मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
मैं तो जो भी जीता हूँ , बस वही हर पल लिखता हूँ !
आज फिर शहीदों की गर्दन में घोंप कर कलम,
सफ़ेद (बर्फ) चादर में दबी, उनकी वो बेकल लिखता हूँ !
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
हाँ - हाँ ...कल फिर बलात्कार हुआ मेरा वतन !
और मैं यहाँ,
पठानकोट के स्तनों को चूसता ज़िहादी दखल लिखता हूँ !
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
जनवरी की सर्द रात के बाद के सवेरे का,
बेज़ान ठण्ड से फुटपाथ पर ऐंठा बदन !
मैं कब ?...उसकी स्याह रात के बाद का सुनहरा कल लिखता हूँ !
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
मैंने कब ?,..
शब्दावलियों की,
नक्काशियों के ताजमहल सु-सज्जित किए???
मैं तो भूख की आँख को,
दूर से रोटी दिखा,
फिर उसका भाव-विह्वल लिखता हूँ !
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
मेरी जात क्या ?
औकात क्या ?
मैं तो काँधे पे गमछा टाँगे,
पसीने से सीली बीड़ी के कश के धुँओं से,
हवाओं में बादशाहों के स्वप्नों के महल लिखता हूँ !
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ?
मैंने कब कहा मैं गज़ल लिखता हूँ ???....
- मनोज कुमार खँसली "अन्वेष"