आनंद स्वरूप वर्मा
मीडिया की आजादी और इसकी जवाबदेही विषय पर आज जब भी कोई गंभीरता से विचार करता है तो एक बड़ी दर्दनाक तस्वीर सामने आती है। ऐसा लगता है जैसे समूचा मीडिया आज एक अंधकार के युग में प्रवेश कर गया है। प्रिंट मीडिया हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ने देश की जनता को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी संभाल ली है और इस प्रक्रिया में उसके लिए हर व्यक्ति या संगठन देश का दुश्मन है जो सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है, जो भीड़ के न्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता में यकीन करता है। इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा उन्हीं ताकतों को बढ़ावा दे रहा है जिन्होंने लगातार जनतंत्र के दायरे को संकुचित किया है। फासीवादी ताकतों के साथ खुद को घनिष्ठ रूप से जोड़ते हुए मीडिया एक शर्मनाक भूमिका निभा रहा है और भारत के इतिहास में एक ऐसा रक्तरंजित पन्ना जोड़ने की तैयारी में लगा है जिससे निजात पाने में आने वाली पीढ़ी को अनेक लंबे और दर्दनाक रास्तों से गुजरना होगा। क्या इस तरीके से उनलोगों की जुबान पर हमेशा के लिए ताला लगाया जा सकेगा जो कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार से थोड़ा भी अलग राय रखते हैं? क्या मुसलमानों ही नहीं बल्कि देश और देश के तमाम उत्पीड़ित जनों से प्यार करने वाले उन हिन्दुओं के अंदर भी यह खौफनाक संदेश पहुंचाने की कोशिश नहीं की जा रही है कि अगर तुमने किसी मुद्दे पर‘ हिन्दुत्ववादियों’ का विरोध किया तो तुम्हें थाने या अदालत के दरवाजे तक पहुंचने से पहले ही लंपटों और गुंडों की भीड़ के हवाले कर दिया जाएगा?
क्या सवालों से जूझते दलित और गैर दलित नौजवानों के दिलों में दहशत पैदा की जा सकेगी जिन्हें बखूबी पता है कि भारत में फासीवाद मनुस्मृति को बगल में दबाए ब्राह्मणवाद के रथ पर सवार होकर संविधान को रौंदते हुए आने की तैयारी में लगा है? हमारे इस लोकतंत्र को आतताइयों का तंत्र बनाने के लिए जो व्यूह रचना चल रही है उसमें यह हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिए, जो इस देश में संविधान और जनतंत्र को बचाए रखना चाहते हैं और जो विभिन्न धर्मों और समुदायों की एकजुटता में विश्वास रखते हैं, चिंता की बात है। आज मीडिया विभिन्न समुदायों को आपस में लड़ाने, पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को जटिल बनाने, कॉरपोरेट घरानों की लूट को आसान बनाने और पूरे देश में एक सांप्रदायिक माहौल तैयार करने में जबर्दस्त भूमिका निभा रहा है। आज की तारीख में जनतांत्रिक दायरा कितना सिकुड़ गया है इसे समझने के लिए ‘इंडिया टुडे कॉनक्लेव’ में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ पत्रकार राहुल कंवल के उस संवाद की ओर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा जिसमें एक सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा, ‘‘अफजल गुरु की फांसी के दिन इकट्ठा होना इटसेल्फ देशद्रोह है। इसमें नारे का सवाल ही नहीं कि किसने लगाए किसने नहीं लगाए…’’।
