हमलोग जिन किताबों, अख़बारों और विमर्शों की दुनिया में रहते हैं उससे कई गुना ज़्यादा लोग इसके बाहर की दुनिया में रहते हैं। गाँव के गाँव घूमते हुए यही पता चलता है कि घरों में अखबार तक नहीं आता और स्कूल की किताब के बाद कोई किताब नहीं आता।टीवी देखने की हैसियत नहीं है।औरतों की आधी आबादी इस प्रक्रिया से बाहर कर दी गई है। बाहर रखी जा रही है।गाँव क़स्बों में पढ़ाई जाने वाली स्कूल कालेज की रद्दी किताबों के अलावा लड़कियों के पास पढ़ने को कुछ नहीं है।जबकि पढ़ने के प्रति इतनी लगन है कि आपको कम से कम हिन्दी के भ्रष्ट प्रदेशों में हर रास्ते पर कोई न कोई लड़की साइकिल से स्कूल कालेज जाते दिख जाएगी।सोच कर ही डर लगता है कि जीवन के जिस हिस्से में वे पढ़ने को लेकर इतनी सक्रिय हैं, उसमें कोर्स के अलावा कोई अच्छी किताब नहीं है। कविता नहीं है। कहानी नहीं है।सिस्टम से तनख्वाह के लिए तरसते और उसी सिस्टम में जुगाड़ से बने मास्टरों ने भी इसे और मज़बूत किया है।पढ़ाई एक आर्थिक संघर्ष है। उस संघर्ष में हर दिन आधा से ज़्यादा भारत दम तोड़ देता है ।
भारत मीडिया युक्त और मीडिया विहीन समाज में बँटा हुआ है।कमज़ोर आर्थिक शक्ति के कारण सूचना और जागरूकता के इन दैनिक माध्यमों से वंचित व्यापक जनसमूह की राजनीति क भागीदारी की प्रक्रिया क्या होती होगी,हमारे ज़हन में भी नहीं आता। क्या मीडिया युक्त और मीडिया विहीन मतदाता का राजनीतिक व्यवहार एक जैसा ही होता है? क्या दोनों के मतदान करने के प्रक्रिया और निर्णय में फर्क होता है या इस अंतर के बाद भी दोनों ही मतदाता एक ही तरह से और एक ही जगह वोट करता है? टीवी और अखबार को हाशिये का माध्यम कहता हूं। बहुत से बहुत इन्हें आप हाशिये के समाज का मुख्यधारा कह सकते हैं। पचास साठ करोड़ से ज़्यादा लोग इन माध्यमों की दुनिया से बाहर रहते हैं।यही असल में मुख्यधारा है जहाँ मीडिया और सोशल मीडिया हाशिये की तरह मौजूद है। घरों में जहाँ मीडिया मौजूद हैं वहाँ उन माध्यमों पर मर्दों का क़ब्ज़ा है। औरतें वंचित हैं। विस्थापित हैं।
यहाँ बिल्कुल नहीं समझना चाहिए कि जनमत का निर्माण मीडिया से ही होता है। व्यापक रूप से हम जिसे मीडिया कहते हैं कि वहीं सूचनाओं का घोर अकाल है।सूचनाओं के लेकर बेईमानी है। कूपमंडूकता है। विमर्श और बहस के तमाम शब्द और वाक्य संरचनाएँ मध्यमवर्गीय पाठकों के लिए भी अजनबी हैं। अव्वल तो उनमें पाठक धर्म ही नहीं है। कितने घरों में नौकरी या शादी के बाद किताबें आती होंगी। जिसे हम पढ़ा लिखा समझते हैं, वो कभी बुनियादी साक्षरता से आगे नहीं जाता है। वह जिन माध्यमों के दैनिक संपर्क में रहता है और जिसे पढ़ना कहता है, दरअसल सिर्फ संपर्क में ही रहता है, पढ़ता नहीं है।
इसलिए धारणा से बड़ी कोई सूचना नहीं है।मीडिया संसार का यह एक मज़बूत यथार्थ है।आप किसी भी दल के नेता का भाषण देखिये,वो तथ्यों से दूर धारणाएं ही गढ़ता रहता है।हम जिन गाँवों में गए, वहाँ मर्दों को अपनी जाति की सामूहिकता के आधार पर मतदान की बात करते हुए पाया। सैनी समाज भाजपा का समर्थक माना जाता है जैसे यादव समाज सपा का। हर दल का अपना अलग तरह का जातिवाद है। सैनी समाज के जिस गाँव में गया वहाँ के मर्द मानते हैं कि सपा के नेता ने गाँव में सड़क बनाई है और भाजपा का सांसद चुनाव जीतने के बाद नहीं आया है फिर भी पेशे से वकील ने ख़म ठोंक कर कहा कि इस क्षेत्र के चालीस हज़ार सैनी भाजपा को वोट करेंगे। बाकी मर्दों ने भी हामी भरी। जबकि उनके गाँव में केंद्र और राज्य दोनों की योजनाओं की हालत ख़स्ता है।उनके लिए काम होना या न होना कोई मायने नहीं रखता है।
