बिखरो मेरे ज़ज़्बातों
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बिखरो मेरे ज़ज़्बातों
तुम तो धीरे-धीरे,
करुण स्वरों को मेरे अब तक
हर जीवित ठुकराया है।
रखा सुरक्षित जिन्हें जन्म से, हीरे-मोती से शृंगारित
चक्षु तले निशि-दिन, संध्या को, रखा सवेरे भी सम्मानित;
स्वर्ण सलाखों के पिंजर में, मुझे छोड़कर क्यों जाते हो?
मुड़कर देखो रंज-रुदन को, उपहासों से क्या पाते हो?
उपहासों से बेधो मन को
तुम तो धीरे-धीरे,
अधम साँस को मेरे सुन लो
हर जीवित ठुकराया है।
मधुर गीत को गाने वाले, क्रंदन गाना सीख गये हैं
ऋजु हृदयों के ज्वारों से ही, भाव सभी अब भींग गये हैं;
खुशहाली में पलनेवाले, दहक पान कर, करें गुजारा
दहन हुवे जो भाव चित्त के, दावानल पर रीझ गये हैं।
विक्षत करो संत्रस्त कलेजा
तुम तो धीरे-धीरे,
आकांक्षाएँ मेरी अब तक
हर जीवित ठुकराया है।
घोर नींद में स्वप्न मुद्दई, मुझको देते रहे सहारे
ज्ञापित दिवस नहीं था उनको, दिवास्वप्न, वे बिना विचारे;
रुष्ट जगत की कटु कृपाण ने, काटा वहमों को जब जाकर
आहत होकर खड़े रिक्त अस, दुख सरिता पर कहीं किनारे।
ख़्वाबों मेरे, मरो डूबकर
तुम तो धीरे-धीरे,
इस अपात्र को अब तक आख़िर
हर जीवित ठुकराया है।
...“निश्छल”