प्रिय अमित ०० खाप पंचायतों के निरंकुश रवैये पर ये अत्यंत संवेदनशील कथ्य-काव्य बहुत ही लाजवाब है जो सराहना से परे है | गाँव की चौखट को शर्मिंदा होना चाहिए जो असहाय , निरीह प्रेमियों का कत्लेआम देख मौन रहती है | पढकर मैं बहुत भावुक हो गयी | नाजाने क्यों कभीना देख कर भी शब्दों में वो दृश्य जीवंत हो गये !!!!!! इस मर्मस्पर्शी सराहना से परे रचना के लिए बस मेरी शुभकामनायें | माँ सरस्वती आपकी लेखनी को बुरी नजर से बचाए |

8 सितम्बर 2018

रेणु

रेणु

प्रिय अमित--- खाप पंचायतों की मनमानी और उनकी अवज्ञा से उपजी खीज के फलस्वरूप हुए मर्मान्तक अत्याचार को बहुत ही सटीकता से शब्दांकित कर आपने अपनी प्रतिभा का एक बहुत ही अनुपम सुबूत दिया है | अकेले गाँव की चौखट, खड़ी थी शर्म से पानी झुके थे बालकों के सर, मगर मौसम जगीला था; लहू के रंग में रँगतीं, शतक के पार की नज़रें गली में सोख यौवन का, कुटिल कातिल रँगीला था!!!!!!! इस में जोड़ना चाहूंगी---'' कि क्षमा बडन को चाहिए छोटन को उत्पात '' का मन्त्र भूलते येलोग , निरीह और असहाय प्रेमियों पर अपनी ताकत आजमाते मानवता को शर्मसार करते हैं | | सच में गाँव की चौखट को शर्मिंदा तो होना ही चाहिए |इतने बड़े अधर्म का मूक साक्षी जो बन रहती है | इस संवेदन शील सामाजिक दर्द को उकेरती रचना के लिए आप बदह्यी और सराहना के पात्र हैं | सस्नेह आभार आपका |

8 सितम्बर 2018

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रचनाएँ
Amitnishchchal
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हिंदी पद्य के कोरे पन्ने
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आहत ठुमके

16 अगस्त 2018
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मानवता की हार

22 अगस्त 2018
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मानवता की हार ✒️ विवश मनुज को तीर लगानेभोजन, वस्त्र, नीर पहुँचाने,भगवन रूप बदलकर आख़िरदेवदूत बन आए हैं;और निकम्मे से दिखते जोवीर, बंधु-बांधव सारे वोनाना प्रकार सहयोग बढ़ानेमुद्रा-द्रव्य भी लाये हैं।व्यथा बढ़ी है धरती परइक नहीं मनुज के जाति की,वक्त ज़रा सा भी हो साहिबकुछ बात कहो इक बात की;जीव-जंतु जो जं

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खाप की माप

6 सितम्बर 2018
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खाप की माप✒️लगा बैठे बिना ही मन, सँभलते राह में साथीदिलों पर ज़ोर किसका है, कहो किसका कभी भी था?मगर ललकार सहने की, कभी सोची नहीं शायदयुगल को बाँध ठूँठों में, अवज्ञा खाप का जो था।ज़मीं थी वासनाओं की, कमी कब यातनाओं की?कि निर्मम हाथ में चाबुक, दुसूती शर्ट था उसका;लगे थे काट खाने को, अभी से ही लगे कहनेकि

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कितनी वांछित है?

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कितनी वांछित है?✒️युवा वर्ग जो हीर सर्ग है, मर्म निहित करता संसृति काअकुलाया है अलसाया है, मोह भरा है दुर्व्यसनों कापिता-पौत्र में भेद नहीं है, नैतिकता ना ही कुदरत का;ऐसी बीहड़ कलि लीला में, आग्नेय मैं बाण चलाऊँकहो मुरारे ब्रह्म बाण की, महिमा तब कितनी वांछित है?जो भविष्य को पाने चल दे, वर्तमान का भा

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रद्दी में फेंकी यादों को

29 सितम्बर 2018
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रद्दी में फेंकी यादों को✒️रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।शालीन घटा की छावोंदो पल सोने को जीतासाँसों की धुंध नहानेबेसब्र, समय को सीता;रेशम करधन ललचाकरस्वप्निल आँखें ये झाँकेंछुपकर जूड़ों से बालीकी चमक दिखे जब काँधें।घाटों पर घुट घुट रहा नित्य पर मंजिल नहीं बनाया हूँ,रद्दी में फेंक

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पन्नों पर भी पहरे हैं

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पन्नों पर भी पहरे हैं✒️ बैठ चुका हूँ लिखने को कुछ, शब्द दूर ही ठहरे हैं,ज़हन पड़ा है सूना-सूना, पन्नों पर भी पहरे हैं।प्रेम किया वर्णों सेभावों कलम डुबोयासींची संस्कृति अपनीपूरा परिचय बोया,झंकृत अब मानस हैचमक रही है स्याहीपद्य सृजन में ठहराभटका सा एक राही;उभरें नहीं विचार पृष्ठ पर, सोये वे भी गहरे

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अगर पुरानी मम्मी होतीं...

