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मुक्तिबोध : एक संस्मरण

31 जुलाई 2022

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भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ताज ने कहा था -

उम्र भर जी के भी न जीने का अन्दाज आया

जिन्दगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया

जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया। वरना यहाँ ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आन्दोलन के कन्धे पर चढ़कर 'नया पथ' में फ्रन्ट पेजित भी होते थे, फिर पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं। इसे मानना चाहिए कि कि पुराने प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया। बहुतों को दिया। कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे। न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे। वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे।

दूसरी तरफ के लोग उनके पीछे विच हण्ट लगाए थे। उनके ऊबड़-खाबड़पन से अभिजात्य को मतली आती थी। वे उनके दूसरे खेमे में होने की बात को इस तरह से कहते थे, जैसे - ए गुड मैन फालन अमांग फैबियंस।

ऐसा भी नहीं है कि मुक्तिबोध को समझने वाले लोग नहीं थे। पर निष्क्रिय ईमानदार और सक्रिय बेईमान मिलकर एक षडयंत्र-सा बना लेते हैं। मजे की बात यह है कि प्रगतिवादी सत्ता प्रतिष्ठान के नेता भी, जिन्हें प्रतिक्रियावादी कहते थे, उन्हीं की चिरौरी करके उन्हें अपने बीच सम्मान से बिठाकर रिस्पैक्टेबिलिटी प्राप्त करते थे, मगर जो अपना था उसे अवहेलित करते थे। वह तो अपना है ही, उसकी नियति तय है, वह कम्बख्त कहाँ जाएगा? पूर्वी यूरोप से साहित्य के आयात-निर्यात की जो फर्म है, उसके माल की लिस्ट में भी मुक्तिबोध की एक लाइन नहीं थी। हाँ, उन्हें बराबर भेजा जाता था जिन्हें घर में फासिस्ट कहा जाता रहा है।

मुझे याद है,जब हम उन्हें भोपाल के अस्पताल में ले गए और मुख्यमन्त्री की दिलचस्पी के कारण थोड़ा हल्ला हो गया, पत्रकार मित्रों ने प्रचार किया, तब कुछ लोग जो साहित्य की राजधानियों के थे या वहाँ से बढ़कर आए थे, यह कहते थे कि हम प्रान्तीयता से ग्रस्त लोग उसे हीरो बना रहे हैं। हम लोग प्राविंशियल संस्कार के लोग कहलाते थे। प्रोफेसरान और ऊँचे लेखक उन्हें देखने शुरू-शुरू में इसलिए नहीं आते थे कि कहीं प्रयाग, दिल्ली और कलकत्ता में बदनामी न फैल जाए कि हम प्राविंशियल में दिलचस्पी ले रहे हैं। प्रयाग और दिल्लीवालों ने जब गेटपास दे दिया और अदीब ने टाइम्स आफ इण्डिया में अंग्रेजी में तारीफ कर दी, तब इनका दिलचस्पी लेने का साहस बढ़ा। बाद में तो लेख के शुरू में मुक्तिबोध की पंक्तियाँ मंगलाचरण के रूप में लिखने लगे - वन्दौ वाणी विनायकौ होने लगा। उनकी मृत्यु के बाद फूल बाँटने की झपटा-झपटी में कबीर की चादर की बड़ी फजीहत हुई।

यह सब-बाई दी वे। मुझसे तो नामवर जी ने कुछ संस्मरणात्मक लिखने को कहा है। संस्मरणात्मक कुछ भी लिखने में अपने को बीच में डालना पड़ता है। संस्मरणात्मक की यह मजबूरी है। यह सावधानी बरतते हुए कि उनके बहाने अपने को प्रोजेक्ट न कर दूँ, कुछ चीजें लिखता हूँ... गो सफल संस्मरण का वही गुण है, जिससे मैं बचना चाहता हूँ।

जबलपुर में जिस स्कूल में मुक्तिबोध ने नौकरी की थी, उसी में बाद में मैंने की। अपनी मुदर्रिसी का वह आखिरी दौर था, उनकी मास्टरी उसी अहाते में खत्म हुई थी। पुराने अध्यापक उनकी बात करते थे। साहित्य में बल्कि पत्रकारिता में मेरा प्रवेश तब हो चुका था। सुनता था, यहाँ तारसप्तक वाले मुक्तिबोध रहते थे। उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। फिर वे नागपुर प्रकाशन विभाग में चले गए। तब मुक्तिबोध की नई जवानी थी। छरहरे खूबसूरत आदमी थे। तब का उनका एक चित्र है जो राष्ट्रवाणी के मुक्तिबोध अंक में छपा है। बड़ी-बड़ी गहरी भावुक आँखे हैं। नाक बहुत सेन्सुअस है। शरीर सूख जाने पर भी मुक्तिबोध की आँखें धुँधली नहीं हुईं, सूखा चेहरा भी खूबसूरत रहा।

मैं कुछ लिखने लगा था। वे देखते रहते थे। मित्रों ने भी बताया होगा। मैं नागपुर शिक्षक सम्मेलन के सिलसिले में गया था। एक मित्र उनसे मिलाने शुक्रवारा स्थित शायद उनके मकान पर ले गए। सच,कहूँ, मुझे मुक्तिबोध से डर लगता था। मित्रों, प्रशंसकों में वे महागुरु कहलाते थे। एक आतंक मेरे ऊपर था। मैं अपने अज्ञान में सिकुड़ा-सिकुड़ा पहुँचा। वे दरी पर पालथी मारे बैठे थे। पास पानी का लोटा और उस पर प्याला। हम लोग दरी पर बैठ गए। मुझसे बोले, आइए साहब! निहायत औपचारिक दो-चार मामूली बातें हुईं। यह जानकर कि मैं शिक्षकों के श्रम-संगठन के काम से आया हूँ, उन्होंने आँखें फाड़कर गौर से देखा। मुझसे न लिखने की बात की, न कोई तारीफ। चाय जरूर पिलाई। आगन्तुक के बहाने खुद चाय पीने का मौका वो चूकते नहीं थे। यह मुलाकात बहुत सुखी रही। मुक्तिबोध मुझे शंका से देख रहे थे। जाँच रहे थे। वे एकदम गले किसी से नहीं मिलते थे। प्रकृति से वे शंकालु थे। किसी को जैसा-तैसा स्वीकार नहीं करते थे। बाद के अनुभव और अकेलेपन ने यह शंका की प्रवृत्ति और बढ़ा दी थी। राजनाँदगाँव में वे कई लोगों की कल्पना में न जाने कैसी-कैसी तस्वीरें बनकर परेशान हुआ करते थे।