2004 में अफजल के ही सह आरोपी एसएआर गिलानी के बचाव के लिए जो आल इंडिया कमेटी बनी थी उसके अध्यक्ष प्रसिद्ध समाज वि ज्ञान ी रजनी कोठारी थे और अन्य सदस्य थे सुरेंद्र मोहन, अरुणा राय, संदीप पांडेय, अरुंधति राय,प्रभाष जोशी, संजय काक, नंदिता हक्सर, सईदा हमीद आदि। क्या ये सभी देशद्रोही माने जायेंगे? राहुल कंवल के अंदर यह पूछने का साहस नहीं था। मीडिया आज क्यों इस स्थिति में पहुंच गया है, इस पर हमें गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब पूरे देश में आपात स्थिति की घोषणा की और अखबारों पर सेंसरशिप लगायी तो यह आजादी के बाद की पहली घटना थी। 1977 में इमरजेंसी के समाप्त होते ही और सेंसरशिप हटते ही अखबारी दुनिया में ऐसी हलचल मची जैसे किसी स्प्रिंग को जबर्दस्ती नीचे तक दबाकर अचानक छोड़ दिया गया हो। इसके बाद अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं और पाठकों की संख्या में न केवल अभूतपूर्व वृद्धि हुई बल्कि राजनीति क विषयों में भी लोगों की दिलचस्पी बढ़ी।
अनेक ऐसी पत्रिकाएं, जो रहस्य रोमांच और अपराध कथाओं से भरी होती थीं उन्होंने भी अपना तेवर और कलेवर बदल दिया और राजनीतिक खबरें छापने लगीं। इसी के साथ पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता या इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की शुरुआत हुई। इस खोजी पत्रकारिता ने लोगों का ध्यान तेजी से आकृष्ट किया और कुछ अच्छी स्टोरी भी पाठकों को पढ़ने को मिली। लेकिन इसका एक घातक पहलू इस रूप में सामने आया कि अखबारों से गंभीर और विश्लेषणात्मक सामग्री का सफाया होता गया। पाठकों की रुचि बदलती गयी और फिर उसे मसालेदार सामग्री की तलाश होने लगी। धीरे- धीरे खोजी पत्रकारिता ने राजनीतिक विषयों पर सनसनीखेज सामग्री देनी शुरू की और इसी को उपलब्धि मान लिया गया। इस दौरान एक और महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली कि अखबारों की बढ़ती पाठक संख्या और जनमत तैयार करने की इनकी अद्भुत क्षमता ने राजनेताओं का ध्यान पहली बार हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों और पत्रकारों की ओर आकृष्ट किया।
नतीजतन इस ‘चौथे स्तंभ’ को ग्लैमर मिल गया। इस ग्लैमर से आकर्षित होकर बड़ी संख्या में ऐसे लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए जिनके दिमाग में न तो कोई मिशन था और न कोई उद्देश्य। इस स्थिति ने उन पत्रकारों के अंदर बड़ी निराशा पैदा की जो सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में अपनी भूमिका ढूंढ रहे थे और जो अपनी कलम के जरिए सामाजिक न्याय की लड़ाई में योगदान करना चाहते थे। वैसे देखा जाय तो 1977 से 1980 का दौर पत्रकारिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। 1980 में जनता पार्टी की सरकार गिर गयी और श्रीमती गांधी दोबारा सत्ता में आ गयीं। इस बार वह एक नए तेवर के साथ सत्तासीन हुई थीं। जनता पार्टी में पुराने भारतीय जनसंघ के शामिल हो जाने से उन्होंने महसूस किया था कि देश का हिंदू वोट कांग्रेस के खिलाफ चला गया था और यह उनकी चिंता का एक कारण बना। अब उन्होंने भी सांप्रदायिकता को हवा देनी शुरू की और इस सिलसिले में नवंबर 1983 में अजमेर में आर्यसमाज के एक सम्मेलन का उनके द्वारा उदघाटन किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही उन्होंने अपने इर्द-गिर्द अवसरवादी, लंपट और अपराधी तत्वों को भी अच्छी खासी संख्या में बसा लिया।