उसी सैनी समाज की औरतें जो पढ़ी लिखी नहीं हैं, जो मीडिया के दायरे से बाहर हैं,कहती मिलीं कि जो काम करेगा,हम उन्हीं को वोट करेंगे। उनकी तकलीफ़ों में जाति का सवाल कम है इसिलए वे खुलकर कहती मिलीं कि जात पर वोट नहीं करेंगे।औरतें समस्याओं को लेकर ज़्यादा बेचैन थीं।सरकारी समस्याओं की कमियाँ और अपनी ज़रूरतों को मुखरता से रेखांकित कर रही थीं। क्या यह कहा जाए कि सैनी समाज के मर्दों का जातिकरण ठोस हुआ है और औरतों का कम। औरतों के लिए अभी भी काम प्राथमिकता है। हो सकता है कि ये औरतें भी जाति के आधार पर बीजेपी को वोट करें लेकिन कम से कम पहले वे काम का हिसाब मांग रही हैं। कह रही हैं कि उम्मीदवार उनसे बात क्यों नहीं करते। उन औरतों में से किसी ने नहीं कहा कि वे मर्दों के कहने पर ही वोट करेंगी। वो वोट से नज़दीकी समाधान चाहती हैं। इसलिए सपा के जिस नेता ने सड़क बनाई,उनका नाम बार बार लेती हैं। एक ही जाति के मर्दों और औरतों की जातिगत और राजनीतिक चेतना में फर्क क्यों आया है? अगर मीडिया एक चुनाव सिर्फ औरतों को कवर करे तो उस चुनाव के मुद्दों का स्वरूप किस तरह बदल जाएगा।
गांव सैनी बहुल था। इसिलए दूसरी अगड़ी या पिछड़ी जाति से सत्ता संघर्ष भी नहीं था। फिर भी यह साफ नहीं कि सैनी समाज के मर्द सामूहिक रूप से भाजपा को वोट देकर क्या हासिल करना चाहते हैं? उन्हें तो अपने समाज की औरतों की चिंता भी नहीं है। चिंता होती तो वे लग भिड़ कर योजनाओं का लागू करवा देते शायद औरतों को पता है कि उनका मर्द उनकी जाति का तो है मगर उनका नहीं है।यही हाल यादव बहुल गाँव में भी पाता हूँ।मुमकिन है कि यादव बहुल गाँवों की औरतों का भी मर्दों की तरह जातिकरण हो गया हो। इसलिए सब जाति का वोट अपनी पार्टी की जाति या जाति की पार्टी में जा रहा है।फ्लोटिंग या स्विंग वोटर कम ही बचे हैं।वे नतीजे को प्रभावित कर देते हैं मगर राजनीति और उसकी जवाबदेही को नहीं।
यूपी में गुंडाराज है। यह धारणा है। नारा है। सही भी हो सकती है और पूरी तरह से सही नहीं भी। क्या कोई पाठक इस धारणा से संघर्ष करता है या इसे सूचना मान लेता है? आबादी के अनुपात में यूपी का क्राइम ग्राफ़ क्या है? दूसरे राज्यों में क्राइम की क्या स्थिति है?दस साल हो गए,सुप्रीम कोर्ट के आदेश को, कि प्रकाश सिंह कमेटी की रिपोर्ट लागू कीजिये और थानों को नेताओं से आज़ाद कराइये। किसी भी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू नहीं किया है और न ही सुप्रीम कोर्ट ने रूटीन डाँट के अलावा कोई सख्त निगरानी की है। क्या कहीं बहस है कि गुंडाराज कैसे दूर होगा? कहाँ दूर हुआ है? दिल्ली में पुलिस राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त नहीं है। अगर पुलिस से राजनीतिक नियंत्रण नहीं हटेगा तो फिर गुंडाराज कैसे ख़त्म हो जाएगा। हर सरकार में धर्म या जाति के हिसाब से थानों का मैनेजमेंट होता रहेगा। बस पोस्टर लगा दो और उसमें एक बलात्कार पीड़ित लड़की की तस्वीर लगा दो। लिख दो बलात्कार में यूपी नंबर वन। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के 2015 के आंकडों के हिसाब से मध्यप्रदेश नंबर वन है। बात नंबर वन या टू की नहीं है,बात ये है कि इसे आप रोकेंगे कैसे। पेशेवर और सक्षम पुलिस से या स्लोगन से। क्या आपने देखा है कि गुंडाराज दूर करने का वादा करने वाली बीजेपी ने अपने मेनिफेस्टो में क्या कहा है और सपा सरकार ने क्या कहा है।
वही हाल रोज़गार के सवाल का है। यूपी में पाँच साल में कितना रोज़गार पैदा हुआ किसी को पता नहीं। कम से कम अखिलेश यादव यही बता देते कि किस विभाग में कितनी नौकरियाँ दी गई हैं। ये आँकडें तो आसानी से मिल सकते हैं। किसी भी चुनावी पोस्टर पर ऐसे आँकड़ें नहीं दिखेंगे। प्रधानमंत्री मोदी चुनावों में हर साल दो करोड़ रोज़गार पैदा करने की बात करते थे, अब वो भी नहीं बताते कि ढाई साल में केंद्र सरकार के किस विभाग में कितनी नौकरियाँ दी हैं। सेना और रेलवे से तो दो मिनट में आँकड़ा मिल जायेगा कि ढाई साल में कितनी भर्तियाँ हुई हैं। क्या आपने बीजेपी के रोज़गार वाले किसी पोस्टर पर ये आंकड़ें देखे हैं ? क्या आप वोट देने से पहले इस तरह के जवाब चाहेंगे? क्या वाक़ई रोज़गार मुद्दा है?
