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4/5/2022
मेरी डायरी ज्ञान मंजूषा और इतिहास के कुछ पन्ने वैदिक कालीन इतिहास भाग 4
भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का अत्यन्त गौरवशाली स्थान है वेद भारत की संस्कृति की अनमोल धरोहर है आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ भी वेद ही है वेद शब्द विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना अर्थात वेद का अर्थ है ज्ञान।
इसकी प्राचीनता तथा महानता के कारण वेदों को मानव रचित न मानकर ईश्वर प्रदत्त माना गया है इसी कारण वेदों को अपौरुषेय कहा गया है इसलिए माना जाता है की वेद किसी व्यक्ति विशेष अथवा निश्चित काल में नहीं लिखे गए हैं वरन् समय समय पर विभिन्न ऋषियों द्वारा इसकी रचना की गई। भारतीय संस्कृति में वेदों का अत्यन्त महत्व है क्योंकि हिंदूओं के आचार विचार,रहन सहन, धर्म कर्म की विस्तृत जानकारी हमें वेदों से ही प्राप्त होती है जिस प्रकार लौकिक वस्तुओं को देखने के लिए नेत्रों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अलौकिक तथ्यों को जानने के लिए वेदों की उपादेयता है।
यही कारण है की मनु ने लिखा है कि आस्तिक वह है जो वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास करे और नास्तिक वह है जो वेद की निन्दा करे इससे हिन्दू संस्कृति में वेदों का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
वेदों की रचनाओं के समय को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है अगर इस विषय पर चर्चा करेंगे तो बहुत विस्तृत वर्णन करना पड़ेगा विभिन्न इतिहासकारों के मतो को देखते हुए ज्यादातर इतिहासकारों ने वैदिक साहित्य का समय 1500 ई॰ पू॰ से 200 ई॰ पू॰ के मध्य माना है।
वेदों की संख्या चार है
ऋग्वेद, यजुर्वेद, यजुर्वेद को दो भागों में बांट गया है शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद,
सामवेद और अथर्ववेद
जिस समय में ऋग्वेद की रचना की गई उसने ऋग्वैदिक काल कहा जाता है और जिस समय अन्य तीनों वेदों की रचना की गई उसे उत्तर वैदिक काल कहा जाता है
ऋग्वेद कालीन समाज पितृसत्तात्मक था परिवार का वयोवृद्ध व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था उस समय जन धन की सुरक्षा के लिए संयुक्त परिवार की आवश्यकता थी इसलिए ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार का महत्व था दूसरे शब्दों में इसकी आवश्यकता भी थी ऋग्वैदिक काल में परिवार का मुखिया योग्य पुत्रों को आदर की दृष्टि से देखता था जिस पुत्र का आचरण अच्छा नहीं होता था उसे परिवार में सम्मान प्राप्त नहीं होता था और उसके अनुचित आचरण के कारण उसे कठोर दण्ड भी दिया जाता था ऋग्वैदिक कालीन पारिवारिक नियम इतने कठोर थे की यदि पुत्र का आचरण उचित नहीं है वह पिता की आज्ञा का उल्लघंन करता है तो दंड स्वरूप उसे अंधा भी किया जाता था इसका उल्लेख ऋग्वेद में में मिलता है
परिवार में गृह स्वामिनी का विशिष्ट महत्व और आदर था घर का सम्पूर्ण दायित्व उनके कंधों पर होता है पत्नी की धार्मिक अनुष्ठानों के समय उपस्थिति अनिवार्य होती थी स्त्रियों की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था इसी कारण अपाला,विश्वधारा,घोषा ने पुरुष ऋषियों की तरह ऋचाओं की रचनाएं की हैं।
पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पुत्र होता है पर पुत्र के न होने पर पुत्री भी उत्ताराधिकारिणी होती थी ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों में पर्दा प्रथा नहीं थी उन्हें घूमने, यज्ञ, त्यौहार व उत्सवों में भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता थी
ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता यदि कुछ विद्वान इसको स्वीकार करते भी हैं तो जाति प्रथा जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर निर्धारित थी।
