चाँद की दीवानगी-१
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छिप गई है चाँदनी भी, रात के आगोश में यूँ
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
मस्त अपनी ही लगन में, मस्तियों का वह मुसाफ़िर
ओस की संदिग्ध चादर, ओढ़कर पथ पर बढ़ा है।
बादलों के गुप्तचर हैं, राह में जालें बिछाए,
चाँद, टेढ़ा है ज़रा सा, और थोड़ा नकचढ़ा है।
है रचा इतिहास जिसने, द्वैध संबंधों भरा वह
सूर्य! क्या थोड़ी ख़बर है, इंदु की इस बानगी का?
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
तंग हैं मलयानिलों के, कर्मठी ये झुंड सारे
और रजनी में, सनक सी, चाँद की अवप्रेरणा है।
वह छिपाती कौमुदी को, अंक में अपने समेटे,
ज्यों, तिमिर संबद्ध रखना, अर्चि की उत्प्रेरणा है।
सौम्य सा श्वेतांशु शोभित, तारकों की मंडली में
आसमाँ! मुखड़ा दिखाओ, चंद्र की आवारगी का।
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
...“निश्छल”
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चाँद की दीवानगी-२
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छिप गई है चाँदनी भी, रात के आगोश में यूँ
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
मानता संसार उसको, एक पीड़ित ज्वाल निशि में
किंतु वह, उज्ज्वल विहंगम, व्योम में तब जागता है।
सब पृथक उसको किये हैं, रात भर क्रंदन किया विधु
भोर में अज साथ उनके, लालची बन भागता है।
सृष्टि का अवतंस बोधित, सिंधुनंदन आदि से ही
ओ समंदर! ज्ञान है क्या, क्लेदु की बेचारगी का?
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
हाँ, मगर अपनी व्यथाएँ, भूलकर कर्तव्य निष्ठित
नीम रातों में अमा की, रागिनी को गुनगुनाता।
है बड़ा दुर्भाग्यशाली, चंद्रमा, शापित युगों से
पर, धरा की देहरी को, शशिप्रभा से वह सजाता।
है अनिश्चित रूप जिसका, श्वेत अंबुज सी छटा है
ध्येय क्या है चाँद की इस, अति कठिन परवानगी का?
ओ सितारों! भान है क्या, चाँद की दीवानगी का?
...“निश्छल”