21 अक्टूबर 2018
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https://amitnishchhal.blogspot.com/?m=1 मकरंदअगर पुरानी मम्मी होतीं... ✒️बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार कोदुखी बहुत है कल संध्या से, क्या पाती दुत्कार वो?अगर पुरानी मम्मी होतीं...अगर पुरानी मम्मी होतींक्या वो ऐसे डाँट सुनातीं?बात-बात पर इक बाला कोकह के क्या वह बाँझ बुलातीं?पापा जो अब च

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बिखरो मेरे ज़ज़्बातों

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बिखरो मेरे ज़ज़्बातों✒️बिखरो मेरे ज़ज़्बातोंतुम तो धीरे-धीरे,करुण स्वरों को मेरे अब तकहर जीवित ठुकराया है।रखा सुरक्षित जिन्हें जन्म से, हीरे-मोती से शृंगारितचक्षु तले निशि-दिन, संध्या को, रखा सवेरे भी सम्मानित;स्वर्ण सलाखों के पिंजर में, मुझे छोड़कर क्यों जाते हो?मुड़कर देखो रंज-रुदन को, उपहासों से क्या प

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वसंत की याद

21 जनवरी 2019
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वसंत की याद✒️ अक्षुण्ण यौवन की सरिता में,पानी का बढ़ आनाकमल-कमलिनी रास रचायें,खग का गाना गाना;याद किया जब बैठ शैल पर,तालाबों के तीरेमौसम ने ली हिचकी उठकर,नंदनवन में धीरे।नाद लगाई पैंजनियों ने,चिट्ठी की जस पातीझनक-झनक से रति शरमायी,तितली गाना गाती;जगमग-जगमग दमक उठा जब,रवि किंशुक कुसुमों सामानस, आभामं

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लेखनी! उत्सर्ग कर अब

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लेखनी! उत्सर्ग कर अब✒️लेखनी! उत्सर्ग कर अब, शांति को कब तक धरेगी?जब अघी भी वंद्य होगा, हाथ को मलती फिरेगी।साथ है इंसान का गर, हैं समर्पित वंदनायें;और कलुषित के हनन को, स्वागतम, अभ्यर्थनायें।लेखनी! संग्राम कर अब, यूँ भला कब तक गलेगी?हों निरंकुश मूढ़ सारे, जब उनींदी साधन

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कंदराओं में पनपती सभ्यताओं

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कंदराओं में पनपती सभ्यताओं✒️हैं सुखी संपन्न जग में जीवगण, फिर काव्य की संवेदनाएँ कौन हैं?कंदराओं में पनपती सभ्यताओं, क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?आयु पूरी हो चुकी है आदमी की,साँस, या अब भी ज़रा बाकी रही है?मर चुकी इंसानियत का ढेर है यह,या दलीलें बाँचनी बाकी रही हैं?हैं मगन इस सृष्टि के वासी सभी गर,

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कविताओं की नक्काशी से

24 जुलाई 2019
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कविताओं की नक्काशी से✒️कर बैठा प्रेम दुबारा मैं, कविताओं की नक्काशी सेचिड़ियों की आहट में लिपटी, फूलों की मधुर उबासी से।संयम से बात बनी किसकी,किसकी नीयत स्वच्छंद हुई?दुनियादारी में डूब मराचर्चा उसकी भी चंद हुई।कौतुक दिखलाने आया है, बस एक मदारी काशी सेचिड़ियों की आहट में लिपटी, फूलों की मधुर उबासी से।ज

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चाँद की दीवानगी

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चाँद की दीवानगी-१✒️छिप गई है चाँदनी भी, रात के आगोश में यूँओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?मस्त अपनी ही लगन में, मस्तियों का वह मुसाफ़िरओस की संदिग्ध चादर, ओढ़कर पथ पर बढ़ा है।बादलों के गुप्तचर हैं, राह में जालें बिछाए,चाँद, टेढ़ा है ज़रा सा, और थोड़ा नकचढ़ा है।है रचा इतिहास जिसने, द्वैध संबंधों

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अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ

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अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ✒️अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँमुझे उजालों से भी नफ़रत कभी नहीं थी,सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थीमुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।एक प्रहर में जलकर कांति बिखेरी मैंनेऔर दूसरे वक्त तृषित हो मुरझाया था,अंतकाल में देहतुल्य जल गयी वर्तिकालौ को अपने अंतस में

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20 नवम्बर 2019
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लहरों जैसे बह जाना

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जीवन की अबुझ पहेली

15 दिसम्बर 2020
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जीवन की अबुझ पहेली✒️जीवन की अबुझ पहेलीहल करने में खोया हूँ,प्रतिक्षण शत-सहस जनम कीपीड़ा ख़ुद ही बोया हूँ।हर साँस व्यथा की गाथाधूमिल स्वप्नों की थाती,अपने ही सुख की शूलीअंतर में धँसती जाती।बोझिल जीवन की रातेंदिन की निर्मम सी पीड़ा,निष्ठुर विकराल वेदनासंसृति परचम की बीड़ा।संधान किये पुष्पों केमैं तुमको पु

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मुझमें, मौन समाहित है

12 अगस्त 2021
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मुझमें, मौन समाहित है✒️जब खुशियों की बारिश होगीनृत्य करेंगे सारेलेकिन,शब्द मिलेंगे तब गाऊँगामुझमें, मौन समाहित है।अंतस् की आवाज़ एक हैएक गगन, धरती का आँगन।एक ईश निर्दिष्ट सभी मेंएक आत्मबल का अंशांकन।।बोध जागरण होगा जिस दिनबुद्ध बनेंगे सारेलेकिन,चक्षु खुलेंगे तब आऊँगामुझमें, तिमिर समाहित है।वंद्य चरण

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