मुख्य आर्थिक सलाहकार की भारी-भरकम टीम ने जो आर्थिक सर्वे तैयार किया है, उसे शब्दश पढ़ा जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था को समझने के लिए कई महत्वपूर्ण बातें हैं। जैसा कि अरविंद सुब्रमण्यिन ने ख़ुद कहा है कि मार-धाड़ से भरपूर है। एक दिन में इस सर्वे रिपोर्ट को न तो पढ़ा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। फिर भी हिन्दी और अंग्रेज़ी में पढ़ते हुए जब मैं पेज नंबर 42 से 51 के बीच आया तो कुछ ऐसा लगा जिसे शेयर करने का मन कर रहा है। बहस बाद में करेंगे लेकिन आप पहले पढ़ें। ऐसा न हों कि बिना समझे बहस में कूद पड़ें। जितना मैंने समझा है, उसके हिसाब से आर्थिक सर्वे रेखांकित कर रहा है कि भारत का लोकतंत्र इसके आर्थिक विकास के लिए बाधक रहा है। किन शब्दों में और किस हद तक ये बात कही गई है, इसे संपूर्णता में ही समझना ठीक रहेगा। बहरहाल मैं कोशिश करूंगा कि हिन्दी वाले हिस्से को शब्दश टाइप कर दूं। सरकारी हिन्दी है इसलिए मुश्किल है। मैंने ग्राफिक्स के चित्र नहीं दिये हैं क्योंकि कापी पेस्ट नहीं हो पा रहा था। सारा खुद ही टाइप किया है।
III. संभावित व्याख्या
भारतीय विकास मॉडल की इन तीन विशिष्टियों की व्याख्या किस प्रकार से की जाए? भारत के आर्थिक दृष्टिकोण को समझने का केंद्र बिन्दु यह तथ्य है कि आर्थिक सफलता के लिए इसने विशिष्ट मार्ग अपनाया, जिसे “अपूर्ण, बंटा-बिखरा भारत” कहा जा सकता है।
ऐतिहासिक रूप से आर्थिक सफलता ने दो में से एक मार्ग का अनुसरण किया। आज के उन्नत देशों ने दो शताब्दियों के बाद अपनी वर्तमान स्थिति हासिल की जिसके दौरान आर्थिक और राजनैतिक विकास धीरे-धीरे परंतु स्थिर गति से हुआ। उन्होंने सार्वभौमिक विशेषाधिकार के साथ शुरूआत नहीं की। संकीर्ण और सीमीत थे समय के साथ धीरे-धीरे बढ़े। यह प्रक्रिया जब इसकी क्षमता कमज़ोर थी, उस अवधि के दौरान राज्य पर आरंभिक मांगों को सीमित करके राजकोषीय और आर्थिक विकास में सहायता की। ( एसमंगलु एंड रॉबिन्सन, 2013 नोर्थ एंड विंगस्ट 1989; सेंट पौल एंड वडियर 1993)
अधिकाशंत पूर्वी एशिया में तेज़ी से आर्थिक सफलता का दूसरा सेट स्पष्ट रूप से सत्तावादी( कोरिया. चीन) और वस्तुत( सिंगापुर, थाइलैंड, ताइवान) में शुरू हुआ और एक हद तक आर्थिक सफलता हासिल कर लेने के बाद ही राजनीति क परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। स्पष्ट सत्तावाद तीन विशिष्टताओं में आया; मिलीट्री(कोरिया), पार्टी( चीन ) या व्यक्तिगत तानाशाही( इंडोनेशिया)
दूसरी ओर भारत ने आर्थिक विकास का प्रयास किया और शुरू से ही सार्वभौमिक विशेषाधिकार भी दिया। चित्र 7 जो एकल ध्रुव पर स्वतंत्रता से वर्षों का विखंडन दर्शाता है कि देश प्रजातांत्रिक रहा और वर्ष ध्रुव पर स्वतंत्रता पर आय का स्तर दर्शाता है कि भारत का अनुभव कितना विरल है। भारत थोड़े से देशों में है बोत्सवाना, मारीशस, जमैका, त्रिनिदाद एंड टोबैगो और कोस्टारिका जो बहुवार्षिक प्रजातंत्र देश हैं।
