विजय माल्या को आखिर कौन नहीं जानता है. शहंशाह की तरह जीने वाले और शोहरत की बुलंदियों पर हमेशा खड़े रहने की चाहत रखने वाले माल्या की कठिनाई कोई आज की नहीं है, किन्तु अब उन पर गिरफ़्तारी की तलवार लटकने लगी है. किंगफिशर एयरलाइंस को दिए गए कर्ज को नहीं लौटाने के मामले में उन्हें बीते दिन दिल्ली हाई कोर्ट ने झटका दिया था तो उसके बाद कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) समेत 13 बैंकों की अर्जी पर माल्या को नोटिस जारी कर दिया है. इस याचिका में माल्या की गिरफ्तारी और उनका पासपोर्ट जब्त करने की मांग की गई है. गौरतलब है कि बंद पड़ी किंगफिशर एयरलाइंस पर बैंकों का करीब 7,800 करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है. भारतीय स्टेट बैंक ने तो बीते साल माल्या को इरादतन डिफाल्टर (विलफुल डिफॉल्टर) घोषित कर दिया था, जिसे उन्होंने चुनौती दी थी, मगर हाई कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई से इन्कार कर दिया. सवाल सिर्फ माल्या का नहीं है, बल्कि ऐसे अनेक रसूखदार हैं, जो सरकारी बैंकों की संपत्ति को अपना समझे हुए हैं. और चूँकि वह संपत्ति वह अपना समझे हैं तो कर्ज़ को लौटाने की भला क्या जरूर है जो वह लौटाएं? इस सम्बन्ध में सेन्ट्रल ब्यूरो इन्वेस्टिगेशन के निदेशक की बेहद दिलचस्प टिप्पणी सामने आयी है. सीबीआई निदेशक अनिल कुमार सिन्हा ने एनपीए के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग करते हुए मुंबई में एक इवेंट के दौरान कहा था कि लोगों के मन में ये धारणा बन गई है कि अमीर लोग बड़े लोन लेकर उसे चुकाए बिना, आजादी से घूमते हैं.
साफ़ है कि बैंकों का मर्ज़ कहाँ है और उसका इलाज ढूंढने में इतनी हीलाहवाली क्यों की जा रही है? हाल ही में जो आम बजट पेश हुआ है, उसके बाद जो चर्चा सबसे तेजी से चली है वह सरकारी बैंकों की सेहत से जुड़ी हुई है. क्या छोटा, क्या बड़ा सभी बयान देने में लगे हुए हैं कि बैंकों की हालत ख़राब है, और इतनी ज्यादा खराब है कि कई बैंकों के विलय की बात तक कही जा रही है. आम लोगों को तो समझ ही नहीं आएगा कि बैंकों की सेहत क्या होती है और यह खराब कैसे हो गयी? आसान भाषा में कहा जाए तो सरकारी बैंक वालों ने बिना जाँचे, समझे बड़े-बड़े लोगों को ढेर सारा पैसा बाँट दिया है और अब वह उनसे पैसा वसूल नहीं पा रही है. यह पैसा इतना ज्यादा है कि बैंकों के बाद रिजर्व बैंक और अब सरकार तक की सांसें फूलने लगी हैं. पिछले साल अक्टूबर में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सम्बन्ध में आश्वस्त करते हुए कहा था कि सरकार ने बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के कई कदम उठाए हैं जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी डाले जाने, शीर्ष प्रबंधन पद पर नियुक्ति संबंधी नियमों में बदलाव तथा कालाधन की समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कागज-रहित लेन-देन की शुरुआत जैसे उपाय शामिल हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ पूरा बैंकिंग क्षेत्र महत्वपूर्ण बदलाव के दौर से गुजर रहा है. मुश्किल यह है कि अक्टूबर 2015 के बाद नवम्बर, दिसंबर और उसके बाद नए साल के जनवरी और फ़रवरी महीने के अंत तक प्रधानमंत्री का यह आश्वासन काम नहीं आया, बल्कि समस्याएं बढ़ती ही चली गयीं. पिछले दिनों जब रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन से इस बारे में प्रश्न पूछा गया था तब उन्होंने बैंकों के विलय की सुगबुगाहट को जल्दबाजी भरा कदम बताया था, किन्तु अब वित्त मंत्रालय और वित्त मंत्री अरुण जेटली की भाषा कुछ और ही कह रही है.