1980 के दशक की राजनीति को याद करें तो पाएंगे कि इसी दौर में तस्करों, माफिया सरगनाओं और आपराधिक तत्वों ने बड़ी तेजी के साथ कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों में प्रवेश किया। इन सब चीजों का असर पत्रकारिता पर भी पड़ा। अब अखबारों में कुख्यात अपराधियों के जीवनवृत्त छपने लगे और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों पर तस्करों और माफिया गिरोह के सरदारों की तस्वीरों को स्थान मिलने लगा और उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू प्रकाशित होने लगे। दिवंगत पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संपादन में ‘रविवार’ का पहला अंक 1977 में प्रकाशित हुआ था और इसके आवरण कथा के रूप में प्रसिद्ध लेख क फणीश्वर नाथ रेणु की तस्वीर छपी थी। लेकिन 1984 आते-आते हालात इतने बदतर हो गये कि तस्कर के रूप में कुख्यात हाजी मस्तान पर इसी पत्रिका में आवरण कथा प्रकाशित हुई और उस तस्कर की फोटो कवर पर छपी। यही वह दौर था जब खास तौर पर हिन्दी पत्रकारिता का अधःपतन शुरू हुआ जो आज तक जारी है।
आज स्थिति यह है कि जनपक्षीय पत्रकारिता पूरी तरह हाशिए पर चली गयी है और जनपक्षीय पत्रकार अपने को बेहद असहाय महसूस करने लगे हैं।
1980 के दशक की पत्रकारिता कई अर्थों में इसलिए याद की जाएगी क्योंकि समूचा दशक उल्लेखनीय घटनाओं से भरा था। पंजाब में ब्लू स्टार ऑपरेशन से लेकर शाह बानो केस और फिर बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने, आडवाणी की रथ यात्रा और अयोध्या में बार-बार होने वाली कारसेवा ने न केवल समूचे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया बल्कि पत्रकारिता में भी एक नए तरह का ध्रुवीकरण शुरू हो गया। ब्लू स्टार ऑपरेशन के समय पहली बार यह महसूस हुआ कि हिन्दी पत्रकारिता ‘हिन्दू पत्रकारिता’ हो गयी है। बिना किसी अपवाद के हिन्दी के सभी अखबारों ने पंजाब की घटनाओं पर वही रवैया अख्तियार किया जो राजनीतिक समस्या के सैनिक समाधान में यकीन करती है। उस समय श्रीमती गांधी की नीतियों का आंख मूंदकर समर्थन करने की जिम्मेदारी लगभग सारे अखबारों ने संभाल ली। अयोध्या में कार सेवा तक यह प्रवृत्ति इतना गंभीर रूप ले चुकी थी कि इसके खिलाफ प्रेस परिषद को भी कदम उठाना पड़ा।
1987 में राजस्थान के दिवराला में रूपकुंवर नामक एक महिला सती हुई थी और उस पर ‘जनसत्ता’ में जो संपादकीय प्रकाशित हुआ था उसके विरोध में ढेर सारे लेखकों पत्रकारों ने जनसत्ता का बहिष्कार किया था। आज हम जिन प्रवृत्तियों को मीडिया में एक घातक रूप लेते हुए देख रहे हैं उनके बीज 1980 के दशक में पड़ चुके थे लेकिन उन बीजों के विकसित होने के लिए जिस आबोहवा की जरूरत थी उसका अभाव था। नरेन्द्र मोदी की मौजूदा सरकार ने वह आबोहवा मुहैया करा दी और वे बीज जो अंकुरित होने के लिए बेचैन थे अचानक प्रस्फुटित हो गए। उन दिनों हिन्दी में ‘जनसत्ता’ को बहुत अच्छा अखबार माना जाता था और इसके पाठकों की संख्या भी अच्छी थी। पत्रकारों की बहुत शानदार टीम होने के बाजवूद संपादक सहित संपादकीय विभाग के प्रमुख लोगों के कट्टरपंथी विचार अखबार के पन्नों पर तमाम अच्छी रपटों के बीच पड़े रहते थे। खुद संपादक प्रभाष जोशी भाषा के मामले में अद्भुत थे लेकिन वैचारिक गड़बड़ी की वजह से उनकी बातों का जो असर होता था वह उन्हीं बीजों के लिए खाद-पानी का काम करता था जिनका जिक्र ऊपर किया गया है।