दिल्ली, कलकत्ता, प्रयाग के बहुत-से लोगों की इतनी अतिरंजित तस्वीर वे बनाते थे कि लगता ये सब विकट शैतान हैं, जबकि वे अपने काम में लगे तटस्थ लोग थे। शंका व असुरक्षा की भावना इतनी तीव्र हो उठी थी, बाद में, कि वह भयावह कल्पना करते रहते थे कि अमुक-अमुक लोग मेरे खिलाफ षडयन्त्र कर रहे हैं - जबकि उन्हें अपना भला करने से ही इतनी फुरसत नहीं मिलती थी कि उनका बुरा करें। उनके मित्रों को यह नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध भयंकर शैतान के रूप में उनकी कल्पना कर चुके हैं। सामान्य आदमी का वे एकदम भरोसा करते थे, लेकिन राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के आदमी के प्रति शंकालु रहते थे। कोई महज ही उनके समीप होना चाहता था या उनकी मदद करना चाहता तो सशंकित हो जाते। कहते - पार्टनर, इसका इरादा क्या है? ज्यों-ज्यों उनकी मुसीबतें बढ़ती गईं, ज्यादा कड़ुए अनुभव होते गए, उनके कई विश्वसनीयों का चारित्रिक पतन होता गया, उनकी शंका बढ़ती गई। वे अपने को असुरक्षित अनुभव करते गए। अन्त के एक-दो साल तो वे अपने चारों तरफ डर के काँटे लगाकर जीते थे। उन्हें लगता, कोई भयंकर षड्यन्त्र चारों तरफ से उन्हें घेर रहा है। यह स्थिति तब बहुत तीव्र हो गई,जब सरकार ने उनकी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाया। इस बात को आगे लिखूँगा।

नागपुर में चार-पाँच दिन रहकर भी मैं उनसे दोबारा नहीं मिला। उन्होंने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं की। यह सीधा कहलानेवाला आदमी, कुछ मामलों में बड़ा काइयाँ था। वह चुपचाप बैठा जाँच रहा था। आगे साल-भर तक कोई सम्बन्ध नहीं रहा। एक दिन 'नया खून' का ताजा अंक खोला तो तीन कालम की एक टिप्पणी का शीर्षक था - थाट और परसाई की स्पिरिट में अन्तर है। टिप्पणीकार - गजानन माधव मुक्तिबोध। मेरी एक कहानी का अनुवाद 'थाट' ने छापा था। मुक्तिबोध ने थाट की राजनीति बतलाई थी और मेरी कहानी को जैसे मिसफिट कहा था। चेतावनी थी कि ये पत्र प्रचार और पैसे का लोभ देकर किसी बनते लेखक को फँसाते हैं। मेरी उस कहानी का अर्थ थाट ने साम्यवादी व्यवस्था में रेजिमेण्टेशन के सन्दर्भ में लगाकर छापा था। यों मेरी एक फैण्टेसी को पांचजन्य ने पौराणिक कथा समझकर धर्मार्थ उद्धृत कर लिया था। अपनी समझ का उपयोग करने का हर एक को हक है।

मैंने उन्हें नहीं लिखा। वे भी चुप रहे। सालेक बाद जब वसुधा निकालने की योजना बनी, तो मैंने उन्हें पत्र लिखा। वे भरे बैठे थे। बड़ा लम्बा पत्र आया। लिखा था कि नया खून की उस टिप्पणी के बाद यहाँ लोगों ने मुझसे बार-बार कहा कि आपको बहुत बुरा लगा है। मैं दूर हूँ। लोगों से सम्पर्क होता नहीं है। सुनता रहता हूँ। सोचा, सीधे आपसे बात कर लूँ। मैं साफ बात करना पसन्द करता हूँ। आप मुझे साफ बताइए कि क्या उस टिप्पणी से आपको बुरा लगा?

मैं समझ गया कि मेरी-उनकी निकटता को घटित न होने देने में किन्हीं लोगों ने अपना फायदा देखा होगा। अपना फायदा देखने का भी हर एक हक है। बाद में पता चला कि इन लोगों ने अपने समकालीनों के लिए खुफिया विभाग भी खोल रखा था और जगह-जगह एलची नियुक्त कर रखे थे। हमारे मित्र, प्रमोद वर्मा जब तबादले पर जबलपुर आए, तब उन्हें हेड आफिस से चिट्ठी मिली थी कि यहाँ किससे सम्बन्ध रखना और किससे नहीं, इस बारे में अमुक से हिदायत ले लो। प्रमोद ने लिख दिया था कि शत्रु और मित्र मैं खुद बनाता हूँ। उस चिट्ठी को मुक्तिबोध के सामने हम लोगों ने पढ़ा और खूब हँसते रहे। खैर, ये स्थानीय मधुर पालिटिक्स की बातें हैं। मगर परिवेश से कटकर आदमी रह नहीं सकता। मुक्तिबोध-जैसे पारदर्शी सच्चाई के सरल आदमी को अपने आसपास की यह अविश्वसनीयता और अकेलापन दे देती थी।

'कामायनी : एक पुनर्विचार' को छापने के लिए एक पुस्तक विक्रेता मित्र शेषनारायण राय राजी हो गए थे। वे पेशे से प्रकाशक नहीं हैं। पैसा लगा देने को तैयार थे। मुक्तिबोध जी पर उनकी श्रद्धा थी। तब मुक्तिबोध को कोई प्रकाशक नहीं मिलता था। पुस्तक की कम्पोजिंग चल रही थी, तब वे जबलपुर आए। तीन दिन हो गए, पर उन्होंने न किताब की बात की, न राय से मिलने की इच्छा। पहले तो रात-दिन पुस्तक छापने की लौ लगी रहती थी और अब यह विराग। मैंने कहा - आप प्रकाशक से तो मिल लीजिए। वे यहीं पास में रहते हैं। मुक्तिबोध खिन्न भाव से बोले - मिल लेंगे, पार्टनर। कोई उससे मिलने थोड़े ही आए हैं। मैंने कहा - सच बताइए मामला क्या है? वे बोले - अब तो पाण्डुलिपि तो दे ही चुके हैं। अमुक साहब कह रहे थे कि आप बुरे फँसे गए। वह राय तो बहुत खराब आदमी है। खैर! मैंने राय से कहा, राय हँसा। कहने लगा - वही साहब मुझसे कह गए थे कि तुम पैसा पानी में डाल रहे हो। उस किताब को कौन खरीदेगा। मुक्तिबोध उनका विश्वास करते थे। वे बड़े हैरान हुए। कहने लगे - आखिर उसने ऐसा किया क्यों? बाद में राय ने उन्हें रुपए पेशगी दिए। दुकान से वो कुछ किताबें भी ले गए। बहु गदगद थे। ऐसे मौकों पर वे बच्चे की तरह हो जाते थे - वाह पार्टनर, आपका यह राय भी मजे का आदमी है। उसने इतने रुपए दे दिए। अगर उन्हें किसी से मुश्किल से सौ रुपए मिलने की उम्मीद है और वह दो सौ रुपए दे दे तो वह चकित हो जाते। कहते - पार्टनर, यह भी बड़ी मजे की बात है। उसने तो दो सौ रुपए दे दिए। इतने रुपए कोई कैसे दे देता है। इस पुस्तक का प्रकाशन वो अपने ऊपर अहसान मानते थे। राजनाँदगाँव से उन्होंने राय को अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिखी जो कोई लेखक प्रकाशक को नहीं लिखेगा। लिखा था - पुस्तक अच्छी छपनी चाहिए। मैं आपको लिखकर देता हूँ कि मुझे आपसे एक भी पैसा नहीं चाहिए, बल्कि आपका कुछ ज्यादा खर्च हो जाए तो मैं हरजाना देने को तैयार हूँ।

