वसंत की याद
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अक्षुण्ण यौवन की सरिता में,
पानी का बढ़ आना
कमल-कमलिनी रास रचायें,
खग का गाना गाना;
याद किया जब बैठ शैल पर,
तालाबों के तीरे
मौसम ने ली हिचकी उठकर,
नंदनवन में धीरे।
नाद लगाई पैंजनियों ने,
चिट्ठी की जस पाती
झनक-झनक से रति शरमायी,
तितली गाना गाती;
जगमग-जगमग दमक उठा जब,
रवि किंशुक कुसुमों सा
मानस, आभामंडित होकर,
धवल नीर बन बरसा;
याद किया जब बैठ शैल पर,
तालाबों के तीरे
मौसम ने ली हिचकी उठकर,
नंदनवन में धीरे।
कुछ, ऐसी किरणें लेकर तब,
ऋतु बसंत का आना
पोर-पोर में दर्द मधुर सा,
आतप का सकुचाना;
हर्षित कोंपल, मुकुल सौरभित,
हुवे जीव-वश ऐसे
मन-मृणाल, रस अब टपकाता,
मस्त गजों के जैसे;
याद किया जब बैठ शैल पर,
तालाबों के तीरे
मौसम ने ली हिचकी उठकर,
नंदनवन में धीरे।
...“निश्छल”