रद्दी में फेंकी यादों को
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रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
शालीन घटा की छावों
दो पल सोने को जीता
साँसों की धुंध नहाने
बेसब्र, समय को सीता;
रेशम करधन ललचाकर
स्वप्निल आँखें ये झाँकें
छुपकर जूड़ों से बाली
की चमक दिखे जब काँधें।
घाटों पर घुट घुट रहा नित्य पर मंजिल नहीं बनाया हूँ,
रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
तुझको ही देख सिहरना
फिर ठंडी आहें भरना
बातें तुझसे करने के
भूचाल हृदय में धरना;
वो बंसी सी आवाजें
सुनने को बहुत तरसना
कानों में पड़ते वाणी
उस अमरबेल सा खिलना।
तेरी कुमकुम सी यादों के आगार बनाकर लाया हूँ,
रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
बातें वो दबें, उठें ना
बातों-बातों में सोचूँ
कंपित होते अधरों से
बातें ऐसे ही नोचूँ;
बदनाम गली के भौंरे
भुन जायें, देख सकें ना
चर्चे ये गली मोहल्ले
फैलें भी कभी कहीं ना।
इसलिये हिया को शिलाखंड से दबा-दबा कर लाया हूँ,
रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
जब तेरी ही चमकीली
नज़रों में डूब नहाये
अकुलाया मन पंछी था
बहु भाँति अधर मुस्काये;
रंगों में घुलकर मेरी
तुम मेरी, हूँ मैं तेरा
इक दूजे के सीने में
अब होता सदा सवेरा।
तेरी उन निर्झर प्रेम पंक्ति के बाण बनाकर लाया हूँ,
रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
फूल गिरें शव पर मेरे
शौक नहीं मुझको ऐसे
आँखें, झेलम-सिंधु बहें
कहो गुमाँ किसको, कैसे?
तेरी प्रेम पंक्तियों से
तर्पण भी मुझको मिलना
झुकते नैन इशारों से
टेसू फूलों का खिलना।
मैं अपने शव की यात्रा में बाहें पसार कर आया हूँ,
रद्दी में फेंकी यादों को कुछ, छिपा-छिपा कर लाया हूँ।
...“निश्छल”