25 सितंबर 2014,मेक इन इंडिया लाँच हुआ था । प्रधानमंत्री के सामने रिलायंस उद्योग समूह के प्रमुख मुकेश अंबानी ने कहा था कि बारह से पंद्रह महीने के भीतर सवा लाख नौकरियाँ देंगे।गूगल किया तो एक साल बाद जुलाई 2015 का उनका एक और बयान मोटे अक्षरों में छपा मिला। मुकेश अंबानी ने डिजिटल इंडिया के तहत ढाई लाख करोड़ के निवेश का एलान किया है,उन्होंने कहा है कि इस निवेश से पाँच लाख रोज़गार का सृजन होगा।कम से कम मुकेश अंबानी ही बता सकते हैं कि सवा छह लाख रोज़गार सृजन के मामले में क्या प्रगति है। उन्होने ये बयान मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया के तहत ही दिये हैं जो सरकार की प्रचारित नीति है। कम से कम मोदी सरकार रिलायंस जैसी दो चार बड़ी कंपनियों से ही आँकड़ा लेकर बता दे कि कितने लोगों को रोज़गार मिला है और किस तरह का रोज़गार मिला है। रिलायंस ने यूपी के कितने लोगों को रोज़गार दिया है।
जब हम रोज़गार का सवाल ही नहीं पूछेंगे तो स्थायी और अस्थायी नौकरी के सवाल तक तो कभी पहुँच ही नहीं पायेंगे। इसलिए रोज़गार को लेकर पंच लाइन है। बीजेपी यही बता दे कि जहाँ वह शासन में है,वहाँ कितनी स्थायी और कितनी अस्थायी नौकरियाँ पैदा हुई हैं? कितना पलायन रूका है? बीजेपी छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश और गुजरात में पंद्रह पंद्रह साल से सरकार में है। वहीं का आँकड़ा दे दे। ट्वीट से ये सारे आँकडें मंगाए जा सकते है। फिर यूपी और दूसरे राज्यों में तुलना हो और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से लेकर शिवराज सिंह चौहान और प्रधानमंत्री मोदी का हिसाब हो।
न लोग पूछते हैं और न मीडिया और न उसका पाठक। इसीलिए दिल्ली लखनऊ से चलने वाले जवाबी विमर्श एक सीमा के बाद दम तोड़ देते हैं। सारे विमर्श यथास्थितिवादी हो गए हैं। लोग जब तक नारों और सरकार को समझते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।वे सरकार तो बदल देते हैं मगर सिस्टम नहीं बदल पाते। पहले वाले बोगस नारे की जगह नया वाला बोगस नारा आ जाता है।सब अपने परिचितों के लिए लिख रहे हैं और परिचितों के लिए पढ़ रहे हैं। सारी लड़ाई आपस की है। आखिर में इस बात पर भी सोचिये कि चुनाव आयोग ने प्रचार पर अंकुश लगाकर क्या हासिल कर लिया? गाँव गाँव से पोस्टर नदारद हैं। जो लोग मीडिया और सोशल मीडिया के दायरे बाहर हैं वे मतदान करने के पहले चुनाव की प्रक्रिया से ही बाहर कर दिये गए हैं। ख़ासकर औरतें। औरतों को पार्टियों,उम्मीदवारों, मीडिया और आयोग ने सबको बाहर कर दिया है।