यदि संवाद विवाद
के लिए करना है, बेहतर है हम
दोनों ही चुपचाप रहें |
मलिन मनों की
पीड़ा और गुबारों को दबा जतन से , अपने भीतर कहें,
सहें |
भीतर की गहराई,
सागर से भी अधिक निराली है |
निविण अंधेरे में
भी, भीतर जगमग जग दीवाली है |
अगर अँधेरा भीतर
छाया, समझो बंटाधार हुआ |
दक-दक हँसता
अंगारा, पल भर में बुझकर क्षार
हुआ |
अपनी कुण्ठायें,
अपने मुँह से अपनों से नहीं कहें ||1|| यदि संवाद विवाद
के............
मन प्रसन्न है तो
सारा संसार बिहँसता लगता है |
अगर उदासी हुई कि
मन अपनेपन से ही भगता है |
भीतर छिपा उजास
बड़ी कोशिश करने से खुलता है |
यह सूरज की प्रथम
किरण से ही कुछ मिलता जुलता है |
मानस सागर में
निमग्न हो, लहर-छहर कर साथ बहें ||2|| यदि संवाद विवाद
के............
यह संसारी
इन्द्रजाल सारा कुछ मन के साथ जुड़ा |
मन प्रसन्न तो
सीधा दिखता, मन कुण्ठित तो
तुड़ा मुड़ा |
इसीलिए ऋषियों ने
मन पर गहन - मनन, सन्धान किये |
मन का नियमन करने
वाले हमको विविध विधान दिये |
हम उनके हर एक
सूत्र को मजबूती के साथ गहें ||3||
यदि संवाद विवाद
के............
शिकवा और शिकायत
तो हर संसारी का धन्धा है |
सबको लगता आँखों वाला
मैं, सारा जग अन्धा है |
इसीलिए उपदेश
दूसरों को देने की बान पड़ी |
खुली आँख जब अटक
भटक कर , अपनी गाड़ी हुए खड़ी
अपनी आँखों से
अपने अन्तर्दर्शन के लिए कहें ||4||
यदि संवाद विवाद
के............
जो मैं हूँ,
वह ही सारा जग, यदि ऐसा अभ्यास हुआ |
कोई नहीं पराया,
पूरा अग- जग , अपना खास हुआ |
तो फिर कभी नहीं
कोई भी पीड़ा मन को होती है |
दुनिया की वेदना,
मौन होकर अंतर में सोती है |
आओ मिल अभ्यास
करें, छल-दम्भ छोड़ कर, साथ रहे ||5||
यदि संवाद विवाद
के लिए करना है, बेहतर है हम
दोनों ही चुपचाप रहें |
मलिन मनों की
पीड़ा और गुबारों को दबा जतन से , अपने भीतर कहें,
सहें |
- ओमशंकर