महाशिवरात्रि पर्व से हमें बचपन से ही बेहद लगाव रहा है. इसके पीछे कोई ख़ास तर्क होने की बजाय मुख्य कारण यह रहा है कि इस त्यौहार पर हमें अपनी नानी के यहाँ जाने का अवसर मिलता था. नानी के यहाँ जाने का अरमान भला किसका नहीं होता है और 90 के दशक में तो यह और भी ज्यादा रोमांचक था, क्योंकि उस समय मौज-मस्ती, घूमने-फिरने और मेला देखने का पर्याप्त समय भी था. कहते हैं कि यूपी के बलिया जिले में स्थित इस 'जिगिरसर' गाँव में भगवान शिव स्वतः ही प्रकट हुए थे, जिन्होंने गाँव की कई संकटों के समय रक्षा की थी. खैर हमें क्या, हमें तो मेला देखना, गुब्बारे लेना और वह छोटी बन्दूक से गुब्बारे फोड़ने का आनंद लेना रहता था और जलेबियाँ तो कई-कई राउंड चलती थीं, घर आकर बेशक पैंट ख़राब हो जाए. इसी बहाने नानी के घर कुछ दिन रूकने को भी मिल जाता था, साथ ही साथ वहां के अपने दोस्तों से मिलने का आनंद ही कुछ और होता था. समय के साथ, बहुत कुछ बदला है, किन्तु सही ढंग से देखा जाय तो हमारे भारतीय त्यौहार लोक संस्कृति विकसित करने का अवसर ही तो रहे हैं! महाशिवरात्रि-पर्व भी इनमें से एक है, जब भगवान शंकर की पूजा करने के साथ-साथ विभिन्न स्थानों पर आज भी मेला लगता है तो गाँव के सांस्कृतिक विकास और समरसता में यह सहायक भी सिद्ध होता है. फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है. माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था. प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं, इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि भी कहा गया है. कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था.
तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं. जब वह विवाह करने जाते हैं, उस समय उनका रूप बेहद डरावना है. शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है. नंदी बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं. भगवान शंकर की महिमा हमारे हिन्दू दर्शन में इसलिए भी ज्यादे है, क्योंकि यह गलत-सही, पुण्यात्मा-पापात्मा इत्यादि पर समान रूप में कृपा करते हैं. जो भी भगवान शंकर की शरण में जाता है, उसका कल्याण निश्चित होता है. इस सन्दर्भ में महाशिवरात्रि की महिमा अपरम्पार है, जो इस पौराणिक कथा से भी स्पष्ट होती है. पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था जो जानवरों की हत्या करके अपने परिवार को पालता था. वह एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका तो क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया. संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी. शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा. चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी. शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की।.शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया. अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था. शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। जब अंधकार हो गया तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी. तब वह वन एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा. बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था. शिकारी को उसका पता न चला. पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई. इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए.
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुँची. शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ. शीघ्र ही प्रसव करूँगी. तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है. मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब मार लेना.' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई. प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए. इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया. कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली, जिससे शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया. तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे शिकारी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूँ, कामातुर विरहिणी हूँ, अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ. मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी.' शिकारी ने जाने क्या सोचकर उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया. रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था. इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर की पूजन भी सम्पन्न हो गई. भगवान शिव की मयस्वरूप, एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ फिर उधर से निकली. शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था. वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली, 'हे शिकारी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊँगी, इस समय मुझे मत मारो. इस बार सावधान शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं. इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ. मेरे बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे. इसके उत्तर में हिरणी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी. हे शिकारी! मेरा विश्वास करों, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ.
हिरणी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को फिर दया आ गई और उसने उस मृगी को भी जाने दिया. शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था. पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया. शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा. शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े. मैं उन हिरणियों का पति हूँ! यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो. मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा. मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी. तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी. अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो. मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ.' कहते हैं कि 'होइहें सोई जो राम रची राखा'. प्रभु की माया के वशीभूत शिकारी ने उसे भी जाने दिया और इस प्रकार सुबह हो गयी. उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही पर शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो गई, पर अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला. शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया और उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया.
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई. उसने मृग परिवार को जीवनदान दे दिया. कहते हैं अनजाने में शिवरात्रि के व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई और जब मृत्यु काल में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा शिकारी को शिवलोक ले गए. शिव जी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जान कर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए. हमारे हिन्दू दर्शन में हर एक कहानी का पौराणिक महत्त्व तो होता ही है जिससे परलोक सिद्ध होता है, किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण है कि इसको आत्मसात करने से हमारा 'इहलोक' ज्यादा सुधरता है. आखिर कौन नहीं जानता है कि आज जहाँ इस्लामिक स्टेट, उत्तर कोरिया, बोको हरम, लश्कर- ए- तय्यबा, जैश- ए- मोहम्मद जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठन पूरे विश्व को परेशान किये हुए हैं तो विष भर में मारकाट मची हुई है. ऐसे में अगर हम शिवरात्रि की उपरोक्त कथा के भाव को भी समझने का यत्न करें तो कोई कारण नहीं है कि हमारे भीतर अहिंसा का संचार न हो. सामाजिक, सांस्कृतिक समरसता के साथ मानवीय मूल्यों का पालन ही तो 'महाशिवरात्रि पर्व' का महासंदेश भी है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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