आहत ठुमके
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पनघट पर तेरे ठुमकों ने, मरघट से मुझे पुकारा है;
कानों में छन से गूँज रही, यह अमर सुधा की प्याला है।
बेसुध सा सोता रहा सदा, अब ही तो जा कर जागा हूँ;
सौभाग्य प्राप्त हुआ मुझको, वैसे तो निरा अभागा हूँ।
तेरे दर्शन करने आयी, यह रूह युगों की प्यासी है;
कुदरत ने गोदी में रखकर, मेरे अरमान तराशी है।
चेतन के पतझड़ में आई, बेला वसंत की प्यारी सी;
इक बार बजा दे घुँघरू फिर, तानों में विस्मृति सारी सी।
मैं भूल चुका था सदियों से, नगमें अब वे ही गाता हूँ;
अँधियारों में है वास रहा, कब्रों में दीये जलाता हूँ।
दिखला दे छमकाती पायल, अभिलाषा मेरी चाहत की;
क्या पनघट पर इन ठुमकों को, अरमानें मेरी आहत कीं?
मैं क्षमा माँगता हूँ झुक कर, अभिनंदन, शीश नवाता हूँ;
जो नहीं गवारा है तुझको, मरघट में अपने जाता हूँ।
...“निश्छल”