राजनाँदगाँव में वे अपेक्षाकृत आराम से रहे। शरद कोठारी तथा अन्य मित्रों ने उनके लिए सब कुछ किया। पर वे बाहर निकलने को छटपटाते थे। वे साल में एक-दो बार किसी सिलसिले में जबलपुर आते और खूब खुश रहते, रंगीन सपने में डूबते हुए कहते - पार्टनर, ऐसा हो कि एक बड़ा-सा मकान हो। सब सुभीते हों। कोई चिन्ता न हो। वहाँ हम कुछ मित्र रहें। खूब बातें करें, खूब लिखे-पढ़ें और जंगल में घूमें। फिर कहते - आप राजनाँदगाँव आइए। वहीं कुछ दिन रहिए। बहुत बड़ा मकान है। कोई तकलीफ नहीं होगी। नो, नो, आई इनवाइट यू।

मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी। उन्हें और तरह के क्लेश भी थे। भयंकर तनाव में वे जीते थे। पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे। उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे। पैसे-पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था। वे पैसा देनेवाली पत्रिकाओं में लिखकर आमदनी बढ़ा सकते थे, पर लिखते नहीं थे। कहते - अपनी पत्रिका में लिखेंगे। बस मुझे कागज आप दे दीजिए। यों वे बहुत मधुर स्वभाव के थे। खूब मजे में आत्मीयता से बतियाते थे। मगर कोई वैचारिक चालबाजी करे या ढोंग करे , तो मुक्तिबोध चुप बैठे तेज नजर से उसे चीरते रहते। उस वक्त उनके ओठ किसी बदमाश स्कूली लड़के की तरह मुड़ जाते। आपस में मित्रों से एकरस हो जाते, मगर तभी वर्ग-चेतना जाग उठती, तो अजनबी होने लगते। जबलपुर आये तो मेरे घर पर एक मित्र हनुमान वर्मा से मुलाकात हुई। हनुमान कालेज में पढ़ाते हैं। खूब यारबाश आदमी हैं। दो-तीन दिन खूब मजे में उनसे मुक्तिबोध की जमती रही। फिर हनुमान अपने घर ले गया। वहाँ अच्छा-सा सोफा था। डाइनिंग टेबल भी थी। मुक्तिबोध को खटका लग गया। वे शिष्ट व्यवहार करने लगे। लौटते वक्त रास्ते में मुझसे बोले - पार्टनर, इस आदमी से अपनी कैसे पट सकती है! उसका सोफा देखो, डाइनिंग टेबल देखो। यह अपनी दुनिया का आदमी नहीं है। ही बिलांग्ज टू ए डिफरेण्ट वर्ल्ड। मैंने कहा - छह-सात सौ ही पाता है वह। अपनी ही दुनिया का आदमी है। र यह बात गले उतरने में देर लगी।

वर्ग-चेतना के तीव्र बोध की एक-दो घटनाएँ दिलचस्प हैं। मुझ पर एक प्रकाशक ने कापीराइट का मुकदमा चला दिया था। मुक्तिबोध आये हुए थे। दिसम्बर का महीना था। भोजन करके वे सामने के मैदान में बैठे थे। मैं कचहरी जाने लगा, तो पूछा, पार्टनर, मजिस्ट्रेट कौन है? मैंने नाम बताया। वे बोले - नाम से मालूम होता है कि वह नीची जाति का है। विदर्भ में होते हैं ये लोग। आप छूट जाएँगे। मैंने यह पूछा - यह अन्दाज आपको कैसे लगा? उन्होंने कहा - वह नीची जाति का है न! उसकी वर्ग-सहानुभूति लेखक के प्रति होगी, प्रकाशक के साथ नहीं। संयोग से मुकदमा खारिज भी हो गया।

एक साहित्य-समारोह में एक वयोवृद्ध ब्राह्मण आचार्य थे। विवाद की स्थिति थी ही। आचार्य के मातहत एक अध्यापक ने भी भाषण में आचार्य जी का समर्थन किया। बाद में मुक्तिबोध अकेले में हम लोगों से बड़ी गम्भीरता से बोले - वह जो अध्यापक है, उसकी सहानुभूति हमारी तरफ है। नौकरी के लिए आचार्य की बात बोल रहा था। वह जाति का अहीर है न ! वह हमारा साथ देगा, ब्राह्मण आचार्य का नहीं।

पर एक दूसरे मौके पर दूसरी ही तरह की बात कहकर उन्होंने हमें चौंकाया। एक आदमी बड़ा ओछा व्यवहार कर रहा था। हम सब लोगों की पीठ पीछे निन्दा करता था। मुक्तिबोध सुनते-सुनते बोले - पार्टनर, वह जात का लोधी है न! इसलिए।

मुक्तिबोध विचारों से आधुनिक लेकिन इसके साथ ही व्यवहार में कई बातों में बिल्कुल सामन्ती। किसी को अपने घर में साग्रह खाना खिलाना, अपनी हैसियत से बाहर खातिर करना उनकी खास प्रकृति थी। लगता था, कोई पुराने ठाकुर साहब हैं,जिन्हें मूँछें मुड़ाना पड़ेगा, अगर मेहमाननवाजी में कमी आयी। एक बार नागपुर में जब वे तीव्र ज्वर में नया खून के टीन के नीचे काम कर रहे थे, मैं पहुँच गया। भर-दोपहर में पास की दुकान पर मुझे मिठाई खिला लाए, तब चैन पड़ा। मैंने बहुत मना किया, पर वे कहते - नहीं साहब, आप आए हैं, तो कुछ खाना तो पड़ेगा। पक्षाघात से पीड़ित थे, तब हम उन्हें भोपाल के लिए लेने पहुँचे। उस हालत में भी वो हड़बड़ा रहे थे कि इनके लिए क्या कर दिया जाए। कहने लगे - आप मेरे महमान हैं। आप मेरे यहाँ क्यों नहीं ठहरेंगे, कोठारी के यहाँ क्यों? कोठारी से भी शिकायत की - क्यों साहब, यह क्या हरकत है? इन्हें आपने रास्ते में क्यों रोक लिया? इसमें बनावट नहीं थी। उनकी सच्ची ममता थी, उनके आन्तरिक संस्कार थे। वे नयी से नयी वैज्ञानिक उपलब्धि से मुग्ध होते थे, पर परिवार-नियोजन के खिलाफ थे। परिवार-नियोजन को पूँजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे। विचारों के मामले में जितने सधे हुए, जिन्दगी की व्यवस्था में उतने ही लापरवाह। स्वास्थ्य के प्रति अत्यन्त असावधान थे। सम्बन्धों में लचीले, मगर विचारों में इस्पात की तरह। कहीं कोई समझौता नहीं। पैसे-पैसे के लिए तंग रहते थे, पर पैसे को लात भी मारते थे। कभी बिल्कुल निस्संग हो जाते, कभी मोहग्रस्त।

मुक्तिबोध विद्रोही थे। किसी भी चीज से समझौता नहीं करते थे। स्वास्थ्य के नियमों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से भी नहीं। उनकी राजनीति है, यह बात सर्वविदित थी। नागपुर में सरकारी नौकरियों में थे, तब उनके पीछे साम्यवाद-विरोधी भूत लगे रहते थे। उनके विचारों ने कभी उन्हें नौकरी में ऊपर नहीं उठने दिया। राजनाँदगाँव के प्राइवेट कालेज की नौकरी उन्हें अनुकूल पड़ी। वहाँ उन्हें लोगों ने बड़े श्रद्धा-प्रेम से रखा।

मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे। आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे। उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी। वे संत्रास में जीते थे। आजकल संत्रास का दावा बहुत किया जा रहा है। मगर मुक्तिबोध का एक-चैथाई तनाव भी कोई झेलता तो उनसे आधी उम्र में मर जाता। मृत्यु से दो साल पहले वे जबलपुर आए थे। रात-भर वे बड़बड़ाते थे। एक रात चीखकर खाट से फर्श पर गिर पड़े। सँभले, तब बताया कि एक बहुत बड़ी छिपकली सपने में सिर पर गिर रही थी।

उन दिनों उनकी पुस्तक 'भारत : इतिहास और संस्कृति' पर प्रतिबन्ध लग चुका था। वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी। उसके खिलाफ आन्दोलन करानेवाले मुख्यतः दूसरे प्रकाशक थे। आंदोलन में जनसंघ प्रमुख था। इसके साथ ही गैर-साम्प्रदायिक पत्रों के भी बिके हुए सम्पादक थे। जनसंघ उनके पीछे पड़ गया था। राजनाँदगाँव में उसके स्वयंसेवक उन्हें परेशान करते थे। उस वक्त विद्वान लेकिन अधिकारहीन राज्यपाल था और भ्रष्ट तथा मूर्ख मुख्यमन्त्री। राज्यपाल ने डेढ़ घण्टे बात की, बात मानी भी, पर कहा - मैं क्या कर सकता हूँ! मुख्यमन्त्री के पोर्टिको के पास मुक्तिबोध घण्टे-भर खड़े रहे। वह बँगले से निकला तो ये बात करने बढ़े। बात शुरू ही की थी कि बोला - उसमें अब कुछ नहीं हो सकता। इन्होंने कहा - पर आप मेरी बात को सुन लीजिए। वह बोला - मेरे पास इतना वक्त नहीं है। मुझे जरूरी काम है।

जबलपुर लौटे तो बहुत टूटे हुए और बहुत क्रोधित। वह आदमी चट्टान जैसा था। लेकिन इस घटना ने उनके भीतर भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी। वे बेहद उत्तेजित थे। इस प्रतिबन्ध से उनकी अपार क्षति हुई। यदि पुस्तक चलती, तो उन्हें इतनी रायल्टी मिलती कि सारा संकट खत्म हो जाता। व्यक्तिगत क्षति का आघात तो था ही। पर इस पूरे काण्ड को व्यापक राजनीतिक सन्दर्भ में देखकर वे बहुत त्रस्त थे। कहते थे - यह नंगा फासिज्म है। लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें, इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जा रही है। गला दबाकर आवाज घोंटी जा रही है।

'अँधेरे में' कविता का यही रचनाकाल है। उन दिनों मुक्तिबोध बहुत आशंकाग्रस्त थे। छोटी-से-छोटी बात उन्हें विचलित कर देती थी। चाबी जिस जेब में रखी होने की उन्हें याद थी, अगर उस जेब में नहीं है तो वे ऐसे सशंकित हो उठते थे, जैसे कोई बड़ा षड्यन्त्र उन्हें घेर रहा है। उन दिनों वे बहुत उत्तेजित होकर घण्टों बहुत जोर से बोलते रहते थे। गले की नसें तनी हुई साफ दिखती थीं। कनपटी लौकती थी, दम भर आता था और वे डबल स्ट्राँग चाय की माँग करते थे।

अन्तिम बीमारी के महीने-भर पहले वे जबलपुर आए थे। हाथ और पाँव में एक्जिमा था। पाँवों को धोकर नीम की पट्टी करते। बहुत दुर्बल हो गए थे। बहुत परेशान थे। पर शारीरिक और आर्थिक कष्ट की बात लगभग नहीं करते थे। रात को उन्होंने हम लोगों को 'अँधेरे में' कविता सुनायी थी। डेढ़ घण्टे के पाठ के बाद वे शिथिल होकर बिस्तर पर लुढ़क गए थे। हम लोगों ने उन्हें थोड़ी ब्राण्डी देकर सुला दिया था। सुबह बोले - पार्टनर, दवा बहुत अच्छी थी।

महीने-भर बाद ही उन्हें पक्षाघात हो गया। आदमी यह सोचने को मजबूर है कि अगर ऐसा हो गया होता, तो वैसा नहीं होता। बहुत-से मित्र यहाँ सोचते हैं, अगर वे तभी जबलपुर रुक गए होते तो बीमारी न बढ़ती। यहाँ मेडिकल कॉलेज में उन्हें कुछ दिनों के लिए भरती करा देने का हम लोगों ने तय किया था। पर उन्हें बीमार पिताजी से मिलने नागपुर जाना था। वे कह गए थे कि महीने-भर में मैं लौटकर आता हूँ और कुछ दिन रहकर यहीं आराम करूँगा और इलाज करूँगा। पर महीने-बाद उन्हें पक्षाघात हो गया। दिल्ली से जब मैं चल ही रहा था कि श्रीकान्त के नाम उनके पत्र से यह खबर मिली।

मुक्तिबोध अपनी बीमारी की भयंकरता जानते थे। वे जानते थे कि यह बीमारी प्राणान्त भी कर सकती है। शारीरिक कष्ट उन्हें बहुत था। छोटे-छोटे बच्चों के भविष्य की चिन्ता भी थी। रात कराहते बीतती थी। भोपाल के मित्र रात-भर कमरे के बाहर बरामदे में बैठे आई ग (ओ माँ) और अग ( पत्नी को बुलाने के लिए) सुना करते थे। पर मुक्तिबोध का उत्साह कम नहीं हुआ था। वे टूटे नहीं थे। संज्ञाहीन होने के पहले तक वे बीमारी की शिकायत लगभग नहीं करते थे। वे साहित्य और राजनीति की बातें करते थे। खूब उत्साह से बोलते थे। कभी हम उन्हें स्वास्थ्य के बारे में झूठा भरोसा दिला तो वे पलकें नीची करके कहते - हाँ, पार्टनर, ठीक तो हो ही जाएँगे। उनके भाव से हम समझने लगे थे कि यह आदमी जानता है कि ये लोग मुझे दिलासा दे रहे हैं। वे संकेत से बता देते थे कि मैं सब जानता हूँ। मुझे क्यों बहलाते हो!

अपनी तरफ बढ़ती हुई मृत्यु को जो साफ देख रहा था, उसकी जिन्दगी की जकड़ कम नहीं हुई थी। यह किसी भी तरह जीवन से अटके रहने का घटिया मोह नहीं था।( एक वाक्य अपाठ्य) सिगरेट और चाय के लिए अलबत्ता वे बाल-हठ-जैसा करते थे। बाकी अपने बारे में कुछ नहीं। नेहरू जी की तबीयत कैसी है? देश की राजनीति किस ओर से गुजर रही है? साहित्य में इन दिनों क्या चला हुआ है? यही सब बातें वे करते थे। पीड़ा होती तो कराह देकर वे फिर वैसे ही नॉर्मल हो जाते थे।

बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध निश्चित जीत गए थे। बीमारी ने उन्हें मार दिया, पर तोड़ नहीं सकी। मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अन्त तक वैसा ही रहा। जैसे जिन्दगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे।

वे मरे। हारे नहीं। मरना कोई हार नहीं होती।

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मेरे दोस्‍त के आँगन में इस साल बैंगन फल आए हैं। पिछले कई सालों से सपाट पड़े आँगन में जब बैंगन का फल उठा तो ऐसी खुशी हुई जैसे बाँझ को ढलती उम्र में बच्‍चा हो गया हो। सारे परिवार की चेतना पर इन दिनों बै