अपने विचारों को किसी न किसी रूप में प्रकट करने से वह बाज नहीं आते थे। अगर क्रिकेट पर उन्होंने कोई लेख लिखा तो उसमें भी उनके वे विचार जगह पा ही लेते थे। मिसाल के तौर पर 12 फरवरी 1987 के उनके लेख का यह अंश देखें जो उन्होंने भारत-पाक क्रिकेट मैच के बाद लिखा थाः ‘‘भारतीयों को पाकिस्तान से हारना जितना बुरा लगता है उतना किसी देश की टीम से किसी खेल में हारना नहीं। और पाकिस्तान तो मानता है कि मांस, मच्छी, अंडे आदि खाने वाले जो मुसलमान हमलावर खैबर के दर्रे से आये इसीलिए तो जीते और राज करते रहे कि दाल-चावल खाने वाले हिंदुओं से ज्यादा ताकतवर थे और इसलिए उन पर राज करने के लिए ही बने थे… भारत के विरोध में खड़े होकर मूंछ पर ताव देते रहना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए जरूरी है। जरूरी यह भी है कि वह अपने को दाल-भात और इडली-डोसा खाने वाले हिंदुस्तानियों से ज्यादा ताकतवर माने।
आप देखिए इमरान खान तेज गोलंदाजी करते हुए कैसी पठानी दिखाते हैं और जहीर अब्बास और जावेद मियांदाद के सामने कोई भी भारतीय गोलंदाज पाकिस्तान में टिक क्यों नहीं पाता था।’’ अपने इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा- ‘‘इस बार भारत में भारत को हराने के पक्के इरादे से इमरान खान घोड़े पर चढ़कर आये थे और अपनी गोलंदाजी को बड़ी तोप बता रहे थे। पहले टेस्ट में मद्रास में श्रीकांत ने खुद इमरान खान और उनके सबसे घातक गोलंदाज कादिर की गेंदों में भुस भर दिया। श्रीकांत ने इमरान की ऐसी बेरहमी से धुनाई की है कि पहले किसी बल्लेबाज ने नहीं की थी। इडली डोसे ने तंदूरी मुर्गे और गोश्त दो प्याजा में मसाले की जगह भूसा भर दिया।’’ यह तो है खेल प्रेम। अगर लेखक का बस चले तो वह इन खिलाड़ियों का गला ही दबोच दे।
इस मामले में अंग्रेजी के अखबार भी पीछे नहीं रहे।
बांग्लादेश में भारत और पाकिस्तान के बीच खेले गए मैच पर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ (19 जनवरी 1998) के खेल संवाददाता की रिपोर्ट का यह अंश देखें: ‘‘ढाका के जिस स्टेडियम में भारतीय टीम ने पाकिस्तान के 314 रनों के मुकाबले धुंआधार बल्लेबाजी से जीत हासिल की, वह सुहरावर्दी उद्यान से महज दो किलोमीटर की दूरी पर है जहां पाकिस्तानी सेना के जनरल नियाजी ने 1971 में जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया था।’’
पिछले दो दशकों के दौरान मीडिया संस्थानों में संपादक के पद का लगभग लोप हो गया और संपादकीय विभाग के अन्य पदों पर काम करने वालों की हालत दिनोंदिन खराब होती गयी। इनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए जितने भी वेतन आयोग बने उनकी सिफारिशों पर मालिकों ने कभी अमल करने की जरूरत नहीं समझी।
जब से अखबारों में छोटे-छोटे पदों पर भी ठेके पर नियुक्ति का प्रचलन बढ़ा स्थितियां बदतर होती गयीं। पत्रकारों की ट्रेड यूनियनें जो किसी जमाने में बहुत मजबूत स्थिति में थीं अब नाममात्र के लिए रह गयी हैं। पत्रकार संगठनों के शीर्ष पर बैठे लोग केवल सत्ता के साथ संबंध बनाने में लगे रहे। देश के सबसे पुराने पत्रकार संगठन ‘इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट’ की हालत यह है कि पिछले तीन चार दशकों से एक ही व्यक्ति के. विक्रम राव उसके अध्यक्ष पद पर है। यहां हर तीन वर्ष पर चुनाव होते हैं लेकिन हर बार यही व्यक्ति निर्विरोध चुन लिया जाता है। पत्रकार संगठनों के सम्मेलन बस मौज मस्ती के लिए आयोजित होते हैं। इन सम्मेलनों में न तो पत्रकारों के संघर्ष को आगे ले जाने की कोई चर्चा होती है और न किसी गंभीर सामाजिक-राजनीतिक विषय पर विचार विमर्श किया जाता है। मेरे पास एक पत्रकार संगठन के सम्मेलन का निमंत्रण पत्र पड़ा है। उसके दो दिनों के कार्यक्रम को मैं सुनाऊंगा तो आप हैरान रह जायेंगे।
