कितनी वांछित है?
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युवा वर्ग जो हीर सर्ग है, मर्म निहित करता संसृति का
अकुलाया है अलसाया है, मोह भरा है दुर्व्यसनों का
पिता-पौत्र में भेद नहीं है, नैतिकता ना ही कुदरत का;
ऐसी बीहड़ कलि लीला में, आग्नेय मैं बाण चलाऊँ
कहो मुरारे ब्रह्म बाण की, महिमा तब कितनी वांछित है?
जो भविष्य को पाने चल दे, वर्तमान का भान नहीं हो
भूतकाल में दैव प्रेरणा, क्षुधा कभी आराम नहीं हो,
अतुलित चाहत की बारातें, जिसके जीवन में सिर-माथे
सुखी रहे बस नाम मात्र का, उसको ध्यावें, यम आघातें,
नये दौर ने नये सृजन में, सृजित रीति ही कर डाला तो; कहो मुरारे सृष्टि रीति की, मर्यादा कितनी वांछित है?
जनता चोंचें खोल-खोलकर, भ्रमित दृगों से तोल-तोलकर
कुर्सी के भूखे भिखमंगों, को लालचवश बोल-बोलकर
उनके ही फैलाये जालों, में मदिरा में डूब-डूबकर;
शाम सवेरे जब भी देखो, कुकडूँ-कूँ के राग सुनाये
कहो मुरारे गीता की वह, राजनीति कितनी वांछित है?
प्रजा, पुत्र के तुल्य है होती, माने जो राजा महान है
अपने खून-पसीने पाले, संज्ञा ही वह सर्वनाम है
कुंठित हो स्वेच्छाचारी जो, हाथों अपने, प्रजा प्रताड़े;
राजनीति के अधम चरण में, जब मानव, मानव को मारे
सत्ता के गलियारों में यह, मारपीट कितनी वांछित है?
कलि की मंदर महिमा में जब, कवि शब्दों का मान नहीं हो
कहो मुरारे ब्रह्मज्ञान की, महिमा तब कितनी वांछित है?
...“निश्छल”