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इस तरह गुजरा जन्मदिन

31 जुलाई 2022
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तीस साल पहले बाईस अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अकचका गया। मैंने पूछा-यह क्यों ? उन्होंने कहा-आज आपका जन्मदिन है न। मुझ

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उखड़े खंभे

31 जुलाई 2022
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कुछ साथियों के हवाले से पता चला कि कुछ साइटें बैन हो गयी हैं। पता नहीं यह कितना सच है लेकिन लोगों ने सरकार को कोसना शुरू कर दिया। अरे भाई,सरकार तो जो देश हित में ठीक लगेगा वही करेगी न! पता नहीं मेरी इ

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एक और जन्म-दिन

31 जुलाई 2022
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मेरी जन्म-तीथि जन्ममास के पहलेवाले महीने में छपी थी। अगस्त के एक दिन सुबह कमरे में घुसा तो देखा, एक बंधु बैठे हैं और कुछ सकुचा-से रहे हैं। और वक़्त मिलते थे तो बड़ी बेतक़ल्लूफ़ी से हँसी-मज़ाक करते थे।

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एक मध्यमवर्गीय कुत्ता

31 जुलाई 2022
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मेरे मित्र की कार बँगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, 'इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?' मित्र ने कहा, 'तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!' मैंने कहा, 'आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता। उनसे निपट लेता हू

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कंधे श्रवणकुमार के

31 जुलाई 2022
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एक सज्जन छोटे बेटे की शिकायत करते हैं - कहना नहीं मानता और कभी मुँहजोरी भी करता है। और बड़ा लड़का? वह तो बड़ा अच्छा है। पढ़-लिखकर अब कहीं नौकरी करता है। सज्जन के मत में दोनों बेटों में बड़ा फर्क है और

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क्रांतिकारी की कथा

31 जुलाई 2022
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‘क्रांतिकारी’ उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे ग्वेवारा का खास भक्त। कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमे

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किस्सा मुहकमा तालीमात

31 जुलाई 2022
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साधो, रिजल्ट खुल गए हैं। आधे स्कूल भी खुल गए। हाईस्कूल इस साल 15 दिन पहले खुल गए। लोग पूछते हैं कि साहब 15 दिन पहले स्कूल खुलने से क्या फायदा? साधो, लोग नहीं जानते कि चीन का हमारी सीमा पर हमला हुआ है

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खेती

31 जुलाई 2022
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सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे। दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी ग

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गॉड विलिंग

31 जुलाई 2022
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एक अमेरिकी सैनिक अधिकारी ने कहा है "भविष्य में अंतरिक्ष में युद्ध होगा" बात कुछ इस लहजे में कही गई जैसे स्कूली लड़के कहते हो अगले साल नए मैदान में कबड्डी खेलेंगे । जैसे सामान्य आदमी आशा करता है कि आग

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ग़ालिब के परसाई

31 जुलाई 2022
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तमाम दूबों, चौबों, तिवारियों, वर्माओं, श्रीवास्तवों, मिश्रों को चुनौती है -बता दे कोई, अगर ग़ालिब के पूरे दीवान में कहीं किसी का जिक्र हो। कबीरदास ने अलबत्ता हमारे पड़ोसी पाण्डेय जी का नाम लिखा है -“सा

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घुटन के पन्द्रह मिनट

31 जुलाई 2022
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एक सरकारी दफ्तर में हम लोग एक काम से गए थे–संसद सदस्य तिवारी जी और मैं। दफ्तर में फैलते-फैलते यह खबर बड़े साहब के कानों तक पहुंच गई होगी कि कोई संसद सदस्य अहाते में आए हैं। साहब ने साहबी का हिदायतनामा

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चूहा और मैं

31 जुलाई 2022
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चाहता तो लेख का शीर्षक ''मैं और चूहा'' रख सकता था। पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया। जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर का यह चूहा कर लेता है। जो इस देश का सामान्य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने

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जैसे उनके दिन फिरे

31 जुलाई 2022
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एक था राजा। राजा के चार लड़के थे। रानियाँ? रानियाँ तो अनेक थीं, महल में एक 'पिंजरापोल' ही खुला था। पर बड़ी रानी ने बाकी रानियों के पुत्रों को जहर देकर मार डाला था। और इस बात से राजा साहब बहुत प्रसन्न

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टेलिफोन

31 जुलाई 2022
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एक वैज्ञानिक था । उसने देखा की दुनिया के आधे लोग बाकी आधे लोगो की सूरत से नफ़रत करते हैं, पर उनसे बात ज़रूर करना चाहते हैं । उसने सोचा की कोई ऐसी कल बनानी चाहिए,जिसमे आदमी की सूरत तो ना दिखे पर उससे ब

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तीसरे दर्जे के श्रद्धेय

31 जुलाई 2022
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बुद्धिजीवी बहुत थोड़े में संतुष्ट हो जाता है। उसे पहले दर्जे का किराया दे दो ताकि वह तीसरे में सफर करके पैसा बचा ले। एकाध माला पहना दो, कुछ श्रोता दे दो और भाषण के बाद थोड़ी तारीफ – वह मान जाता है, इत

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दस दिन का अनशन

31 जुलाई 2022
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आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है की संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया

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दो नाक वाले लोग

31 जुलाई 2022
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मैं उन्हें समझा रहा था कि लड़की की शादी में टीमटाम में व्यर्थ खर्च मत करो। पर वे बुजुर्ग कह रहे थे - आप ठीक कहते हैं, मगर रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी। नाक उनकी काफी लंबी थी। मेरा ख्याल है, नाक

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न्याय का दरवाज़ा

31 जुलाई 2022
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उसका मुँह देखता हूँ । होंठ ज़्यादा फटे हुए हैं । दाँत बाहर निकलने को हमेशा तत्पर रहते हैं । झूठे और बक्की आदमी का मुँह ऐसा हो जाता है । झूठे दो तरह के होते हैं - चुप्पा और भड़भड़या । चुप्पा परिपक्व झू

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पर्दे के राम और अयोध्या

31 जुलाई 2022
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एक शहर में सड़क से निकल रहा था । कॉलेज का समय था । आज भी जगह-जगह लड़कियाँ छेड़ी जा रही थी। उन्हे धक्का देकर गिराया जा रहा था । मगर आसपास के लोग ऐसे चल रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही नही हो । मुझसे चुप रहते न

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प्रेम की बिरादरी

31 जुलाई 2022
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उनका सबकुछ पवित्र है । जाति में बाजे बजाकर शादी हुई थी । पत्नी ने 7 जन्मो में किसी दूसरे पुरुष को नहीं देखा । उन्होंने अपने लड़के-लड़की की शादी सदा मण्डप में की । लड़की के लिए दहेज दिया और लड़के के लिए लि

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प्रेम-पत्र और हेडमास्टर

31 जुलाई 2022
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गुरु लोगों से मैं अभी भी बहुत डरता हूँ । उनके मामलों में दखल नही देता । पर मेरे सामने पड़ी अख़बार की यह खबर मुझे भड़का रही है । खबर है - एक लड़का रोज़ एक प्रेम-पत्र लिखता था । वे हेडमास्टर के हाथ पड़