व्यक्ति की योग्यता के आधार पर उनका वर्ण विभाजन किया जाता था वैसे ऋग्वेद के पुरूष सूक्त के दसवें मंडल में कहा गया है की ब्राम्हण की उत्पत्ति ब्रम्हा जी के मुख से क्षत्रियों की भुजाओं से, वैश्यों की जंघा से और शूद्रों की चरणों से हुई है
ऋग्वेद में कहीं भी वैश्य और शूद्र शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जो अध्ययन अध्यापन करते थे वह ब्राह्मण और जो राज्य की रक्षा करते थे उन्हें श्रत्रिय कहा गया है लेकिन कहीं भी जाति प्रथा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता उस समय वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी जो जिस तरह का कार्य करता था उसे उसी वर्ण का मान लिया जाता था आवश्यकता अनुसार लोग अपना कर्म परिवर्तित भी करते थे कहने का तात्पर्य यह है की वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था कठोर नहीं थी।
उस समय विवाह को बहुत पवित्र धार्मिक अनुष्ठान समझा जाता था लड़कियों का बाल विवाह नहीं होता था लड़के लड़कियों को अपने लिए पत्नी और पति चुनने का अधिकार था। विधवा विवाह का भी प्रचलन था
उस समय के लोग सूती,ऊनी और रंगबिरंगे वस्त्रों का प्रयोग करते थे स्त्री पुरुष के वस्त्रों में कोई विशेष अंतर नहीं था दोनों दो वस्त्र धारण करते थे विवाह के समय वधू एक प्रकार का विशेष वस्त्र धारण करती थीं जिस वधूय कहा जाता था स्त्री पुरुष दोनों आभूषण प्रेमी थे स्त्रियां साज सिंगार की शौकीन थी।
मनोरंजन के लिए नृत्य, गायन, वादन, का प्रयोग किया जाता था लोग शिकार करने के भी शौकीन थे वादन में ढोलक,मंजीरा, बांसुरी तबला का प्रयोग होता था।
उस समय उपनयन संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता पर उत्तर वैदिक काल में उपनयन संस्कार का विशेष महत्व था
बीमारियों का इलाज जड़ीबूटियों से किया जाता था उस समय शल्य चिकित्सा का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है।
ऋग्वैदिक कालीन समाज कृषि प्रधान था उस समय भूमि उर्वरा थी कृषि हल बैलों से होती थी भूमि की उर्वरकता बढ़ाने के लिए खाद का प्रयोग किया जाता था साल में दो फसलें उगाई जाती थी कृषि मुख्यतया वर्षा पर निर्भर थी लेकिन कुओं, तालाबों से भी सिंचाई का उल्लेख मिलता है
पशुपालन उस समय उन्नतिशील था क्योंकि कृषि के लिए भी पशुओं की आवश्यकता होती थी पशुधन की वृद्धि के लिए देवताओं की आराधना की जाती थी पशुओं में गाय का विशिष्ट महत्व था गौ हत्या को पाप समझा जाता था पशुओं का प्रयोग मुद्राओं के रूप में भी किया जाता था।
ऋग्वैदिक काल में अनेकों लघु उद्योग उन्नतिशील अवस्था में थे किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं समझा जाता था
ऋग्वैदिक काल में देवताओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था
स्वर्ग के देवता, आकाश के देवता और पृथ्वी के देवता
ऋग्वैदिक काल में यज्ञ और पूजा का प्रमुख स्थान था स्वर्ग नर्क की भी कल्पना थी पर लोग कर्म को विशेष महत्व देते थे प्रारंभ में ऋग्वैदिक काल में बहुदेववाद प्रचलित था परंतु बाद में उन्होंने एकेश्वरवाद को अपना लिया था
ऋग्वैदिक कालीन समाज राजसत्तातमक था मुख्य न्यायाधीश राजा ही होता था पर राजा निरंकुश न हो जाए इसलिए सभा और समिति नाम की दो संस्थाएं उन पर अंकुश लगाने के लिए समाज में निर्मित की गई थीं राजा कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय बिना सभा और समिति की सलाह लिए नहीं कर सकता था यह अलग बात थी कि की अंतिम निर्णय राजा का ही होता था पर राजा पर अंकुश बना रहे इसलिए सभा और समिति जैसी संस्थाओं को निर्मित किया गया था।दंड विधान बहुत कठोर था अगर किसी व्यक्ति ने किसी के घर चोरी की और वह पकड़ा गया तो उसे उसी व्यक्ति के यहां दासता का जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं की ऋग्वैदिक कालीन समाज उन्नतशील था यहां की राजनैतिक,सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था बहुत ही सुसंगठित थी।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
4/5/2022