जीवन की अबुझ पहेली
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जीवन की अबुझ पहेली
हल करने में खोया हूँ,
प्रतिक्षण शत-सहस जनम की
पीड़ा ख़ुद ही बोया हूँ।
हर साँस व्यथा की गाथा
धूमिल स्वप्नों की थाती,
अपने ही सुख की शूली
अंतर में धँसती जाती।
बोझिल जीवन की रातें
दिन की निर्मम सी पीड़ा,
निष्ठुर विकराल वेदना
संसृति परचम की बीड़ा।
संधान किये पुष्पों के
मैं तुमको पुकारता हूँ,
कातर ये नयन सहेजे
राहों को निहारता हूँ।
संवत्सर की बुनियादें
मिटते स्वप्नों की ओरी,
निशिदिन दृगंबु की बारिश
दिकहीन दृष्टि है कोरी।
शापित यह अंश समय का
जालों को पसारता है,
मानो अभिग्रसित करेगा
ऐसे यह दहाड़ता है।
कामना एक ही मेरी
यह सत्य, भ्रमित क्यों होता?
अनिबद्ध प्रलापित ख़ुद को
मैं देख स्वयं ही रोता।
सुंदर सपनों की दुनिया
अपनी ही ओर बुलाती,
प्रत्यर्थ पूछता तुमसे
तुम क्यों इतनी सकुचातीं।
संभ्रांत विरह के कोने
यह लोकचातुरी बंधन,
अतिदग्ध हृदय के टुकड़े
भावुक विनीत अभ्यर्थन।
संताप अधर पर छाये
किस स्याही से अंकित कर?
यह व्यथा निराली ऐसी
लिख दूँ गिरि के प्रस्तर पर।
इस एक मचलते मन के
कौतूहल की परिभाषा,
नीरस जीवन-रेखा पर
वर्तुल किरणों की आशा।
तुम उद्यत दिग्विजयी हो
मैं हारा हुआ खिलाड़ी,
यह एक लालसा मुझको
साबित कर चुकी अनाड़ी।
मैं समझा नहीं अभी तक
ज्यामिति की सरल इकाई,
विस्तृत परिमाप तुम्हारा
मापूँ मैं वर्ण अढ़ाई।
हर भावों को अंगीकृत
करतीं तुम वृत्तों जैसी,
प्रणय व्यंजना करने में
यह उदासीनता कैसी?
अरुणोदय की पटरानी
अँधियारों का मैं वासी,
द्युतिमान वसन तुम्हारा
तम का मैं प्रथम निवासी।
सुकुमार भावना ऐसी
जैसे स्नेहिल परिपाटी,
मेरे ही जीवनपथ पर
यह कैसी कोसाकाटी?
...“निश्छल”