यह निमंत्रण पत्र ‘पत्रकार समन्वय समिति’ द्वारा 12-13 दिसंबर 1987 को फैजाबाद में आयोजित पूर्वांचल पत्रकार सम्मेलन का है। इसमें आमंत्रित अतिथियों में कुलदीप नैयर और सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम छपा है। निमंत्रण पत्र के साथ दोनों दिनों के कार्यक्रम का ब्यौरा है जो इस प्रकार हैः
12 दिसंबर 1987–प्रातः 10-12 तक पंजीकरण। फिर मध्यान्ह भोज- श्री ओम प्रकाश मदान, सोना बिस्कुट मैन्यु. कं, फैजाबाद के सौजन्य से; उद्घाटन- 1 बजे दोपहर, केंद्रीय पेट्रोलियम गैस एवं राज्य मंत्री माननीय ब्रम्हदत्त द्वारा, अपरान्ह चाय- 4 बजे, जिला प्रशासन फैजाबाद के सौजन्य से। द्वितीय सत्र प्रारंभ-4.30 बजे; हाई टी- 7.30 से 8.30 तक; रात्रि भोज- 8.30 से 10.30 तक बंसल प्रतिष्ठान फैजाबाद के सौजन्य से।
13 दिसंबर 1987 बेड टी- 7-8 बजे तक; नाश्ता, 9-10 बजे तक, गल्ला व्यापार मंडल फैजाबाद के सौजन्य से; समापन सत्र-10.30 बजे; मध्यान्ह भोज- दोपहर 2.00 बजे श्री सीताराम निषाद राज्य मंत्री मत्स्य सिंचाई, बाढ़ उ.प्र. शासन के सौजन्य से। कार्यक्रम के अंत में एक फुटनोट है- ‘कृपया पंजीकरण रसीद दिखाकर गिफ्ट पैक सम्मेलन कार्यालय से ले लें। ’इस पत्रकार सम्मेलन के दो दिन के कार्यक्रम को देखकर आप क्या कहेंगे–दोनों दिन केवल खाने पीने का कार्यक्रम और वह भी मंत्रियों और व्यापारियों के सौजन्य से। न तो किसी राष्ट्रीय मसले पर बातचीत और न अपने पेशे से संबंधित समस्याओं पर विचार विमर्श। यही स्थिति कमोबेश हर पत्रकार संगठनों की है। ये संगठन अपने आयोजनों के लिए सरकार से कुछ लाख रुपये ले लेते हैं और इसी तरह के कार्यक्रम करते हैं। पत्रकार संगठनों की जब ऐसी स्थिति हो तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है।
1990 के दशक के साथ ही भूमंडलीकरण का दौर शुरू हो गया। ग्लोबलाइजेशन का एक ‘बिल्ट-इन मेकेनिज्म’ है–जनआंदोलन की खबरों का ब्लैक आउट करना। इसके पीछे दलील यह है कि अगर जनआंदोलन की खबरें ज्यादा प्रकाशित होंगी तो निवेश का वातावरण खराब होगा। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में निवेश बहुत मायने रखता है और इसमें जनआकांक्षाओं की भरपूर अनदेखी की जाती है जो आज भारत में हो रहा है। इसके लिए राज्य की तरफ से तरह-तरह के बहाने ढूंढे जाते हैं। तीसरी दुनिया के देशों की समूची अर्थनीति और राजनीति विश्वबैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा संचालित होने लगी। 1990 के दशक में ही नोबल पुरस्कार विजेता प्रमुख अर्थशास्त्री जोसेफ स्तिगलीज का एक दस्तावेज विश्व बैंक की ओर से प्रकाशित हुआ। उस समय स्तिगलीज विश्व बैंक के उपाध्यक्ष थे। उस दस्तावेज का शीर्षक था–‘री डिफाइनिंग दि रोल ऑफ स्टेट’ अर्थात राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना। उन दिनों स्तिगलीज भूमंडलीकरण की नीतियों के समर्थक थे हालांकि बाद के दिनों में वे इसके घोर विरोधी हो गये और विश्व बैंक की नीतियों के खिलाफ उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं।
इस दस्तावेज में विभिन्न देशों को सलाह दी गयी थी कि वे सभी जनकल्याणकारी काम निजी कंपनियों को सौंप दें और राज्य एक सहजकर्ता (फेसीलिटेटर) की भूमिका निभाये। कहने का तात्पर्य यह कि शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य , परिवहन आदि का निजीकरण कर दिया जाय और उन्हें अपने ढंग से काम करने दिया जाय। देश का जो कार्यकारी प्रधान हो अर्थात प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति, वह अपनी एक कमेटी बनाकर इस निजीकरण की निगरानी करे। इस दस्तावेज को तीसरी दुनिया के देशों ने