जवाँ हूँ , जवाँ रहने को हूँ , मचलता,
शाम होते ही,
मैं अगली सुबह को करवटें बदलता|
मालूम है रही ज़िन्दगी ,
तो नई सुबह खींच देगी,
मेरे चेहरे पे एक और लकीर,
गफलत में हूँ, पुरानी मिटाने को,
मैं रातों को सँवरता|
देर-सवेर ही सही |
एक रोज़ तो उसे आना है|
फिर,...कहीं ...???
भर,... टूटकर,...बिखर न जाए,
जीवन वो गुल्लक ,
सोचकर ये!!!
मैं ... अब ... और आना डालने से डरता|
निचोड़कर ,...सूखने को पीड़ा टाँगी है तार पर,
उसपर द्रवित हो नभ भी है अश्रु गिरा रहा|
चाह में ताप की,
...और भीग,
...दर्द बन,
मैं रस्सियों से, बूँदों में हूँ टपकता|
अब बाँध ली है पट्टी ,
और भींच ली हैं आँखें ,
वो काली हवा के साये,
उसपर कब्र की बरगद का यूँ दरकना ,...
कुछ सूझता नहीं अब,...कि...अन्वेष कोई आए !!!
इस दिल पे हाथ रखे |
वो रंगों भरा नज़ारा ,
मैं भी...... काश..... कोई बुनता|
थिरक- थिरक कर लौ दिए की ,...
न जाने क्या समझा रही ???
मैं बुनता रुई के फोहे ,
...इस उम्मीद में ,...
की वो आके तेल भरता ?!!!?
(मनोज कुमार खँसली " अन्वेष" )