त्योहारों के दिन व्हाट्सऐप से डर लगने लगता है. डर उचित शब्द भले न हो मगर इसी के आसपास की श्रेणी के शब्दों वाला अहसास होता है. मैं कल्पना कर सकता हूं कि कई टेलिकॉम कंपनियों और मेरे फोन के बीच ब्रॉडबैंक रूपी जितने भी संपर्क रास्ते हैं वहां तीन तीन घंटे के जाम लगे होंगे. बंपर टू बंपर ट्रैफिक होगा. भारत की ट्रैफिक पुलिस तभी नज़र आती है जब सड़कों पर जाम नहीं होता. आप दूर से ही उन्हें सड़क के किनारे पेड़ की छाया में खड़े देख लेते हैं. भयंकर जाम की स्थिति में ट्रैफिक पुलिस अब ट्विटर पर नज़र आने लगी है. फलां रास्ते से न जायें, वहां जाम है. जाम में फंसे लोग भी उस मैसेज को री-ट्वीट कर आश्वस्त हो लेते हैं कि जाम नहीं टला तो क्या हुआ, सिस्टम तो काम कर रहा है. आजकल काम करने का मतलब होता है ट्वीट करना.
बहरहाल दिवाली की शुभकामनाओं से लदा हुआ मैं इसलिए डरा हुआ हूं कि अगर ये शुभकामनाएं अपने टारगेट पर जा लगीं तो उन बीस-तीस लोगों का क्या होगा जो पहले से समृद्ध हो चुके हैं. जिनके पास भारत की आधी या दो तिहाई आबादी के बराबर संपत्ति है! किसी भी हाल में उन्हें कांप्लेक्स नहीं होना चाहिए. वैसे ही किसी के बोर्डरूम में प्रॉब्लम है तो किसी को कोर्टरूम से प्रॉब्लम है. कोई ख़बरें दबवाने में लगा है तो कोई ख़बरों को उछलवाने में. क्या इन ‘मैसेज भेजकों’ को मालूम भी है कि अगर मैं इतना समृद्ध हो गया तो अगली दिवाली में उन्हें रिप्लाई भी नहीं मिल पाएगा? हे मैसेज-भेजकों, क्या मैं वाकई इतना समृ्द्ध हो जाऊंगा कि...
जब मैसेज भेजना महंगा था तब लोग सोच समझ कर भेजा करते थे. एकाध मैसेज अपने बॉस को तो ज़रूर भेज देते थे. वहां ठीक ठाक रहना चाहिए, यह ग्लोबल चिन्ताओं में एक प्रमुख चिन्ता है. बॉस भले अपने बॉस से नाराज़ रहे लेकिन वो अपने मातहत से नाराज़ न हो जाए इसकी चिन्ता में कितने लोगों ने क्या क्या नहीं किया. इसका कोई सामाजिक दस्तावेज़ भी नहीं है. बहरहाल जबसे मैसेज भेजना सस्ता हुआ, फोन के कारण लोगों का संपर्क कमज़ोर हुआ, मैसेज हमारे सामाजिक संबंधों का वार्षिक परिणाम बनकर आने लगा. देखा, भले न मिले हैं दो साल से लेकिन होली दिवाली में मैसेज तो आया न. मैसेज के बहाने यह भी चेक करना होता है, कि हम तो हैं, क्या आप भी हैं. ऐसा लगता है कि त्योहार हर व्यक्ति के लिए जनमत संग्रह में बदल गए हों, कितना मैसेज आया. इतने लोगों के चेहरे दिख रहे हैं जिन्हें बहुत दिनों से नहीं देखा था. आज लग रहा है कि फोन में अगर रामलीला मैदान जैसा कोई सिस्टम हो, जिसमें हम इन मैसेज भेजकों के डेटा को डालकर देख सकें कि अगर मैं नेता होता तो कितनी भीड़ आती, तो सच पूछिये, हम घर बैठे बैठे अब रैली भी करने लगेंगे.