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पवित्रता का दौरा

31 जुलाई 2022
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सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूँ क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है। दिन-भर मैंने हर मिलनेवाले को तुच्छ समझा। मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर

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पुराना खिलाड़ी

31 जुलाई 2022
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सरदारजी जबान से तंदूर को गर्म करते हैं। जबान से बर्तन में गोश्त चलाते हैं। पास बैठे आदमी से भी इतने जोर से बोलते हैं, जैसे किसी सभा में बिना माइक बोल रहे हों। होटल के बोर्ड पर लिखा है - ‘यहाँ चाय हर व

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बकरी पौधा चर गई

31 जुलाई 2022
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साधो, तुम सुनते आ रहे हो कि बाड़ खेत को खा ही गई और नाव नदी को ही लील गई और यह भेद आज तक किसी ने नहीं जाना। तुम इन उलटवासियों का दार्शनिक अर्थ निकाल लेते हो और रूपकों को समझ लेते हो। आज मैं तुम्हें एक

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बुद्धिवादी

31 जुलाई 2022
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आशीर्वादों से बनी जिंदगी है । बचपन में एक बूढ़े अंधे भिखारी को उन्होंने हाथ पकड़कर सड़क पार करा दिया था । अंधे भिखारी ने आशीर्वाद दिया- बेटा, मेरे जैसे हो जाना । अंधे भिखारी का मतलब लम्बी उम्र से रहा

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भगत की गत

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उस दिन जब भगतजी की मौत हुई थी, तब हमने कहा था- भगतजी स्वर्गवासी हो गए। पर अभी मुझे मालूम हुआ कि भगतजी, स्वर्गवासी नहीं, नरकवासी हुए हैं। मैं कहूं तो किसी को इस पर भरोसा नहीं होगा, पर यह सही है कि उ

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भारतीय राजनीति का बुलडोजर

31 जुलाई 2022
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साधो, बहुगुणा को हम लोग चतुर राजनेता मानते हैं। यह अलग बात है कि इंदिराजी संकट में बहुगुणा के घर गईं और संजय से ‘मामाजी’ के चरण छुवा दिए और बहुगुणा पिघल गए कि ‘मेरी बहना’ संकट में है और राखी की लाज रख

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मुक्तिबोध : एक संस्मरण

31 जुलाई 2022
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भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ताज ने कहा था - उम्र भर जी के भी न जीने का अन्दाज आया जिन्दगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया जो मुक्ति

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यस सर

31 जुलाई 2022
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एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह द

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रामकथा-क्षेपक

31 जुलाई 2022
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एक पुरानी पोथी में मुझे ये दो प्रसंग मिले हैं। भक्तों के हितार्थ दे रहा हूँ। इन्हें पढ़कर राम और हनुमान भक्तों के हृदय गदगद हो जाएंगे। पोथी का नाम नहीं बताऊंगा क्योंकि चुपचाप पोथी पर रिसर्च करके मुझे प

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लंका-विजय के बाद

31 जुलाई 2022
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तब भारद्वाज बोले, "हे ऋषिवर, आपने मुझे परम पुनीत राम-कथा सुनाई, जिसे सुनकर मैं कृतार्थ हुआ। परन्तु लंका-विजय के बाद बानरो के चरित्र के विषय में आपने कुछ नहीं कहा। अयोध्या लौटकर बानरों ने कैसे कार्य कि

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लघु व्यंग्य, कथाएँ

31 जुलाई 2022
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1. अकाल-उत्सव दरारों वाली सपाट सूखी भूमि नपुंसक पति की संतानेच्छु पत्नी की तरह बेकल नंगी पड़ी है। अकाल पड़ा है। पास ही एक गाय अकाल के समाचार वाले अखबार को खाकर पेट भर रही है। कोई 'सर्वे वाला' अफसर छो

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शर्म की बात पर ताली पीटना

31 जुलाई 2022
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मैं आजकल बड़ी मुसीबत में हूँ। मुझे भाषण के लिए अक्सर बुलाया जाता है। विषय यही होते हैं - देश का भविष्य, छात्र समस्या, युवा-असंतोष, भारतीय संस्कृति भी (हालांकि निमंत्रण की चिट्ठी में 'संस्कृति' अक्सर

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सदाचार का तावीज़

31 जुलाई 2022
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एक राज्य में हल्ला मचा कि भ्रष्टाचार बहुत फ़ैल गया है । राजा ने एक दिन दरबारियों से कहा, "प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है । हमें तो आज तक कहीं नहीं दिखा । तुम लोगों को नही

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संस्कृति (व्यंग्य)

31 जुलाई 2022
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भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था। पहले आदमी ने पूछा, 'क्यों भाई, भूखे को

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स्नान

31 जुलाई 2022
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गंगा स्नान ही नही, साधारण स्नान के बारे में भी बड़ा अंधविश्वास है । जैसे यही, की रोज़ नहाना चाहिए - गर्मी हो या ठंड । क्यों नहाना चाहिए ? गर्मी में नहाना तो माफ़ किया जा सकता है, पर ठंड में रोज़ नहाना

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सुधार

31 जुलाई 2022
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एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्‍यों ने आवाज उठाई, 'संस्‍था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्‍था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग

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जिंदगी और मौत का दस्तावेज़

31 जुलाई 2022
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मेरे दुश्मनो, खुश होने में जल्दी मत करना। अभी वह शुभ क्षण नहीं आया कि मैं मरूँ । मैं जानता हूँ कि तुम एक अरसे से मेरी मृत्यु का शुभ समाचार सुनने को लालायित हो, पर फ़िलहाल मैं तुम्हें निराश कर रहा हू

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पहला सफेद बाल

31 जुलाई 2022
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आज पहला सफ़ेद बाल दिखा। कान के पास काले बालों के बीच से झांकते इस पतले रजत-तार ने सहसा मन को झकझोर दिया। ऎसा लगा जैसे बसन्त में वनश्री देखता घूम रहा हूं कि सहसा किसी झाड़ी से शेर निकल पड़े;या पुराने जमा

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व्यंग्य क्यों? कैसे? किस लिए?

31 जुलाई 2022
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मैं व्यंग्य लेखक माना जाता हूँ। व्यंग्य को लेकर जितना भ्रम हिन्दी में है, उतना किसी और विधा को लेकर नहीं। समीक्षकों ने भी इसकी लगातार उपेक्षा की है। अभी तक व्यंग्य की समीक्षा की भाषा ही नहीं बनी। ‘मजा

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गर्दिश फिर गर्दिश !

