आगे-आगे माँ पीछे मैं; उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक चुन लेती डंठल पल भर रुक वह जीर्ण-नील-वस्त्रा है अस्थि-दृढ़ा गतिमती व्यक्तिमत्ता कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का उसके जीवन से लगे हुए वर्षा-गर
अग्नि के काष्ठ खोजती माँ, बीनती नित्य सूखे डंठल सूखी टहनी, रुखी डालें घूमती सभ्यता के जंगल वह मेरी माँ खोजती अग्नि के अधिष्ठान मुझमें दुविधा, पर, माँ की आज्ञा से समिधा एकत्र कर रहा हूँ मैं
स्तब्ध हूँ विचित्र दृश्य फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से सरकती जाती हैं चेहरों के चौखटे अलग-अलग तरह के-- अजीब हैं मुश्किल
मुझे जेल देती हैं दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ गुस्से में ढकेल ही देती हैं। भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ। अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं वीरान जलत
मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ कहती हैं - तुम क्या हो? पहचान न पायीं, सच! क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का सौन्दर्य अनिर्वच, प्राण हैं प्रस्तर-त्वच। मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं सोई हुई
मुझसे जो छूट गये अपने वे स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ, उनका आदेश क्या, क्या करूँ? रह-रहकर यह ख़याल आता है- ज्ञानी एक पूर्वज ने किसी रात, नदी का पानी काट, मन्त्र पढ़ते हुए, गहन जल-धारा में
जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए, एक भयद अपवित्रता की हद ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में एक अनहद गान निनादित सर्वतः झूलता रहता है, ऊँचा उठ, नीचे गिर पुनः क्षीण, पुनः तीव्र इस कोने, उस कोने, दूर-दूर
सागर तट पथरीला किसी अन्य ग्रह-तल के विलक्षण स्थानों को अपार्थिव आकृति-सा इस मिनिट, उस सेकेण्ड चमचमा उठता है, जब-जब वे स्फूर्ति-मुख मुझे देख तमतमा उठते हैं काली उन लहरों को पकड़कर अँजलि मे
एक विजय और एक पराजय के बीच मेरी शुद्ध प्रकृति मेरा 'स्व' जगमगाता रहता है विचित्र उथल-पुथल में। मेरी साँझ, मेरी रात सुबहें व मेरे दिन नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं सियाह समुन्दर के अथाह पानी में