मैसेज भेजने का काम एक तरह से सामाजिक विकल्प के रूप में आया. मिल नहीं सकते तो लिख कर भेज दो. पहले हम किताबों में पढ़ते थे कि होली, दिवाली और ईद में लोग एक दूसरे के घर जाया करते थे. इतना मिलते थे कि राजनेताओं ने भी इसे औपचारिक रूप प्रदान किया. ये त्योहार मिलन प्रत्यय के साथ आने लगे. होली मिलन. दिवाली मिलन. ईद मिलन. अब मिलन तो हो नहीं रहा. मैसेज मैसेज हो रहा है. मैसेज ही मिलन है. एक दीया देश के नाम. बिना बताये, कई हिन्दी चैनलों को एक ही आइडिया आ गया. एक ही तरह का प्रोमो चलने लगा. इसका मतलब है कि ये आइडिया हिट हो चुका है. मैसेज भेजना और पढ़ना ‘राष्ट्रीयउद्देश्यविहीन’ होता जा रहा था. सरकार ने इस बार राष्ट्रीय मकसद जोड़ दिया है. इसके बाद भी इक्का दुक्का मैसेज ही सरकार की मंशा के अनुरूप आ जा रहे हैं. ये मेरा फीडबैक है. अगली बार से मैसेज भेजने वालों का सीडीआर यानी कॉल डिटेल रिकॉर्ड निकालकर कार्रवाई का भी प्रावधान जोड़ दिया जाना चाहिए.
बस यही सोच रहा हूं कि जवानों तक मैसेज पहुंच रहे हैं या नहीं? क्या वे मंत्रियों के ट्वीट देख पा रहे हैं, आम लोगों के वीडियो संदेश देख पा रहे हैं? क्या सेना ने ऐसा कोई इंतज़ाम किया है? क्या कोई राष्ट्रीय पता जारी हुआ है कि इस पते पर संदेश भेजें या कोई राष्ट्रीय ट्वीटर हैंडल है जिस पर हर किसी को भेजना है? मैंने बहुत अच्छा पत्र लिखा है, कहां भेजूं, सोचते सोचते किसी परिचित को ही भेज दिया. क्या ऐसे असंख्य पत्र बाकी जवानों के घर या यूनिट में पहुंच रहे होंगे? या फिर लोगों ने अपने ट्वीटर हैंडल पर ही संदेश जारी कर इसे भेजा हुआ या पढ़ा हुआ मान लिया है. जो भी है जवानों को संदेश भेजें. दिवाली, होली और ईद पर भी भेजें. न्यू ईयर पर भी भेजें. इससे भी अच्छा है, किसी जवान के घर जायें. अगर मुमकिन हो तो.
मैसेजों की दुनिया में एक अच्छी बात है. त्योहार कोई सा भी हो, वो होता है हैप्पी के लिए. हैप्पी दिवाली. हैप्पी ईद. हैप्पी न्यू ईयर. आने वाले समय में पुरातत्ववेत्ता जब मैसेजों का उत्खनन करेंगे तो उन्हें यही लगेगा कि कोई हैप्पी रहा होगा जिसने इतने सारे त्योहारों को वेब के लिए डिज़ाइन किया होगा. हैप्पी हर त्योहार का उपसर्ग है. त्योहार है तो उसका काम हैप्पी लाना ही है. वो हैप्पी बोला तो तुम भी हैप्पी बोल दो. वो हैप्पी नहीं बोला तो भी हैप्पी बोल दो. मैसेजों की दुनिया में तमाम अभिनव प्रयोग हुए मगर उसके बाद भी हैप्पी अपनी जगह बनाए हुए हैं, जैसे आदिकाल में सर्वप्रथम हैप्पी दिवाली ही उच्चरित हुआ होगा. टीवी पर चल रहे एक विज्ञापन में क्विज़ भी आने लगा है. एक भारी आवाज़ वाला पूछता है एच फॉर तो कोरस से जवाब आता है कि हैप्पी. इससे भरोसा होता है कि हम भले सब कुछ भूल चुके हों, एच फॉर हैप्पी याद है. एक विज्ञापन में हैप्पी को नाक से खींच कर लंबा किया था. अंत में दिवाली ऐसे बोला जैसे नाक भौं सिकोड़ रहा हो. तंग आ गया हो या उसे बोनस नहीं मिला हो. मुझसे संस्कृति रक्षक सा भाव आ गया था. पता भी किया कि पता कर बैन करवाते हैं लेकिन पता चला कि बंदा भारतीय है. फिर लगा कि ये तो अंदर की बात है. अपना लक पहन कर ही चलो.
