✒️
विवश मनुज को तीर लगाने
भोजन, वस्त्र, नीर पहुँचाने,
भगवन रूप बदलकर आख़िर
देवदूत बन आए हैं;
और निकम्मे से दिखते जो
वीर, बंधु-बांधव सारे वो
नाना प्रकार सहयोग बढ़ाने
मुद्रा-द्रव्य भी लाये हैं।
व्यथा बढ़ी है धरती पर
इक नहीं मनुज के जाति की,
वक्त ज़रा सा भी हो साहिब
कुछ बात कहो इक बात की;
जीव-जंतु जो जंगल में थे
रमे बसे थे मंगल में थे,
उन्हें उबारने को भी कोई
नेह-नीर के पार गए हैं?
या मानव अपनी मानवता
में ही ख़ुद से हार गये हैं?
...“निश्छल”