वित्त मंत्री कह रहे हैं कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत बनाने के मुद्दे पर जल्द ही एक विशेषज्ञ समूह का गठन होगा, क्योंकि देश में बड़ी संख्या में बैंक होने के बजाय मजबूत बैंकों की ज्यादा जरूरत है. सही बात है वित्त मंत्री की उम्मीद अपनी जगह है, किन्तु इसके पीछे की समस्याएं क्या वास्तव में वही हैं, जो वित्त मंत्रालय समझ रहा है? क्या वाकई में बैंकों के विलय से वह समस्या हल हो जाएगी, जिससे सरकारी बैंक जूझ रहे हैं, यह बड़ा प्रश्न हवा में तैर रहा है. गौरतलब है कि सरकार अनुमानित करीब 8 लाख करोड़ रुपये की कर्ज में फंसी आस्तियों की समस्या से निपटने के लिए ऋण वसूली न्यायधिकरणों और वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण एवं पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हितों का प्रवर्तन (सरफेसी) कानून को मजबूत करने के अलावा सरकारी बैंकों के कर्मचारियों के लिए कर्मचारी स्टॉक विकल्प योजना (ईसॉप) पर भी विचार कर रही है. इस क्रम में, बढ़ती गैर-निष्पादित आस्तियों के संबंध में वित्त मंत्री ने कहा है कि सरकार संस्थागत व्यवस्था मजबूत करने के अलावा क्षेत्र विशेष के लिए निर्णय करती रही है जिससे कि बिजली, राजमार्ग, चीनी और इस्पात जैसे खंडों में समस्याओं से निपटा जा सके. इस सम्बन्ध में, डीआरटी देश की पहली ऑनलाइन अदालत बनने की दिशा में बढ़ती हुई बतायी जा रही है. मंत्री ने यह भी कहा है कि, हम दिवाला एवं शोधन अक्षमता कानून पर संयुक्त समिति की रिपोर्ट आने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, जो एक ढांचागत एवं संस्थागत व्यवस्था का निर्माण करेगा जिससे ऋण दाता के तौर पर बैंकों को मदद मिलेगी. बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए की स्थिति पर जेटली ने कहा कि बैंक संकटग्रस्त ऋणों की वसूली के कदम उठा रहे हैं और जहां तक वसूली का संबंध है, वसूली के संबंध में जो भी कदम उठाए गए हैं, बैंकों के पास डीआरटी, एसडीआर के जरिए वसूली के विभिन्न अधिकार हैं. वित्त मंत्री ने साफ़ किया है कि न तो किसी का कर्ज माफ किया गया है और न किया जाएगा. साफ़ तौर पर मौजूदा वैश्विक वातावरण में बैंकों को सभी उपाय करने होंगे जिससे उनकी बैलेंस शीट दुरुस्त हो सके. इसी सन्दर्भ में लेख लिखे जाने तक एक बैंक पर सीबीआई के छापे की खबर मिली है, जिसे इस मामले से जोड़ कर देखा जा रहा है. बैंक ऑफ बड़ौदा घोटाले को लेकर सीबीआइ ने दिल्ली सहित दस ठिकानों पर छापे मारे हैं. सूत्रों के मुताबिक, इस दौरान सीबीआइ को अहम सुराग और दस्तावेज मिले हैं. गौरतलब है कि बैंक ऑफ बड़ौदा से 6,000 करोड़ रुपये अवैध रूप से हांगकांग भेजने के कथित मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) व प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नई दिल्ली में छह लोगों को गिरफ्तार किया था, जिसमें बैंक ऑफ बड़ौदा की एक शाखा के दो अधिकारी भी शामिल थे.
सीबीआई की एफआईआर में आरोप लगाया गया है कि 59 चालू खाता धारकों और अज्ञात बैंक अधिकारियों ने साजिश कर विदेश में धन ट्रांसफर किया, तो ज्यादातर धन हांगकांग भेजा गया. करीब 6,000 करोड़ रुपये की राशि स्थापित बैंकिंग नियमों का उल्लंघन कर अवैध और अनियमित तरीके से भेजी गई. यह राशि ऐसे आयात के लिए भेजी गई, जो हुआ ही नहीं. जाहिर तौर पर इस प्रकार के बेहद घातक कारण हैं, जो मामले को ख़राब करने में कोई कसर नहीं रखते हैं. मामले की गंभीरता कुछ ऐसे समझी जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में बैंकों को निर्देश दिया कि उन्हें 500 करोड़ रुपये से यादा के लोन डिफॉल्टरों के नाम बताने होंगे. इस निर्देश का पालन होता है तो बैंकों का कर्ज वापस न करने वाले बड़े घरानों व जालसाजों के नाम सामने आएंगे. गौरतलब है कि अभी तक रिजर्व बैंक के नियमों व कानूनों के आधार पर बैंक जानबूझकर लोन डिफॉल्टर के नाम सार्वजनिक नहीं करते थे. पिछली बार एक दशक पहले बैंक यूनियनों ने जानबूझकर कर्ज नहीं लौटाने वाले ग्राहकों के नाम सार्वजनिक किए थे. दिसंबर, 2015 तक के आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ सरकारी बैंकों के 3.25 लाख करोड़ रुपये विभिन्न औद्योगिक घरानों के पास फंसी हुई है और इस राशि का लगभग 60 फीसद सिर्फ 150 व्यक्तियों या कंपनियों पर बकाया है. जाहिर तौर पर वित्तमंत्री और वित्त मंत्रालय को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन पर पहले ध्यान देना चाहिए, उसके बाद बैंकों के पुनर्गठन का मामला बेशक सामने लाया जाए. कहीं ऐसा न हो कि जनता का यह बड़ा पैसा, जो सरकारी बैंकों के पास है, उसे बड़े लोग हज़म कर के डकार भी न लें और सरकार इधर-उधर के प्रयासों में उलझी रह जाए. पहले अपराधियों और बड़े कर्जदारों से पैसा वसूला जाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस देश में छोटे किसान छोटे कर्ज़ के लिए आत्महत्या कर लेते हैं, किन्तु बड़े लोग कर्ज़ को ही हज़म कर जाते हैं और अंततः कार्रवाई से भी बच जाते हैं, जिसका ज़िक्र सीबीआई निदेशक, सुप्रीम कोर्ट और उससे बढ़कर जनता बार-बार करती है. वित्तमंत्री और जनता के प्रधानमंत्री सुन रहे हैं न... ... !!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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