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कुरूक्षेत्र

23 अप्रैल 2022

10 बार देखा गया 10

नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था

गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था

बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी

गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी

उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी

प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी

देख मोहन को न मोहे, कौन था इस भूमि में

रास की राका रूकी थी देख मुख ब्रजभूमि में !

धेनु-चारण-कार्य कालिन्दी-मनोहर-कूल में

वेणुवादन-कुंज में, जो छिप रहा था फूल में

भूलकर सब खेल ये, कर ध्यान निज पितु-मात का-

कंस को मारा, रहा जो दुष्ट पीवर गात का


थी इन्होने ही सही सत्रह कठोर चढ़ाइयाँ

हारकर भागा मगध-सम्राट कठिन लड़ाइयाँ

देखकर दौर्वृत्य यह दुर्दम्य क्षत्रिय-जाति का

कर लिया निश्चित अरिन्दन ने निपात अराति का

वीर वार्हद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को

और भी साम्राज्य-स्थापना की महा अभिसन्धि को

छोड़कर ब्रज, बालक्रीड़ा-भूमि, यादव-वृन्द ले

द्वारका पहुंचे, मधुप ज्यों खोज ही अरविन्द ले

सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पार्थ में

आप साम-भागी हुए तब पाण्डवों के स्वार्थ से

वीर वार्हद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से

आप संरक्षक हुए फिर पाण्डवों के, प्रीति से

केन्द्रच्युत नक्षत्र-मण्डल-से हुए राजन्य थे

आन्तरिक विद्वेष के भी छा गये पर्यन्य थे

दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन्न था

मलिनता थी व्याप्त कोई भी कहीं न प्रसन्न था

सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से

हो गई ऊषा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से

धर्मराज्य हुआ प्रतिष्ठित धर्मराज नरेश थे

इस महाभारत-गगन के एक दिव्य दिनेश थे

यो सरलता से हुआ सम्पन्न कृष्ण-प्रभाव से

देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से

हो गया सन्नद्ध तब शिशूपाल लड़ने के लिये

और था ही कौन केशव संग लड़ने के लिये

थी बड़ी क्षमता, सही इससे बहुत-सी गालियाँ

फूल उतने ही भरे, जितनी बड़ी हो डालियाँ

क्षमा करते, पर लगे काँटे खटकने और को

चट धराशायी किया तब पाप के शिरमौर को


पांडवों का देख वैभव नीच कौरवनाथ ने

द्युत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने

कुटिल के छल से छले जाकर अकिच्चन हो गये

हारकर सर्वस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये

कष्ट से तेरह बरस कर वास कानन-कुंज में

छिप रहे थे सूर्य-से जो वीर वारिद-पुंज में

कृष्ण-मारूत का सहारा पा, प्रकट होना पड़ा

कर्मं के जल में उन्हें निज दुःख सब धोना पड़ा

आप अध्वर्य्य हुए, ब्रह्म यधिष्ठिर को किया

कार्य होता का धनंजय ने स्वयं निज कर लिया

धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ में सच्ची स्त्रुवा

उस महारण-अग्नि में सब तेज-बल ही घी हुवा

बध्य पशु भी था सुयोधन, भार्गवादिक मंत्र थे

भीम के हुंकार ही उद्गीथ के सब तंत्र थे

रक्त-दुःशासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से

कृष्ण ने दीक्षित किया था धनुवैंदिक रीति से

कौरवादिक सामने, पीछे पृथसुत सैन्य है

दिव्य रथ है बीच में, अर्जुन-हृदय में दैन्य है

चित्र हैं जिसके चरित, यह कृष्ण रथ से सारथी

चित्र ही-से देखते यह दृश्य वीर महारथी

मोहनी वंशी नहीं है कंज कर में माधुरी

रश्मि है रथ की, प्रभा जिसमें अनोखी है भरी

शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से ब्रजभूमि में

नीरधर-सी धीर ध्वनि का शंख अब रणभूमि में

नील तनु के पास ऐसी शुभ्र अश्वों की छटा

उड़ रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर घटा

स्वच्छ छायापथ-समीप नवीन नीरद-जाल है

या खड़ा भागीरथी-तट फुल्ल नील तमाल है

छा गया फिर मोह अर्जुन को, न वह उत्साह था

काम्य अन्तःकरण में कारूण्य-नीर-प्रवाह था

‘क्यों करें बध वीर निज कुल का सड़े-से स्वार्थ से

कर्म यह अति घोर है, होगा नहीं यह रथ के वहाँ

सव्यासाची का मनोरथ भी चलाते थे वहाँ

जानकर यह भाव मुख पर कुछ हँसी-सी छा गई

दन्त-अवली नील घन की वारिधारा-सी हुई

कृष्ण ने हँसकर कहा-‘कैसी अनोखी बात है

रण-विमुख होवे विजय ! दिन में हुई कब रात है

कयह अनार्यों की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने

धर्मच्युत होना बताया एक छोटे स्वार्थ ने

क्यों हुए कादर, निरादर वीर कर्माें का किया

सव्यसाची ने हृदय-दौर्बल्य क्यों धारण किया

छोड़ दो इसको, नहीं यह वीन-जन के योग्य है

युद्ध की ही विजय-लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है

रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल-मान के

यह सभी परिवार अपने पात्र हैं सम्मान के

किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी

काल के ही गाल में मरकर पडे़ हैं ये कभी

नर न कर सकत कभी, वह एक मात्र निमित्त है

प्रकृति को रोके नियति, किसमें भला यह वित्त है

क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी

क्या न होंगे और आगे वीर ये सेनप सभी

आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी मान लो

नित्य चेतनसूत्र की गुरिया सभी को जान लो

ईश प्रेरक-शक्ति है हृद्यंत्र मे सब जीव के

कर्म बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के

कर्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये

पर न फल पर कर्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये

कर रहा हूँ मैं, करूँगा फल ग्रहण, इस ध्यान से

कर रहा जो कर्म, तो भ्रान्त है अज्ञान से

मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रान्त है

ईश से विनियुक्त जीव सुयंत्र-सा अश्रान्त है

है वही कत्त, वहीं फलभोक्ता संसार का

विश्व-क्रीड़ा-क्षेत्र है विश्वेश हृदय-उदार का

रण-विमुख होगे, बनोगे वीर से कायर कहो

मरण से भारी अयश क्यों दौड़कर लेना चहो

उठ खड़े हो, अग्रसर हो, कर्मपथ से मत डरो

क्षत्रियोचित धर्म जो है युद्ध निर्भय हो करो

सुन सबल ये वाक्य केशव के भरे उत्साह स

तन गये डोरे दृगों के, धनुरूष के, अति चाह से

हो गये फिर तो धनजंय से विजय उस भूमि में

है प्रकट जो कर दिखाया पार्थ ने रणभूमि में