यहां तक कि अपूर्ण भारत स्वतंत्रताके समय बहुत गरीब प्रजातंत्र था। जित्र में भारत निचले पायदान के आस-पास है, जो दर्शाता है कि यह सबसे ग़रीब प्रजातंत्र था। वस्तुत: एक सबसे ग़रीब देश चाहे राजनीतिक प्रणाली कुछ भी क्यों न हो, क्रय शक्ति सम मूल्यों (पीपीपी 1990 मूल्यों, माडडीसन) में मापित प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद केवल 617 अमरीकी डालर था।
इसी दौरान, भारतीय समाज अत्यंत बिखरा हुआ भी था। इतिहासकारों ने उल् लेख किया है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में किस प्रकार विभाजन की ऐसी अनेक धुरियां थीं, भाषा एवं लिपि, धर्म, वर्ण, लिंग एवं वर्ग( गुहा 2016) केवल नस्लीय भाषायी भिन्नता के मानदंड पर भारत अन्य देशों के समान है। ( ईस्टर्ली एवं लेविन 1997) परंतु यदि वर्ण को भी ध्यान में रखा जाए( बैनर्जी एवं सोमनाथन 2007 पर आधारित) भारत अलग दिखता है। चित्र 9 में प्लाट के पश्चिमोत्तर कोण में भारत स्पष्ट रूप से बाहर दिखाई दे रहा है, जो ग़रीबी और गहरी सामाजिक दरार दोनों के उच्च स्तरों को दर्शाता है।
एक अपूर्ण और बंटा-बिखरा लोकतंत्र, जिसमें गरीबों की उपेक्षा हो, का प्राय निश्चित रूप से निजी क्षेत्र पर विश्वास नहीं होगा। इस धारणा का समर्थन करना समाजवाद की प्रचलित बौद्धिक रीति थी। भारत के निर्माता उद्योगों को विकसित करके देश का निर्माण करना चाहते थे, ताकि भारत आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से स्वावलंबी बन सके। निजी क्षेत्र न केवल भारत में बल्कि ऐसे अन्य सभी नव स्वतंत्र राष्ट्रों में भी औपनिवेशिक नियम के अंतर्गत ऐसा करने में स्पष्ट रूप से विफल रहा, जिससे गंभीर संदेह उत्पन्न हुए हैं जिन्हें दूर करना सदा के लिए कठिन हो गया। इसके विपरीत सोवियत संघ, जिसने कुछ ही दशकों में स्वयं को कृषि राष्ट्र से औद्योगिक शक्ति के रूप में बदल दिया, के उदाहरण से स्पष्ट है कि त्वरित विकास तभी संभव है, यदि राष्ट्र अर्थव्यवस्था पर प्रभावपूर्ण ढंग से नियंत्रण रखे और संसाधनों का उपयोग प्राथमिकता क्षेत्रों में करें।
बेशक, जहां भारत ने राज्य क्षेत्र के लिए योजनाएं अपनाई और अहम भूमिका अदा की, इसने सोवियत संघ की भांति कभी भी निजी क्षेत्र को समाप्त नहीं किया। इसके बजाय इसने लाइसेंस और परमिट के ज़रिये निजी कारोबार पर नियंत्रण रखने का प्रयास किया था। हालांकि विरोधाभासी ढंग से, इससे निजी क्षेत्र की बदनामी ही हुई क्योंकि जिनता अधिक राज्य ने रोक लगाई अर्जन करने वाले समाज की अपमानजनक प्रक्रिया में नियंत्रण के कारण उतनी ही निजी क्षेत्र की बाध्यताएं बढ़ती हुई देखी गई।
