लेखनी! उत्सर्ग कर अब
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लेखनी! उत्सर्ग कर अब, शांति को कब तक धरेगी?
जब अघी भी वंद्य होगा, हाथ को मलती फिरेगी।
साथ है इंसान का गर, हैं समर्पित वंदनायें;
और कलुषित के हनन को, स्वागतम, अभ्यर्थनायें।
लेखनी! संग्राम कर अब, यूँ भला कब तक गलेगी?
हों निरंकुश मूढ़ सारे, जब उनींदी साधना हो;
श्लोक, पन्नों पर नहीं जब, कागज़ों पर वासना हो।
“नाश हो अब सृष्टि का रब”, चीखकर यह कब कहेगी?
अंत में सठ याचना के, भी मिले गर मृत्यु निश्चित;
दूर रहना श्रेयवर्धक, मत, युगों से है सुनिश्चित।
काट उँगली को तिलक कर, सामना, कह कब करेगी?
किंतु, क्या रण छोड़ देना, श्रेष्ठ निर्णय है विकल्पित?
या विलापों से प्रलय को, ध्येय है, करना निमंत्रित?
लेखनी! अब युद्ध कर ले, अट्टहासें कब तजेगी?
...“निश्छल”