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रचनाएँ
कानन-कुसुम
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कानन कुसुम हिन्दी भाषा के कवि, लेखक और उपन्यासकार जयशंकर प्रसाद की एक काव्य कृति है। इसका प्रथम संस्करण १९१३ ई॰ में प्रकाशित हुआ था जिसमें ब्रजभाषा की कविताएँ भी मिश्रित थीं। सन् १९१८ ई॰ में इसका दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ।
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प्रभो

20 अप्रैल 2022
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विमल इन्दु की विशाल किरणें प्रकाश तेरा बता रही हैं अनादि तेरी अन्नत माया जगत् को लीला दिखा रही हैं प्रसार तेरी दया का कितना ये देखना हो तो देखे सागर तेरी प्रशंसा का राग प्यारे तरंगमालाएँ गा र

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वन्दना

20 अप्रैल 2022
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जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करूणा नौका पार लगाती है जयति महासंगीत ! विश्‍व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है कादम्‍िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है निर्विकार ली

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नमस्कार

20 अप्रैल 2022
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जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को नमस्

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मन्दिर

20 अप्रैल 2022
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जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नव

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करूण क्रन्दन

20 अप्रैल 2022
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करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं सुख में

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महाक्रीड़ा

20 अप्रैल 2022
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सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है पूर्णिमा की रात्रि का शशि अस्त अब होने को है तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है गा रहे हैं ये विहंगम किस

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करूणा-कुंज

23 अप्रैल 2022
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क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है भारी भोझा लाद लिया न सँभार है छल छालों से पैर छिले न उबार है चले जा रहे वेग भरे किस ओर को मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर

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प्रथम प्रभात

23 अप्रैल 2022
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मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही, अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा, बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द

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नव वसंत

23 अप्रैल 2022
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पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनी

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मर्म-कथा

23 अप्रैल 2022
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प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो- ‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी क

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हृदय-वेेदना

23 अप्रैल 2022
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सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा हृदय-

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ग्रीष्म का मध्यान्ह

23 अप्रैल 2022
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विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है प्रिय वसंत के

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जलद-आहृवान

23 अप्रैल 2022
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शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता

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भक्तियोग

23 अप्रैल 2022
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दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश

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रजनीगंधा

23 अप्रैल 2022
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दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर वही हुए अ

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सरोज

23 अप्रैल 2022
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अरूण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ह

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मलिना

23 अप्रैल 2022
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नव-नील पयोधर नभ में काले छाये भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये लहराती ललिता लता सुबाल लजीली लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती बुलबुल को

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जल-विहारिणी

23 अप्रैल 2022
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चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी दे

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ठहरो

23 अप्रैल 2022
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वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता ‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत व

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बाल-कीड़ा

23 अप्रैल 2022
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हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से क्या क

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कोकिल

23 अप्रैल 2022
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नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी यद्यपि है अज्ञात ध्वनि कोकिल ! तेरी मोदमय तो भी म