31 जुलाई 2022
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(आत्मकथ्य) होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुए। स्टेशन पर इटारसी के लिए गाड़ी पकड़ने के लिए बैठा था पास में एक रुपया था जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क

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अध्यक्ष महोदय

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विधानमंडलों में थोड़ी नोंक-झोंक, दिलचस्प टिप्पणी, रिमार्क, हल्की-फुल्की बातें सब कहीं चलती हैं। जब अंग्रेज सरकार थी, तब केंद्र में 'सेंट्रल असेंबली' थी। इसमें बड़े जबरदस्त लोग थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल क

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अपना-पराया

31 जुलाई 2022
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'आप किस स्‍कूल में शिक्षक हैं?' 'मैं लोकहितकारी विद्यालय में हूं। क्‍यों, कुछ काम है क्‍या?' 'हाँ, मेरे लड़के को स्‍कूल में भरती करना है।' 'तो हमारे स्‍कूल में ही भरती करा दीजिए।' 'पढ़ाई-‍

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अपील का जादू

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एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है।

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अयोध्या में खाता-बही

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पोथी में लिखा है – जिस दिन राम, रावण को परास्त करके अयोध्या आए, सारा नगर दीपों से जगमगा उठा। यह दीपावली पर्व अनन्तकाल तक मनाया जाएगा। पर इसी पर्व पर व्यापारी बही-खाता बदलते हैं और खाता-बही लाल कपड़े मे

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असहमत

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यह सिर्फ़ दो आदमियों की बातचीत है - “भारतीय सेना लाहौर की तरफ़ बढ़ गई- अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करके।” “हाँ, सुना तो। छम्ब में पाकिस्तानी सेना को रोकने के लिए यह ज़रुरी है।” “खाक ज़रूरी है! जहाँ वे लड़ें,

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आवारा भीड़ के खतरे

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एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया - पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक

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इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर

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वैज्ञानिक कहते हैं, चाँद पर जीवन नहीं है। सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन (डिपार्टमेंट में एम. डी. साब) कहते हैं- वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं, वहाँ हमारे जैसे ही मनुष्य की आबादी है। विज्ञान ने हमेशा

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ईश्वर की सरकार

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हमारे देश की सरकार ने देश की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में बढ़ाई है। प्रधानमंत्री ने तो किया ही है, हर मंत्री ने भी इसमें योगदान दिया है। पुलिस भी बदल चुकी है, लाठीचार्ज की घटनाओं में कमी आई है, पर गोलीचालन

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एक अशुद्ध बेवकूफ

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बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मजा है। यह

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एक गौभक्त से भेंट

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एक शाम रेलवे स्टेशन पर एक स्वामीजी के दर्शन हो गए। ऊँचे, गोरे और तगड़े साधु थे। चेहरा लाल। गेरुए रेशमी कपड़े पहने थे। साथ एक छोटे साइज़ का किशोर संन्यासी था। उसके हाथ में ट्रांजिस्टर था और वह गुरु को

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एक लड़की, पाँच दीवाने

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गोर्की की कहानी है, ‘26 आदमी और एक लड़की’। इस लड़की की कहानी लिखते मुझे वह कहानी याद आ गयी। रोटी के एक पिंजड़ानुमा कारखाने में 26 मजदूर सुअर से भी बदतर हालत में रहते और काम करते हैं। मालिक की जवान लड़

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कबीर का स्मारक बनेगा

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साधो, हिन्दू और मुसलमान एक ही सार्वजनिक संडास में जा सकते हें, दस्त के मामले में भाई-भाई होते हैं। मगर कबीरदास की मुसलमानो ने मजार बना ली थी और हिन्दुओं ने समाधि बना ली थी । और दोनों के बीच में एक दीव

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किस भारत भाग्य विधाता को पुकारें

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मेरे एक मुलाकाती हैं। वे कान्यकुब्ज हैं। एक दिन वे चिंता से बोले - अब हम कान्यकुब्जों का क्या होगा? मैंने कहा - आप लोगों को क्या डर है? आप लोग जगह-जगह पर नौकरी कर रहे हैं। राजनीति में ऊँचे पदों पर हैं

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किस भारत भाग्य विधाता को पुकारें

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मेरे एक मुलाकाती हैं। वे कान्यकुब्ज हैं। एक दिन वे चिंता से बोले - अब हम कान्यकुब्जों का क्या होगा? मैंने कहा - आप लोगों को क्या डर है? आप लोग जगह-जगह पर नौकरी कर रहे हैं। राजनीति में ऊँचे पदों पर हैं

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कैफियत

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एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे-यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फनी थिंग्स। एक मेरे पाठक (अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह हँसी की तिड़तिड़ाहट करके मेरी तरफ बढ़ते

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ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड

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मेरी टेबिल पर दो कार्ड पड़े हैं - इसी डाक से आया दिवाली ग्रीटिंग कार्ड और दुकान से लौटा राशन कार्ड। ग्रीटिंग कार्ड में किसी ने शुभेच्छा प्रगट की है कि मैं सुख और समृद्धि प्राप्त करूँ। अभी अपने शुभचिंत

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गांधीजी की शॉल

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चार दिन हो गए, पर शॉल का पता नहीं लगा। सेवकजी ने रेलवे स्टेशन पर पूछताछ की, डिब्बे में साथ बैठे एक परिचित यात्री से पूछा, पर पता नहीं लगा। पुलिस में रिपोर्ट और अखबार में विज्ञप्ति छपाने पर सोचा, पर लग

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घायल वसंत

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कल बसंतोत्सव था। कवि वसंत के आगमन की सूचना पा रहा था - प्रिय, फिर आया मादक वसंत। मैंने सोचा, जिसे वसंत के आने का बोध भी अपनी तरफ से कराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति-विज्ञ

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जाति

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कारख़ाना खुला। कर्मचारियों के लिये बस्ती बन गई। ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और ब्राह्मणपुरा से पंडितजी कारखा़ने में नौकरी करने लगे और पास-पास के ब्लॉक में रहने लगे। ठाकुर साहब का लड़का और पंडितजी की लड़की द

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टार्च बेचनेवाले

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वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था । मैंने पूछा, ''कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रख

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ठिठुरता हुआ गणतंत्र

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चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर ब

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दवा

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कवि ‘अनंग’ जी का अन्तिम क्षण आ पहुंचा था। डाक्टरों ने कह दिया कि यह अधिक से अधिक घंटे भर के मेहमान हैं। अनंग जी पत्नि ने कहा कि कुछ ऐसी दवा दे दें जिससे पांच छः घण्टे जीवित रह सकें ताकि शाम की गाड़ी

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दानी

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बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा हो रहा था। कुछ जनसेवकों ने एक संगीत-समारोह का आयोजन किया, जिसमें धन एकत्र करने की योजना बनाई। वे पहुँचे एक बड़े सेठ साहब के पास। उनसे कहा, 'देश पर इस समय संकट आया है। लाखों भ

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नया साल

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साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मै

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निंदा रस

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क' कई महीने बाद आए थे। सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफान की तरह कमरे में घुसे, साइक्लोन जैसा मुझे भुजाओं में जकड़ लिया। मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद गई। जब धृतराष्ट

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प्रजावादी समाजवादी

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साथी तेजराम 'आग' प्रजा समाजवादी दल के पुराने और प्रतिष्ठित नेता हैं। वे पहले प्राय: टोपी भी लगाते थे, पर एक दिन डॉ। लोहिया ने कह मारा कि यह बड़ी बेवकूफी की बात है। 'आग' ने उसी दिन से प्राय: टोपी उतार द

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प्रेमचंद के फटे जूते

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प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भर

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प्रेमियों की वापसी

31 जुलाई 2022
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नदी के किनारे बैठकर दोनों ने अंतिम चिट्ठी लिखी- ”यह दुनिया क्रूर है। प्रेमियों को मिलने नहीं देती। हम इसे छोड़कर उस लोक जा रहे हैं, जहां प्रेम के मार्ग में कोई बाधा नहीं है।” प्रेमेंद्र ने कहा, “यह द