बाइबिल की तरह स्वीकार किया। इसी के नतीजे के तौर पर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘प्राइम मिनिस्टर्स काउंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्री’ का गठन किया जिसमें देश के प्रमुख उद्योगपतियों को शामिल किया गया। ये थे–रतन टाटा, मुकेश अंबानी, आर पी गोयनका, पी. के. मित्तल, कुमार मंगलम बिड़ला, नुस्ली वाडिया आदि। इन लोगों को विभिन्न क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गयी। प्रधानमंत्री कार्यालय से विभिन्न मंत्रालयों को इस आशय का पत्र भेज दिया गया कि इनके नेतृत्व में बनी समितियां संबद्ध मंत्रालय की सर्वोच्च निकाय होंगी और इन्हें सारी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करायी जायं। इस घटना की खबर अखबारों में नहीं छपी।
अंग्रेजी अखबार ‘दि हिंदू’ में एक सिंगिल कॉलम की खबर दिखायी दी लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाइट पर इसकी जानकारी विस्तार से उपलब्ध थी। उन दिनों सोशल मीडिया भी नहीं था लिहाजा यह खबर व्यापक प्रचार नहीं पा सकी तो भी कुछ उत्साही पत्रकारों ने इस बात पर चिंता जाहिर की कि अगर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मामलों की देखरेख अंबानी और टाटा करेंगे तो जनता के लिए ये सुविधाएं कितनी मंहगी साबित हो सकती हैं। धीरे धीरे विरोध के स्वर मुखर होते गये और तब पूरी योजना को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अप्रैल 2000 में शिक्षा में सुधार पर बनी समिति के संयोजक मुकेश अंबानी और समिति के एक और सदस्य कुमारमंगलम बिड़ला ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसका शीर्षक था–‘ए पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर रिफार्म्स इन एजुकेशन।’ इसमें कहा गया था कि उच्च शिक्षा को दी जा रही सब्सिडी में सरकार को कटौती करनी चाहिए और इसकी भरपाई फीस बढ़ाकर की जा सकती है।
इसमें यह भी कहा गया था कि एक ऐसा प्राइवेट विश्वविद्यालय होना चाहिए जो बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम तैयार करे। यह भी कहा गया था कि विश्वविद्यालय परिसरों और शिक्षण संस्थाओं में किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। विश्वविद्यालयों में यूनियनबाजी को रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। यहां से कॉरपोरेट घरानों के लिए, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सरकार से भी बड़ी भूमिका निर्धारित करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अबाध गति से चलता रहा और इसने धीरे धीरे मीडिया पर भी अपना शिकंजा कस लिया। पिछले वर्ष इसी हॉल में पत्रकार पी साईनाथ ने कहा था कि ‘अगर हम लोग पांच साल और पत्रकारिता में टिक गये तो यकीन मानिये हम सबका मालिक मुकेश अंबानी होगा।’ आज लगभग सारे चैनल मुकेश अंबानी के पास हैं। अभी इसी वर्ष अंबानी द्वारा हिंदुस्तान टाइम्स को भी पांच हजार करोड़ रुपये में खरीदने की खबर आ चुकी है। जो चैनल अंबानी के पास नहीं हैं उन पर दूसरे कॉरपोरेट घरानों का कब्जा है।
इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली के संपादक परंजय गुहा ठकुराता ने अपने एक लेख में बताया है कि किस तरह भारत के सबसे बड़े कॉरपोरेट घराने के मालिक मुकेश अंबानी और उनके रिलायंस इंडस्ट्रीज ने देश के ढेर सारे चैनलों पर अपना कब्जा कर रखा है। उनके इस खोजपूर्ण लेख के बारे में मैं इतना ही कहूंगा कि मीडिया पर कॉरपोरेट घरानों का कब्जा कितना मजबूत हो चुका है इसे जानने के लिए हर मीडियाकर्मी को यह लेख पढ़ना चाहिए। प्रिंट मीडिया हो अथवा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया आज इनमें से कोई ऐसा नहीं है जो कॉरपोरेट घरानों से अलग हो और जिसके सरोकार आम जनता से जुड़े हों। ऐसी स्थिति में मीडिया से यह उम्मीद करना कि वह जनता के हित की बात करेगा बिलकुल बेमानी है। प्रायोजित खबरों की एक अलग ही कहानी है। प्रायः आपको ऐसी खबरें ‘विश्वस्त सूत्रों’ के हवाले से दी जाती हैं। पोकरण परमाणु परीक्षण के एक साल पूरा होने पर समाचार एजेन्सी ‘वार्ता’ ने एक रिपोर्ट प्रसारित की। इस रिपोर्ट के अनुसार–‘परमाणु विस्फोट के एक साल बाद पोकरण और खेतोलाई गांव अकाल की छाया से निकल आया है। परमाणु परीक्षण के बाद यहां रिकार्ड बारिश हो रही है।
विस्फोटों के बाद पोकरण से जैसलमेर तक भू-जल के अथाह भंडार ही नहीं मिले, बल्कि मीठा जल मिल जाने से लगभग 100किलोमीटर के क्षेत्र में बंजर भूमि हरी-भरी हो गयी है।’ इस रिपोर्ट में परीक्षण के बाद इस इलाके की खुशहाली के बारे में कुछ ‘सूत्रों’ के हवाले से बहुत सारी जानकारी दी गयी है। ये ‘सूत्र’ कौन से हैं, यह नहीं बताया गया है। इसमें किसी संवाददाता का नाम नहीं है लेकिन जिसने भी यह रिपोर्ट तैयार की है उससे गांव वालों ने बताया कि इस विस्फोट से‘जहां देश सामरिक दृष्टि से मजबूत हुआ है वहीं पोकरण का नाम एक बार फिर ऊंचा हो गया है।’ उसी दिन यानी 11 मई 1999 को देश के लगभग सभी अखबारों में अलग-अलग संवाददाताओं की रिपोर्टें एक अलग तस्वीर ही प्रस्तुत करती थीं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा कि ‘विस्फोट के बाद से ही लोगों की आंखों में काफी तकलीफ है, नाक से खून बह रहा है, कुछ को चमड़ी के रोग हो गए हैं और कइयों ने गुर्दे और दिल की बीमारी की शिकायत की। विस्फोट का सबसे ज्यादा असर यहां की गायों पर पड़ा। कई गायों के थन में से दूध की बजाय खून की बूँदें निकलीं और कुछ तो अंधी भी हो गयीं।’
‘स्टेट्समैन’की एक रिपोर्ट ने बताया कि ‘खेतोलाई गांव के 700 लोगों के लिए यह एक ऐसा अनुभव रहा है जिसकी यंत्रणा वे पूरे साल झेलते रहे। उनके मकानों में दरारें पड़ गयीं। पोकरण-1 के विस्फोट के बाद कैंसर, जिगर, गुर्दे तथा दिल की बीमारी से 12 लोग मरे थे। वे भयभीत हैं कि इस बार अभी कितने लोगों पर रेडियोधर्मिता का असर पड़ा होगा।’ ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने लिखा कि ‘अकेले अप्रैल माह में चार लोगों की कैंसर से मौतें हुई है और कई लोग कैंसर से पीड़ित हैं।’ कारगिल युद्ध के समय इस तरह की खबरों की भरमार दिखायी देती थी। 3 जून 1999 को चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने प्रथम पृष्ठ पर एक खबर दी जिसका शीर्षक था ‘घुसपैठियो पर नापाम बमों से हमले’। यह समाचार किसी और अखबार में दिखाई नहीं दिया। ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने इस खबर के स्रोत का जिक्र नहीं किया था हालांकि यह महत्वपूर्ण खबर थी और इसके साथ यह जानकारी दी जानी चाहिए थी कि यह खबर कहां से मिली। अगले दिन 4 जून को ‘जनसत्ता’ ने भारतीय वायुसेना के हवाले से बताया कि यह खबर गलत है। ....जारी है
(वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा का यह आलेख अपने मूल रूप में हाल ही में मीडिया विजिल के सेमिनार- “मीडिया : आज़ादी और जवाबदेही” में आधार पत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया था.)