स्मार्टफोन अब फोन नहीं है. ये हमारा बेडरूम और ड्राइंगरूम भी है. सैंकड़ों संदेशों के ज़रिये लोग घुसे चले आ रहे हैं. बदले में हम भी उनके फोन में घुसे जा रहे हैं. वो भेज कर डिलिट करते होंगे, इधर हम भी भेजकर डिलिट करते होंगे. दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा पर टीवी में डिस्कशन होना चाहिए कि पोस्ट दिवाली यानी दिवाली के उपरांत डिलिट करने की व्यथा से कैसे उबरा जाए. जल्दी ही किसी फोन में ‘डिलिट नेत्र’ का सिस्टम होगा जो आपकी नेत्र ज्योति से समझ जाएगा कि मैसेज को डिलिट करना है. मैसेज पढ़ना, रिप्लाई करना तो ठीक है. डिलिट करना एक्स्ट्रा काम है. आप घर के कचरे को डिलिट कर बाहर सड़क पर डालने की तैयारी में हैं इस बीच डिलिट का एक और काम आ गया. कुछ लोग तो बात ही नहीं सुन रहे हैं. बीच बीच में फोन देखते रहते हैं कि मैसेज आया कि नहीं. आ गया तो राहत की सांस लेते हैं. मैसेज पढ़ने के बाद बोलना बिल्कुल नहीं भूलते कि तंग आ गए हैं इन मैसेजों से. कुछ ज़्यादा ही हो गया है. आपका क्लास हो न हो, लेकिन क्लास में रहने की कोशिश चलती रहनी चाहिए.
मैसेज हमारे आज के अकेलेपन के साथी हैं. मगर इनकी नीरसता, एकरसता आपके अकेलेपन को बढ़ा सकती है. आप मैसेज की जगह त्योहार से ही ऊब सकते हैं. एक महीने से घरों की सफाई चल रही है. पुरानी आदत है कि लक्ष्मी जी आएंगी और मेहमान भी आएंगे. मगर ये क्या आना जाना बंद, मैसेज ठेलना चालू. अब तो लोग लिखते भी नहीं हैं. कॉपी पेस्ट करते हैं. इन दिनों हर मैसेज के ऊपरी खांचे में GIF झांक रहा होता है. ऐसे ही एक व्हाट्सऐप चैट में पूछा कि ये क्या होता है. ज़रूर उन्होंने विकीपीडिया कर बताया होगा कि GRAPHICS INTERCHANGE FORMAT. ये इसलिए बता रहा हूं कि कहीं यूपीएससी में आ गया तो आपके एक नंबर कम न हो जाएं. विकीपीडिया बताता है कि GIF 1987 के साल में ही अमेरिका में आ गया था. अमेरिका के सॉफ्टवेयर इंजीनियर स्टीव विल्वाइट की देन है. इसे ‘जिफ्फ’ बोला जाता है. इसमें बहुत सारी इमेज को कंप्रेस कर दिया जाता है ताकि पिक्चर क्वालिटी ख़राब न हो और फाइल का साइज़ छोटा रहे. इस फॉरमेट ने एनिमेशन को भी आसान कर दिया है.
एक GIF मैसेज में हाथी बड़ा सा लड्डू लेकर स्क्रीन पर आ जाता है. बच्चे देखकर खिलखिला उठते हैं. मज़ेदार मैसेज है. कुछ मैसेजों में पाकिस्तान के साथी चीन के सामान का विरोध अब भी बना हुआ है. वैसे पाकिस्तान के सबसे बड़े मित्र अमेरिका का विरोध क्यों नहीं हो रहा है, समझ नहीं आ रहा है. ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने तो पाकिस्तान के बारे में कहा है कि आतंकवाद से लड़ने में उसका काफी योगदान है. वैसे मैं चीन विरोध के इन मैसेजों में पाकिस्तान से आने वाले सामानों की सूची ढूंढ रहा था, ताकि उनका बहिष्कार कर सकूं. दायें बायें से विरोध करने की जगह डायरेक्ट विरोध करना चाहिए. तो दिवाली मनाइये. एक दीया देश के जवानों के नाम भी जलाइये. एक दीया देश को लूटने वालों के नाम भी जलाइये ताकि दीये की रौशनी में उनका चेहरा दिख जाए. न भी दिखे तो चिन्ता न करें. अभी यूपी चुनाव आ रहा है. आप देखेंगे कि कालाधान से मुक्त हो चुकी राजनीति किस कदर सादी हो चुकी है. नेता पैदल चल रहे हैं और जनता अपने घरों से उन पर पुष्प वर्षा कर रही है.