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पिटने-पिटने में फर्क

31 जुलाई 2022
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यह आत्म प्रचार नहीं है। प्रचार का भार मेरे विरोधियों ने ले लिया है। मैं बरी हो गया। यह ललित निबंध है।) बहुत लोग कहते हैं - तुम पिटे। शुभ ही हुआ। पर तुम्हारे सिर्फ दो अखबारी वक्तव्य छपे। तुम लेखक हो

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पुलिस मंत्री का पुतला

31 जुलाई 2022
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एक राज्य में एक शहर के लोगों पर पुलिस-जुल्म हुआ तो लोगों ने तय किया कि पुलिस-मंत्री का पुतला जलाएँगे। पुतला बड़ा कद्दावर और भयानक चेहरेवाला बनाया गया। पर दफा 144 लग गई और पुतला पुलिस ने जब्त कर लिया

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बदचलन

31 जुलाई 2022
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एक बाड़ा था। बाड़े में तेरह किराएदार रहते थे। मकान मालिक चौधरी साहब पास ही एक बँगले में रहते थे। एक नए किराएदार आए। वे डिप्टी कलेक्टर थे। उनके आते ही उनका इतिहास भी मुहल्ले में आ गया था। वे इसके पहले

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बारात की वापसी

31 जुलाई 2022
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बारात में जाना कई कारण से टालता हूँ । मंगल कार्यों में हम जैसी चढ़ी उम्र के कुँवारों का जाना अपशकुन है। महेश बाबू का कहना है, हमें मंगल कार्यों से विधवाओं की तरह ही दूर रहना चाहिये। किसी का अमंगल अपने

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भारत को चाहिए जादूगर और साधु

31 जुलाई 2022
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हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूँ कि साल-भर में कितने बढ़े। न सोचूँ तो भी काम चलेगा - बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं। यह 26 जनवर

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भोलाराम का जीव

31 जुलाई 2022
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ऐसा कभी नहीं हुआ था. धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान 'अलॉट' करते आ रहे थे. पर ऐसा कभी नहीं हुआ था. सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार

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मुंडन

31 जुलाई 2022
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किसी देश की संसद में एक दिन बड़ी हलचल मची। हलचल का कारण कोई राजनीतिक समस्या नहीं थी, बल्कि यह था कि एक मंत्री का अचानक मुंडन हो गया था। कल तक उनके सिर पर लंबे घुँघराले बाल थे, मगर रात में उनका अचानक म

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रसोई घर और पाखाना

31 जुलाई 2022
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गरीब लड़का है। किसी तरह हाई स्‍कूल परीक्षा पास करके कॉलेज में पढ़ना चाहता है। माता-पिता नहीं हैं। ब्राह्मण है। शहर में उसी के सजातीय सज्‍जन के यहाँ उसके रहने और खाने का प्रबंध हो गया। मैंने इस मामले

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लघुशंका गृह और क्रांति

31 जुलाई 2022
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मंत्रिमंडल की बैठक में शिक्षा मंत्री ने कहा, ‘यह छात्रों की अनुशासनहीनता है। यह निर्लज्ज पीढ़ी है। अपने बुजुर्गो से लघुशंका गृह मांगने में भी इन्हें शर्म नहीं आती।’ किसी मंत्री ने कहा, ‘इन लड़कों को व

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वह जो आदमी है न

31 जुलाई 2022
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निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंद

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वैष्णव की फिसलन

31 जुलाई 2022
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वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से ज

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सन 1950 ईसवी

31 जुलाई 2022
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बाबू गोपालचंद्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गए थे कि अगर वे स्वतंत्रता-संग्राम में दो बार जेल - 'ए क्लास' में - न जाते, तो भारत आजाद होता ही नहीं। तारीख 3 दिसंबर 19

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समझौता

31 जुलाई 2022
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अगर दो साइकिल सचार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़े तो उनके लिए यह लाजिमी हो जाता है कि वे उठकर सबसे पहले लड़ें, फिर धूल झाड़ें। यह पद्धति इतनी मान्‍यता प्राप्‍त कर चुकी हैं कि गिरकर न लड़ने वाला स

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सिद्धांतों की व्यर्थता

31 जुलाई 2022
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अब वे धमकी देने लगे हैं कि हम सिद्धांत और कार्यक्रम की राजनीति करेंगे। वे सभी जिनसे कहा जाता है कि सिद्धांत और कार्यक्रम बताओ। ज्योति बसु पूछते थे, नंबूदरीपाद पूछते थे। मगर वे बताते नहीं थे। हम लोगों

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व्यवस्था के चूहे से अन्न की मौत

31 जुलाई 2022
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इस देश में आदमी की सहनशीलता जबर्दस्त और तटस्थता भयावह है। पूरी व्यवस्था में मरे हुए चूहे की सड़ांध भरी हुई है। चूहे सरकार के ही हैं और मजे की बात यह है कि चूहेदानियां भी सरकार ने चूहों को पकड़ने के लिए

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कहावतों का चक्कर

31 जुलाई 2022
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जब मैं हाईस्कूल में पढता था, तब हमारे अंग्रेजी के शिक्षक को कहावतें और सुभाषित रटवाने की बड़ी धुन थी । सैकड़ों अंग्रेजी कहावतें उन्होंने हमे रटवाई और उनका विश्वास था की यदि हमने नीति वाक्य रट लिए, तो हम

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मैं नर्क से बोल रहा हूं !

31 जुलाई 2022
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हे पत्थर पूजने वालों! तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूं। जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते, उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो। जिंदगी-

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ज्वाला और जल भाग 1

1 अगस्त 2022
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अब्दुल...नहीं नहीं..विनोद- लेकिन विनोद भी कैसे ? न अब्दुल, न विनोद-उसे न अब्दुल नाम से याद कर सकता हूँ न विनोद से। हाँ, यह है कि वह अब्दुल था, पर उतना ही सही यह भी है कि वह विनोद भी था। लेकिन न वह के

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ज्वाला और जल भाग 2

1 अगस्त 2022
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पत्नी ने कहा,  ‘‘इस लड़के को कुछ दे दो।’’ मैंने हाथ में एक रुपया लिया और उसे पुकारा।  वह पास आकर बोला,  ‘‘कितने कप बाबू ?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं, चाय नहीं चाहिए; रक्खो।’’  मैंने रुपया उसकी ओर बढ़ाय

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तट की खोज

1 अगस्त 2022
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एक दिन किसी विवाह के इच्छुक वर के पिता मुझे देखने आये। आशा और निराशा के बीच झूलते पिताजी तीन दिन से घर की तैयारी कर रहे थे। मकान की सफाई की गई, सजावट की गई, साथ ही मुझे भी सजाया गया। ऐसे अवसर पर घर मे

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रानी नागफनी

1 अगस्त 2022
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फेल होना कुँअर अस्तभान का और करना आत्महत्या की तैयारी किसी राजा का एक बेटा था जिसे लोग अस्तभान नाम से पुकारते थे। उसने अट्ठाइसवाँ वर्ष पार किया था और वह उन्तीसवें में लगा था। पर राजा ने स्कूल में उसक

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चंदे का डर

1 अगस्त 2022
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एक  छोटी-सी समिति की बैठक बुलाने की योजना चल रही थी। एक सज्‍जन थे जो समिति के सदस्‍य थे, पर काम कुछ नहीं, गड़बड़ पैदा करते थे और कोरी वाहवाही चाहते थे। वे लंबा भाषण देते थे। वे समिति की बैठक में नहीं

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