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संध्या

4 अगस्त 2018

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जवाँ हूँ , जवाँ रहने को हूँ , मचलता,

शाम होते ही,

मैं अगली सुबह को करवटें बदलता|


मालूम है रही ज़िन्दगी ,

तो नई सुबह खींच देगी,

मेरे चेहरे पे एक और लकीर,

गफलत में हूँ, पुरानी मिटाने को,

मैं रातों को सँवरता|


देर-सवेर ही सही |

एक रोज़ तो उसे आना है|

फिर,...कहीं ...???

भर,... टूटकर,...बिखर न जाए,

जीवन वो गुल्लक ,

सोचकर ये!!!

मैं ... अब ... और आना डालने से डरता|


निचोड़कर ,...सूखने को पीड़ा टाँगी है तार पर,

उसपर द्रवित हो नभ भी है अश्रु गिरा रहा|

चाह में ताप की,

...और भीग,

...दर्द बन,

मैं रस्सियों से, बूँदों में हूँ टपकता|


अब बाँध ली है पट्टी ,

और भींच ली हैं आँखें ,

वो काली हवा के साये,

उसपर कब्र की बरगद का यूँ दरकना ,...

कुछ सूझता नहीं अब,...कि...अन्वेष कोई आए !!!

इस दिल पे हाथ रखे |

वो रंगों भरा नज़ारा ,

मैं भी...... काश..... कोई बुनता|



थिरक- थिरक कर लौ दिए की ,...

न जाने क्या समझा रही ???

मैं बुनता रुई के फोहे ,

...इस उम्मीद में ,...

की वो आके तेल भरता ?!!!?


(मनोज कुमार खँसली " अन्वेष" )

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष" की अन्य किताबें

उमा शंकर  -अश्क-

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