भारत के अपूर्ण और बंटे, बिखरे हुए लोकतंत्र का दूसरा महत्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि भारत को विकास की प्रक्रिया में पहले से ही पुन वितरण करना था, जब इसकी राज्य क्षमता विशेषरूप से कमज़ोर थी। चित्र 10 उस स्थिति का उल्लेख करता है कि किस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय राजक्षमता की चुनौती थी। यह विभिन्न देशों की आय स्तरों की सकल घरेलु उत्पाद के प्रतिशत के रूप में तुलना करता है, जिन्हें उस समय ख़र्च करना था, जो भारत आज कर रहा है। विशिष्ट रूप से विकास की प्रक्रिया में यह सही मायने में बहुत देरी से प्रारंभ हुआ जहां इन देशों की राज्य क्षमता निर्मित हो चुकी थी। उदाहरण के लिए दक्षिण कोरिया ने प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद स्तर पर 20,000 अमरीकी डालर के आसपास खर्च किया जबकि भारत आय की स्थिति में प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद स्तर पर 5,000 अमरीकी डॉलर खर्च करता है। अंतत पुनर्वितरण की सामयिक ज़रूरत को देखते हुए भारत मानव पूंजी में पर्याप्त निवेश नहीं करता है, उदाहरण के लिए स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च असमान्य रूप से कम अर्थात 1050-51 में सकल घरेलु उत्पाद का 0.22 प्रतिशत से कम था। आज यह मामूली वृद्धि के साथ 1 प्रतिशत पर है। लेकिन 5.99 प्रतिशत के विश्व औसत से काफी नीचे है।
भारत जैसे कमजोर क्षमता वाले गरीब देश को जब पुनर्वितरण के दबाव का सामाना करना पड़ा तो उसने रूखाई से एवं रिसाव के साथ अकुशल तरीके से पुनर्वितरण को शुरू किया। प्रभावी तरीके से लक्षित कार्यक्रमों के सुख-सुविधा का विकल्प 1950 अथवा 1960 यहां तक कि 1990 में भी नहीं था।
इससे पता चलता है कि ये नीतिगत हस्तक्षेप क्यों शुरू हुए। लेकिन इससे यह पूरी तरह से पता नहीं चल सकता है कि यह अपर्याप्त पुनर्वितरण प्रणाली क्यों बनी हुई है क्योंकि अन्य देशों ने अपेक्षाकृत बेहतर पुनर्वितरण प्रणालियों को अपना लिया है। वस्तुतत इससे बाहर निकलना कठिन है। प्रत्येक मामले में बाहर निकलना कठिन है लेकिन गरीबों, निहित स्वार्थों से निर्देशित विभाजित लोकतंत्र, कमजोर संस्थाओं और निवेश की तुलना में पुनर्वितरण का सपोषण करने वाली विचारधारा के मामले में यह और कठिन है।
एक दूसरा विचार यह है कि यूरोप और यूएस के इतिहास के अनुसार कतिपय विशिष्ट देश अपनी पुनर्वितरण भूमिका से पहले आवश्यक सेवाएं( वास्तविक सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, अवसंरचना आदि) मुहैया कराते हैं। जब तक समाज के मध्यवर्ग को देश से लाभ नहीं मिलेगा वह पुनर्वितरण को वित्पोषित करने का अनिच्छुक ही रहेगा। दूसरे शब्दों में आवश्यक सेवाएं प्रभावी ढंग से मुहैया कराने के प्रदर्शित रिकार्ड से पुनर्वितरण को बैधता प्राप्त होती है।
परिणामत यदि राज्य की प्रमुख भूमिका पुनर्वितरण है तो मध्यवर्ग राज्य की इस भूमिका से परे जाना चाहेगा। अतएव अपूर्ण, बंटे-बिखरे प्रजातंत्र को प्राय इस प्रकार की विकृति का सामना करना पड़ता है।