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सौन्दर्य

23 अप्रैल 2022
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नील नीरद देखकर आकाश में क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है क्या हुआ जो देखकर कमलावली मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली कंटको में जो खिला यह फूल

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एकान्त में

23 अप्रैल 2022
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आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से

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दलित कुमुदिनी

23 अप्रैल 2022
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अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं रहा घूमता

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निशीथ-नदी

23 अप्रैल 2022
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विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं शान्त

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विनय

23 अप्रैल 2022
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बना लो हृदय-बीच निज धाम करो हमको प्रभु पूरन-काम शंका रहे न मन में नाथ रहो हरदम तुम मेरे साथ अभय दिखला दो अपना हाथ न भूलें कभी तुम्हारा नाम बना लो हृदय-बीच निज धाम मिटा दो मन की मेरे पीर धरा

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तुम्हारा स्मरण

23 अप्रैल 2022
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सकल वेदना विस्मृत होती स्मरण तुम्हारा जब होता विश्वबोध हो जाता है जिससे न मनुष्य कभी रोता आँख बंद कर देखे कोई रहे निराले में जाकर त्रिपुटी में, या कुटी बना ले समाधि में खाये गोता खड़े विश्

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याचना

23 अप्रैल 2022
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जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो जब शैल के सब

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पतित पावन

23 अप्रैल 2022
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पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे पतित पदपद्म में होवे ताे पावन हो जाता है पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका पतित होना कहो अब कौन-

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खंजन

23 अप्रैल 2022
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व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्ला

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विरह

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प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो यह हृदय तुम्हारा वि

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रमणी-हृदय

23 अप्रैल 2022
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सिन्धु कभी क्‍या बाड़वाग्नि को यों सह लेता कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है बालू में

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हाँ, सारथे ! रथ रोक दो

23 अप्रैल 2022
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हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का जब था न कुछ परिचित सु

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गंगा सागर

23 अप्रैल 2022
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प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’ गगन में ग्रह गोलक, तारका सब किये तन दृष्टि विचार में पर नहीं हम मौन न हो सकें कह चले अपनी सरला कथा पवन-संसृति से इस शून्य में भर उठे मधुर-ध्व

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प्रियतम

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क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं निर

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मोहन

23 अप्रैल 2022
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अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन तेरे में अपने को हम जिसमें भुला दें मोहन निज रूप-माधुरी की चसकी लगा दे मुझको मुँह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन सौन्दर्य विश्व-भर में फैला हुआ जो तेरा एकत्र

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भाव-सागर

23 अप्रैल 2022
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थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा क्या इसमें कारण है क

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मिल जाओ गले

23 अप्रैल 2022
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देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी तुम्हें नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी मेरा हृदय इन्ही काँटों के फूल

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नहीं डरते

23 अप्रैल 2022
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क्या हमने यह दिया, हुए क्यों रूष्ट हमें बतलाओ भी ठहरो, सुन लो बात हमारी, तनक न जाओ, आओ भी रूठ गये तुम नहीं सुनोगे, अच्छा ! अच्छी बात हुई सुहृद, सदय, सज्जन मधुमुख थे मुझको अबतक मिले कई सबको था दे च

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महाकवि तुलसीदास

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अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा इस शुभ सत्ता को जिसमे अनुभूत किया था मानवता को सदय राम का रूप दिया था नाम-निरूपण किया रत्न से मूल्य निकाला अन्धकार-भव-बीच ना

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धर्मनीति

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जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद वैध क्रम संयम को धिक्कार अरे तुम केवल मनोविकार वाँधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित

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गान

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जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हों, पिता परम अविनाशी हो दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली शीतल मस्तक, गर्म

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मकरन्द-विन्दु

23 अप्रैल 2022
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तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ

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चित्रकूट (1)

23 अप्रैल 2022
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उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था मन्दाकिनी

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चित्रकूट (2)

23 अप्रैल 2022
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मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं नील गगन सम राम, अहा अंक में चन्द्रमुख अनुपम शोभ

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चित्रकूट (3)

23 अप्रैल 2022
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सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर,

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चित्रकूट (4)

23 अप्रैल 2022
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सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को ‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’ प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे ‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका देखो, अपने सौरभ से है

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भरत

23 अप्रैल 2022
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हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने खड़ा बताता है भारत के गर्व को पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले पारिजात का पराग शुचि धूलि है सां

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शिल्प सौन्दर्य

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कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा अथवा तापाें के मिस से हुंकार यह करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा आर्यमंदिरों

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कुरूक्षेत्र

23 अप्रैल 2022
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नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी उस रसीले राग में अनुराग पाते थे स

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वीर बालक

23 अप्रैल 2022
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भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता अरूण उदय होकर देता है कुछ पता करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही धर्म-घोषणा आज करेगा देश में जनता है एकत्र दुर्ग

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श्रीकृष्ण-जयन्ती

23 अप्रैल 2022
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कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा भीग रहा है नीरद अमने नीर से मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देग

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