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मधुशाला / भाग २

28 जुलाई 2022

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बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,

हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,

राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,

जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।


सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,

सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,

धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,

जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।


बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,

छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,

पटे कहाँ से, मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,

जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।


बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,

दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,

विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।


हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,

वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,

स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,

पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।


नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,

कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,

जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,

जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।


बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,

बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,

बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,

बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।


सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,

मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,

मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,

कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।


सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,

बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,

झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,

बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।


तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,

सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,

मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,

फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।


अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,

भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,

हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,

आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।


पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,

भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,

माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,

झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।


प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,

छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,

छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली

हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।


मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला

भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,

हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,

छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।


साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,

तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,

अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,

प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।


उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,

बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,

जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते

सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।


अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला

किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,

पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी

तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।


किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,

किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी

किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।


साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,

जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,

योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,

देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

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रचनाएँ
मधुशाला
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मधुशाला हिंदी के बहुत प्रसिद्ध कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन (1907-2003) का अनुपम काव्य है। इसमें एक सौ पैंतीस रूबाइयां (यानी चार पंक्तियों वाली कविताएं) हैं। मधुशाला बीसवीं सदी की शुरुआत के हिन्दी साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें सूफीवाद का दर्शन होता है। मधुशाला पहलीबार सन 1935 में प्रकाशित हुई थी। कवि सम्मेलनों में मधुशाला की रूबाइयों के पाठ से हरिवंश राय बच्चन को काफी प्रसिद्धि मिली और मधुशाला खूब बिका। हर साल उसके दो-तीन संस्करण छपते गए। मधुशाला की हर रूबाई मधुशाला शब्द से समाप्त होती है। हरिवंश राय 'बच्चन' ने मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली), प्याला (कप या ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं के विश्लेषण का प्रयास किया है। मधुशाला जब पहली बार प्रकाशित हुई तो शराब की प्रशंसा के लिए कई लोगों ने उनकी आलोचना की। बच्चन की आत्मकथा के अनुसार, महात्मा गांधी ने मधुशाला का पाठ सुनकर कहा कि मधुशाला की आलोचना ठीक नहीं है। मधुशाला बच्चन की रचना-त्रय 'मधुबाला' और 'मधुकलश' का हिस्सा है जो उमर खैय्याम की रूबाइयां से प्रेरित है। उमर खैय्याम की रूबाइयां को हरिवंश राय बच्चन मधुशाला के प्रकाशन से पहले ही हिंदी में अनुवाद कर चुके थे। बाद के दिनों में मधुशाला इतनी मशहूर हो गई कि जगह-जगह इसे नृत्य-नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया और मशहूर नृत्यकों ने इसे प्रस्तुत किया। मधुशाला की चुनिंदा रूबाइयों को मन्ना डे ने एलबम के रूप में प्रस्तुत किया। इस एलबम की पहली स्वयं बच्चन ने गायी। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन ने न्यूयार्क के लिंकन सेंटर सहित कई जगहों पर मधुशाला की रूबाइयों का पाठ किया।
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मधुशाला / भाग १

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मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, विश

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मधुशाला / भाग २

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मधुशाला / भाग ३

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वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। चित्रकार बन

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मधुशाला / भाग ४

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कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला, हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है, कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१। आज मिला अ

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मधुशाला / भाग ५

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ढलक रही हो तन के घट से,संगिनि,जब जीवन-हाला, पात्र गरल का ले जब अंतिम साकी हो आनेवाला, हाथ परस भूले प्याले का,स्वाद-सुरा जीव्हा भूले, कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला।।८१। मेरे अधरों

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मधुशाला / भाग ६

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साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला, क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला, हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो, हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१। साकी,

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मधुशाला / भाग ७

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वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। म

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