तोड़ लूँ,...
उस नक्षत्र को जिस ओर कोई इंगित करे,
मुझे वो उड़ान चाहिए,
हाँ - हाँ मुझे चाँद चाहिए |
नीले क्षितिज पे टंगी छिद्रों वाली,
उस काली चादर का वो सबसे बड़ा सुराख़ चाहिए,
हाँ - हाँ मुझे चाँद चाहिए |
व्यथित हूँ, अक्लान्त हूँ ,
परेशाँ हूँ, इस शोर से मैं,
वो चाँदनी रात में,
पर्वत के पीछे का,
सरिता के निकट का,
दीवार की खूंटी पे टंगा,... वो एकांत चाहिए |
हाँ - हाँ मुझे चाँद चाहिए|
माना हूँ ,... क्षुद्र मोती,
नहीं चौकसी को सर्प दो-चार मेरे पास,
फिर भी मगर . . .
उसके केशों से टूटकर,
उसके अधरों पे रुका, वो स्थान चाहिए,
हाँ-हाँ मुझे चाँद चाहिए |
(मनोज कुमार खंसली "अन्वेष " )
शब्दार्थ/भावार्थ विवेचन :-
1. काली चादर : काली चादर का भावार्थ यहाँ "रात" से, छिद्रों का तात्पर्य "तारों " से एवं बड़े सुराख़ का अर्थ "शशि " से है | क्या आपने कभी नक्षत्रों वाली रात को देखते हुए ऐसा महसूस किया है कि जैसे किसी ने प्रकाश पुञ्ज को छिद्रों वाली काली चादर से ढक रखा है, जिसका हर छेद एक तारे सा तथा बड़ा सुराख़ चाँद सा प्रतीत होता है |
2. शोर का अर्थ यहाँ शहर की रोजाना की भाग-दौड़ भरा अत्यंत व्यस्त जीवन, उस पर टीवी,डी 0 जे 0 , ट्रैफिक इत्यादि से है |
3. दीवार की खूँटी पर टंगा से मतलब खूबसूरत तस्वीर से है जो अपनी अवर्णनीय, अभिभूत कर देने वाली सुन्दर प्राकृतिक छटा / दृश्यों को अपने में समाहित किए हुए है | किंतु कवि के पास वहाँ तक जाने का समय ही नहीं, इसी बेबसी के कारन वह सिर्फ दीवारों में तस्वीर के रूप में टंगे इन प्राकृतिक दृश्यों को देखकर ही अपना मन बहला लेता है |
4. क्षुद्र मोती से मतलब है हीरे/ माणिक्य के समान बहुमूल्य न होना , जिनकी प्राचीन ग्रंथो अथवा कथनों के अनुसार रक्षा/चौकसी स्वयं इच्छाधारी सर्प किया करते थे |
यहाँ पर कवि खुद को क्षुद्र मोती बता अर्थात प्रेयसी के नहाकर निकलने के उपरांत उसके भीगे केशों के नीर को क्षुद्र मोती (अर्थात कवि स्वयं ) की उपमा देते हुए पानी की बूंदों सा उसके बालों से टूटकर , उसके अधरों पर रुकने की कामना कर रहा है | जैसे कोई शिशु चाँद को खिलौना जान / समझ उसके लिए मचलता है |